भट्टोत्पल

उत्पल या भट्टोत्पल, भारत के १०वीं शताब्दी के खगोलविद थे। उन्होने वराह मिहिर द्वारा रचित बृहत्संहिता की टीका लिखी है।[1]

कृतियाँ

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भट्टोत्पल की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  • शिष्यहिता - वराहमिहिर के लघुजातक की टीका [2][3]
  • जगच्चन्द्रिका या चिन्तामणि -- वराहमिहिर के बृहज्जातक की टीका [2][4]
  • संहितावृत्ति, वराहमिहिर के बृहत्संहिता की टीका [2] । संहितावृत्ति मे वराहमिहिर के "समास-संहिता" के सार-अंश भी सम्मिलित हैं।[5]
    • भास्कर ने इस टीका की "उत्पल-परिमल" नामक एक एक संक्षिप्त टीका लिखी है। भास्कर वर्षगण कुल के 'कुमार' के पुत्र थे।[6]
  • चिन्तामणि, ब्रह्मगुप्त की खण्डखाद्यक की टीका [2]
  • यज्ञाश्वमेधिका, वराहमिहिर के "बृहद्-यात्रा" की टीका[2]
  • वराहमिहिर के "योग-यात्रा" की टीका[2]
  • चिन्तामणि, वराहमिहिर के "विवाहपटल" की टीका [2]
  • वराहमिहिर के पुत्र पृथुयासस् की "षट्पञ्चाशिका" की टीका [2]
  • चिन्तामणि, बादरायण द्वारा रचित "प्रश्न-विद्या" की टीका[2]
  • प्रश्नचूडामणि, ज्योतिष पर प्रश्नोत्तर रूप में ७० श्लोकों वाला एक ग्रन्थ [7]
    • यह उत्पल द्वारा रचित एकमात्र मूल ग्रन्थ है जो प्राप्य है।[3]
    • प्रश्नचूडामणि को अनेक अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे- "आर्यासप्तति" (क्योंकि इसमें आर्या छन्द में ७० पद्य हैं।), "भुवनदीपिका", "ज्ञान-माल", "प्रश्नज्ञान", "प्रश्नार्य", "प्रश्नार्य-सप्तति", और "प्रश्न-ग्रन्थ"[3][2]
  • उत्पल ने इसके आरम्भिक और अन्तिम आर्याओं में इस ग्रन्थ को "प्रश्न-ज्ञान" कहा है। इससे लगता है कि इस ग्रन्थ का मूल नाम "प्रश्न-ज्ञान" ही था। [3]
    • कुछ पांडुलिपियों के कोलोफॉन से पता चलता है कि यह ज्ञान-माला नामक एक बड़े ग्रन्थ का भाग था।[3]
  • युद्ध-जयार्णव-तन्त्र -- युद्ध में विजय पर रचित ग्रन्थ[3]
    • इसके कोलोफोन में इसे भट्टोत्पल द्वारा रचित बताया गया है।
    • इसके बारे में नेवारी लिपि की एक पाण्डुलिपि से पता चला जो सर्वबल नामक दैवज्ञ द्वारा १२७० ई० में लिखी गयी है।
    • यह ग्रन्थ शिव-पार्वती संवाद के रूप में है। शिव, पार्वती के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। रघु-नन्दन ने अपने "ज्योतिष-तत्त्व" नामक ग्रन्थ में इसे उद्धृत किया है।

अल-बरुनी ने "संहिता-वृत्ति" और "प्रश्न-चूडामणि" के अलावा निम्नलिखित ग्रन्थों को भी भट्टोत्पल द्वारा रचित बतया है। किन्तु ये अब प्राप्य नहीं हैं।[7][3]

  • ज्योतिष का एक करण ग्रन्थ जिसका नाम भ्रष्ट हो गया है (रा.ह.त.रकरण ??)
    • एदवर्द सचौ (Eduard Sachau) ने इसका नाम ठीक करने का प्रयन्त किया है और इसका सम्भवित सही नाम राहुन्द्रा-करण" बताया है। अजय मित्र शास्त्री का कहना है कि शायद यह सही नाम नहीं है, और सही नाम राहु-निराकरण सुझाया है। डेविड पिंग्री ने इसका नाम आर्धरात्रिका-करण सुझाया है।
  • करणाघात (या करण-पात) -- ज्योतिष का एक करण-ग्रन्थ
  • मुञ्जाल द्वारा रचित "बृहन्मानस" का टीका-ग्रन्थ
  • S.rū.dh.w, ज्योतिष का एक अन्य ग्रन्थ जिसका नाम ठीक-ठीक नहीं पढ़ा जा सका है।
    • इसका मूल नाम क्या था, यह अनिश्चित है। एदवर्द सचौ ने इसका नाम "श्रूधव" सुझाया है जबकि डेविड पिंग्री ने इसका नाम "सूत्रधार" सुझाया है।
    • अल-अबरुनी ने इस ग्रन्थ में वर्णित मापन सम्बन्धी ज्ञान की प्रशंसा की है और कहा है कि इसकी विधियों को एक अन्य भारतीय खगोलशास्त्री (नाम -"ŚMY") ने भी अंगीकार किया है।

जगच्चन्द्रिका में उत्पल ने 'वास्तुविद्या' (architecture) पर लिखे अपने ग्रन्थ से कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। यह ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य है।[3]

कल्याण वर्मन कृत सारावली की कुछ पाण्डुलिपियों के अन्त में एक श्लोक मिलता है जिसमें यह कहा गया है कि मूल ग्रन्थ तीन सौ वर्ष से भी अधिक समय तक अपूर्ण ही बना रहा, जिसे भट्टोत्पल ने पूर्ण किया। [6]

सम्भव है कि भट्टोत्पल के प्राप्त ग्रन्थों में इनकी प्रतिलिपि बनाने वालों के द्वारा कुछ छोड़ दिया गया हो, या कुछ जोड़ दिया गया हो, या परिवर्तित कर दिया गया हो। उदाहरण के लिये, अलबरुनी ने लिखा है कि मुल्तान के मूल नाम के बारे में संहिता-वृत्ति में बताया गया है ; किन्तु वर्तमान में प्राप्त पाण्डुलिपियों में मुल्तान के बारे में यह कथन नहीं मिलता। अलबरुनी ने लिखा है कि संहितावॄति में लिखा है कि मुल्तान को पहले 'यवनपुर' कहते थे, उसके बाद इसका नाम 'हंसपुर' पड़ा, फिर 'बाग-पुर', फिर 'शम्बपुर' और फिर 'मूल-स्थान' । [6]

सन्दर्भ

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  1. Varahamihira’s Pandiagonal Magic Square of the Order Four (TAKAO HAYASHI ; 1987)
  2. Bill M. Mak 2019, पृ॰ 42.
  3. A.M. Shastri 1991, पृ॰ 205.
  4. A.M. Shastri 1991, पृ॰ 206.
  5. A.M. Shastri 1991, पृ॰ 62.
  6. A.M. Shastri 1991, पृ॰ 207.
  7. Bill M. Mak 2019, पृ॰प॰ 41-42.

बाहरी कड़ियाँ

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  • बृहज्जातकम् (भट्टोत्पल द्वारा संस्कृत टीका एवं केदार जोशी द्वारा हिन्दी व्याख्या सहित)