डिंगल | ||||
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डिंगल • ḍiṁgala | ||||
देवनागरी लिपि में "डिंगल" | ||||
उच्चारण | [ɖiⁿɡələ] | |||
बोलने का स्थान | ||||
तिथि / काल | 8 वीं शताब्दी से आरंभ; 13वीं शताब्दी तक राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में विकसित | |||
क्षेत्र | ||||
मातृभाषी वक्ता | – | |||
भाषा परिवार | ||||
लिपि | ||||
भाषा कोड | ||||
आइएसओ 639-3 | – | |||
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डिंगल, जिसे प्राचीन राजस्थानी के नाम से भी जाना जाता है, नागरी लिपि में लिखी जाने वाली एक प्राचीन भारतीय भाषा है जिसमें गद्य के साथ-साथ काव्य में भी साहित्य है। यह बहुत उच्च स्वर की भाषा है और इसके काव्य उच्चारण लिए विशिष्ट शैली की आवश्यकता होती है। डिंगल का उपयोग राजस्थान, गुजरात, कच्छ, मालवा और सिंध सहित आसपास के क्षेत्रों में किया जाता था। अधिकांश डिंगल साहित्य की रचना चारणों द्वारा की गई है। डिंगल का उपयोग राजपूत और चारण युद्ध नायकों के सैन्य कारनामों की प्रशंसा करके युद्धों में सैनिकों को प्रेरित करने के लिए भी किया जाता था।[2]
डिंगल एक नई हिन्द-आर्य भाषा (एनआईए) भाषा या काव्य शैली है। इसे 'मरू-भाषा', मारवाड़ी और 'पुरानी राजस्थानी' जैसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। डिंगल को ब्रज, अवधी, साधु भाषा और मैथिली के साथ सूचीबद्ध पांच "पूर्व-आधुनिक हिंदी साहित्यिक बोलियों" में से एक के रूप में भी वर्णित किया गया है।[3] डिंगल को मारवाड़ी और गुजराती भाषाओं का पूर्वज भी कहा गया है।[4]
'डिंगल' का सबसे प्राचीन उल्लेख 8वीं शताब्दी के उद्योतन सूरी द्वारा रचित 'कुवलयमाला' में मिलता है। डिंगल विद्वान शक्ति दान कविया के अनुसार, पश्चिमी राजस्थान के अपभ्रंश से व्युत्पन्न 9वीं शताब्दी तक डिंगल अस्तित्व में आई, और इस सम्पूर्ण क्षेत्र की साहित्यिक भाषा बन गई।[5]
'डिंगल' शब्द का प्रयोग जैन कवि वाचक कुशलाभ द्वारा कृत 'उडिंगल नाम माला' और संत-कवि सायांजी झूला द्वारा कृत 'नाग-दमन' में भी मिलता है, जो दोनों ग्रंथ 15 वीं शताब्दी की शुरुआत में लिखे गये थे।[6]
झवेरचंद मेघाणी के अनुसार, डिंगल, एक चारणी भाषा, अपभ्रंश और प्राकृत से विकसित हुई थी। मेघाणी ने डिंगल को एक भाषा और काव्य माध्यम दोनों के रूप में माना, जो "राजस्थान और सौराष्ट्र के बीच स्वतंत्र रूप से बहती थी और सिंधी और कच्छी जैसी अन्य ध्वन्यात्मक भाषाओं की रूपरेखा के अनुरूप ढल जाती थी"।[7]
डिंगल भाषा की एक दिलचस्प विशेषता यह है कि इसमें प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के पुरातन शब्दों को संरक्षित करके रखा गया है जो कहीं और नहीं मिलते हैं। डिंगल, अन्य उत्तरी हिन्द-आर्य भाषाओं से अलग है, क्योंकि यह कई पुराने भाषा रूप व नव-व्याकरणिक और शाब्दिक निर्माणों को सम्मालित करती है।[5] पश्चिमी राजस्थान में डिंगल की भौगोलिक उत्पत्ति के कारण, डिंगल शब्दावली अनेकों सिंधी, फारसी, पंजाबी और संस्कृत के शब्दों को भी साझा करती है।[8]
टेसिटोरी डिंगल कवियों की पुरातन शब्दावली की व्याख्या इस प्रकार करते है:
व्याकरण की तुलना में शब्द शब्दावली के मामले में चारण अधिक रूढ़िवादी रहे हैं, और अधिकांश काव्य और पुरातन शब्द जो पांच सौ साल पहले उनके द्वारा उपयोग किए गए थे, आज भी वर्तमान समय के चारणों द्वारा उपयोग किए जा सकते हैं, हालांकि उनके अर्थ अब किसी भी श्रोता या पाठक के लिए बोधगम्य नहीं है, केवल डिंगल-परंपरा में दीक्षित के सिवाय। डिंगल में पुरातन शब्दों के संरक्षण के इस तथ्य को 'हमीर नाम-माला' और 'मनमंजरि नाम-माला' जैसे काव्य शब्दावलियों, आदि के अस्तित्व द्वारा आसानी से समझा जा सकता है, जो पिछली तीन शताब्दियों या उससे अधिक समय से चारणों के अध्ययन-पाठ्यक्रम में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।[8]
स्रोत:[9]
ऐतिहासिक रूप से पश्चिमी राजस्थान की भाषा डिंगल के नाम से जानी जाती थी। डिंगल को मरु-भाषा (अन्यथा मारवाड़ी भाषा, मरुभौम भाषा, आदि) के समान माना जाता था।
डिंगल लेखकों के ग्रन्थों में कई ऐतिहासिक उदाहरण मिलते हैं जो इस दृष्टिकोण की पुष्टि करते हैं कि इस क्षेत्र की बोली जाने वाली भाषा को डिंगल भी कहा जाता है। पदम भगत द्वारा 15वीं शताब्दी के अंत में रचित अख्यान काव्य पाठ 'रुकमणी मंगल' या 'हाराजी रो व्यावालो' बोली जाने वाली भाषा में लिखित है। इसकी एक पांडुलिपि में एक दोहा मिलता है:
'मेरी कविता की भाषा डिंगल है। यह कोई मीटर या निरंतरता नहीं जानती। इसमें केवल दिव्य चिंतन शामिल है'।
19-वी शताब्दी के प्रारम्भ में चारण संत स्वरूपुदास अपने ग्रंथ 'पांडव यशेंदु चंद्रिका' में लिखते हैं:
'मेरी भाषा मिश्रित है। इसमें डिंगल, ब्रज और संस्कृत शामिल हैं, ताकि सभी समझ सकें। मैं इसके लिए विद्वान कवियों से क्षमा चाहता हूँ।'
यद्यपि यह सत्य है कि अधिकांश डिंगल साहित्य की रचना चारणों द्वारा की गई थी, अन्य जातियों ने भी इसे अपनाया और महान योगदान दिया। चारण के अलावा, राजपूत, पंचोली (कायस्थ), मोतीसर, ब्राह्मण, रावल, जैन, मुहता (ओसवाल) और भाट समुदायों के कई कवियों द्वारा डिंगल साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।[10]
स्रोत:[9]
'डिंगल गीत' डिंगल की एक अनूठी विशेषता है और इसे चारणों द्वारा आविष्कारित माना जाता है। डिंगल गीतों में एक महत्वपूर्ण अंतर है। यह धारणा कि ये 'गीत' गाए गए थे, भ्रामक है। वैदिक भजनों के समान ही चारणों द्वारा डिंगल गीत का पाठ किया गया था।[6] यह राजस्थानी काव्य की एक अनूठी विशेषता है। जैसे अपभ्रंश में दोहा सबसे लोकप्रिय मीटर है, वैसे ही राजस्थानी के लिए 'गीत' है।
'गीत' 120 प्रकार के होते हैं। आमतौर पर डिंगल छंद ग्रंथों में 70-90 प्रकार के गीतों का प्रयोग किया गया है। एक गीत एक छोटी कविता की तरह है। इसे गाया नहीं जाना चाहिए बल्कि "एक विशेष शैली में उच्च स्वर में" कहा जाना चाहिए।
ऐसे हजारों गीत ऐतिहासिक घटनाओं की स्मृति में लिखे गए हैं। उनमें से कई ऐतिहासिक घटना के संबंध में समकालीन हैं और उन्हें "साख री कविता" या गवाही की कविता के रूप में जाने जाते हैं।
एक 'गीत' की रचना के लिए अभियोगात्मक नियम हैं। वो हैं:-
इसके अलावा, एक रचना को 'दोष' (त्रुटिओं) से बचना होता है, जो कि चारण छंद के लिए विशिष्ट होते हैं और 11 प्रकार के होते हैं।
इसके अतिरिक्त, 22 प्रकार के छप्पय, 12 प्रकार के निशानी और 23 प्रकार के दोहे होते हैं।
डिंगल भाषा के कई ऐतिहासिक शब्दकोश हैं:-[11]
हमीर नाम-माला 1774 ईस्वी में हमीर दान रतनूं द्वारा लिखा गया है। मूल रूप से मारवाड़ के घड़ोई गांव के रहने वाले हमीर दान ने अपना अधिकांश जीवन कच्छ के भुज शहर में व्यतीत किया। वह अपने समय के एक महान विद्वान थे और उन्होंने 'लखपत पिंगल' और 'भागवत दर्पण' सहित कई अन्य ग्रंथ लिखे थे। हमीर नाम-माला डिंगल के सबसे प्रसिद्ध शब्दकोशों में से एक है। विष्णु (यानी हरि) को समर्पित छंदों की महत्वपूर्ण उपस्थिति के कारण इसे हरिजस नाम-माला के रूप में भी जाना जाता है।
महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण के पुत्र और बूंदी राज्य के कविराजा मुरारीदान मिश्रण ने डिंगल शब्दावली के एक शब्दकोश को संकलित किया, जिसे 'डिंगल कोष' कहा जाता है। यह डिंगल भाषा के शब्दकोशों में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने विक्रम संवत 1943 (1886 ईसवी) के चैत्र महीने से लिखना शुरू किया।[12]
डिंगल नाम-माला, या उडिंगल नाम-माला, डिंगल भाषा का सबसे पुराना उपलब्ध शब्दकोश है। इसे जैसलमेर के एक दरबारी कवि कुशलाभ जैन ने 1618 में लिखा था। जैसलमेर के तत्कालीन शासक हरराज भी इस कृति के सह-लेखक हैं।
नागराज पिंगल द्वारा नागराज डिंगल कोष 1821 में लिखा गया था। इसकी पांडुलिपि मारवाड़ के जुडिया गांव के पनरामजी मोतीसर के निजी संग्रह में मिली थी।
अवधान-माला उदयराम बारहठ द्वारा लिखी गई थी। वह मारवाड़ के महाराजा मान सिंह के समकालीन थे। मारवाड़ के थाबूकड़ा गांव में जन्मे वे कच्छ के भुज शहर में रहते थे और अपने समय के बड़े विद्वान थे। अवधान-माला उनके अन्य कार्यों में पाया जाता है जिन्हें 'कवि-कुल-बोध' कहा जाता है।
अनेकार्थी कोष उदयराम बारहठ का एक और ग्रंथ है जो डिंगल शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संग्रह है। 'कवि-कुल-बोध' ग्रंथ का यह भाग है। इसमें कभी-कभी संस्कृत शब्दों को पर्यायवाची के रूप में भी शामिल किया जाता है। पूरा पाठ दोहों का उपयोग करके लिखा गया है जिससे याद रखना आसान हो जाता है।
उदयराम बारहठ द्वारा कृत डिंगल का एक और शब्दकोश, उनके ग्रंथ 'कवि-कुल-बोध' का हिस्सा। उदयराम ने डिंगल शब्दों के अलावा संस्कृत के साथ-साथ कई आम भाषा के शब्दों को भी शामिल किया है।
एकाक्षरी नाम-माला के लेखक मारवाड़ के घड़ोई गांव निवासी वीरभान रतनूं थे। वीरभान मारवाड़ के अभय सिंह के समकालीन थे। यह कोष 16वीं शताब्दी में लिखा गया था।
डिंगल भाषा का एक और शब्दकोश, हालांकि इसके लेखक और समय अवधी का पता नहीं चल सका है। इसकी लिखावट के विचार से 18वीं शताब्दी की शुरुआत में लिखा माना जाता है।
डींगल गीतों का वाचन और गायन बहुत सरल नहीं है। इसमें विकटबंध गीत और भी कठिन माना जाता है। डॉक्टर कविया एक विकटबंध गीत की मिसाल देते हैं जिसमें पहली पंक्ति में 54 मात्राएँ थीं, फिर 14-14 मात्राओं की 4-4 पंक्तियाँ एक जैसा वर्ण और अनुप्राश! इसे एक स्वर और साँस में बोलना पड़ता था और कवि गीतकार इसके लिए अभ्यास करते थे।
राजस्थान में भक्ति, शौर्य और शृंगार रस की भाषा रही डींगल अब चलन से बाहर होती जा रही है। अब हालत ये है कि डींगल भाषा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राचीन ग्रंथों को पढ़ने की योग्यता रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं।
कभी डींगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में रणबाँकुरों में उत्साह भरा करते थे लेकिन वक़्त ने ऐसा पलटा खाया कि राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कुछ भागों में सदियों से बहती रही डींगल की काव्यधारा अब ओझल होती जा रही है। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉक्टर लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत चिंता के स्वर में कहती हैं कि यही हाल रहा तो डींगल का वजूद ही ख़तरे में पड़ जाएगा।