भारत में पर्यावरण की कई समस्या है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कचरा, और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण भारत के लिए चुनौतियाँ हैं। पर्यावरण की समस्या की परिस्थिति 1947 से 1995 तक बहुत ही खराब थी। 1995 से २०१० के बीच विश्व बैंक के विशेषज्ञों के अध्ययन के अनुसार, अपने पर्यावरण के मुद्दों को संबोधित करने और अपने पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने में भारत दुनिया में सबसे तेजी से प्रगति कर रहा है। फिर भी, भारत विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के स्तर तक आने में इसी तरह के पर्यावरण की गुणवत्ता तक पहुँचने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है।[1][2] भारत के लिए एक बड़ी चुनौती और अवसर है। पर्यावरण की समस्या का, बीमारी, स्वास्थ्य के मुद्दों और भारत के लिए लंबे समय तक आजीविका पर प्रभाव का मुख्य कारण हैं।
कुछ पर्यावरण के मुद्दों के बारे में कारण के रूप में आर्थिक विकास को उद्धृत किया है।दूसरे, आर्थिक विकास में भारत के पर्यावरण प्रबंधन में सुधार लाने और देश के प्रदूषण को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है विश्वास करते हैं।बढ़ती जनसंख्या भारत के पर्यावरण क्षरण का प्राथमिक कारण भी है ऐसा सुझाव दिया गया है।व्यवस्थित अध्ययन में इस सिद्धांत को चुनौती दी गई है
तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या व आर्थिक विकास और शहरीकरण व औद्योगीकरण में अनियंत्रित वृद्धि, बड़े पैमाने पर औद्योगीक विस्तार तथा तीव्रीकरण, तथा जंगलों का नष्ट होना इत्यादि भारत में पर्यावरण संबंधी समस्याओं के प्रमुख कारण हैं।
प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में वन और कृषि-भूमिक्षरण, संसाधन रिक्तीकरण (पानी, खनिज, वन, रेत, पत्थर आदि), पर्यावरण क्षरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, जैव विविधता में कमी, पारिस्थितिकी प्रणालियों में लचीलेपन की कमी, गरीबों के लिए आजीविका सुरक्षा शामिल हैं।[3]
यह अनुमान है कि देश की जनसंख्या वर्ष 2018 तक 1.26 अरब तक बढ़ जाएगी. अनुमानित जनसंख्या का संकेत है कि 2050 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा और चीन का स्थान दूसरा होगा। [4] दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2.4% परन्तु विश्व की जनसंख्या का 17.5% धारण कर भारत का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव काफी बढ़ गया है। कई क्षेत्रों पर पानी की कमी, मिट्टी का कटाव और कमी, वनों की कटाई, वायु और जल प्रदूषण के कारण बुरा असर पड़ता है।
भारत की पर्यावरणीय समस्याओं में विभिन्न प्राकृतिक खतरे, विशेष रूप से चक्रवात और वार्षिक मानसून बाढ़, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती हुई व्यक्तिगत खपत, औद्योगीकरण, ढांचागत विकास, घटिया कृषि पद्धतियां और संसाधनों का असमान वितरण हैं और इनके कारण भारत के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार खेती योग्य भूमि का 60% भूमि कटाव, जलभराव और लवणता से ग्रस्त है। यह भी अनुमान है कि मिट्टी की ऊपरी परत में से प्रतिवर्ष 4.7 से 12 अरब टन मिट्टी कटाव के कारण खो रही है। 1947 से 2002 के बीच, पानी की औसत वार्षिक उपलब्धता प्रति व्यक्ति 70% कम होकर 1822 घन मीटर रह गयी है तथा भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश में एक समस्या का रूप ले चुका है। भारत में वन क्षेत्र इसके भौगोलिक क्षेत्र का 18.34% (637,000 वर्ग किमी) है। देश भर के वनों के लगभग आधे मध्य प्रदेश (20.7%) और पूर्वोत्तर के सात प्रदेशों (25.7%) में पाए जाते हैं; इनमें से पूर्वोत्तर राज्यों के वन तेजी से नष्ट हो रहे हैं। वनों की कटाई ईंधन के लिए लकड़ी और कृषि भूमि के विस्तार के लिए हो रही है। यह प्रचलन औद्योगिक और मोटर वाहन प्रदूषण के साथ मिल कर वातावरण का तापमान बढ़ा देता है जिसकी वजह से वर्षण का स्वरुप बदल जाता है और अकाल की आवृत्ति बढ़ जाती है।
पार्वती स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का अनुमान है कि तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि सालाना गेहूं की पैदावार में 15-20% की कमी कर देगी. एक ऐसे राष्ट्र के लिए, जिसकी आबादी का बहुत बड़ा भाग मूलभूत स्रोतों की उत्पादकता पर निर्भर रहता हो और जिसका आर्थिक विकास बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास पर निर्भर हो, ये बहुत बड़ी समस्याएं हैं। पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में हो रहे नागरिक संघर्ष में प्राकृतिक संसाधनों के मुद्दे शामिल हैं - सबसे विशेष रूप से वन और कृषि योग्य भूमि.
जंगल और जमीन की कृषि गिरावट, संसाधनों की कमी (पानी, खनिज, वन, रेत, पत्थर आदि),पर्यावरण क्षरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, जैव विविधता के नुकसान, पारिस्थितिकी प्रणालियों में लचीलेपन की कमी है, गरीबों के लिए आजीविका सुरक्षा है। भारत में प्रदूषण का प्रमुख स्रोत ऐसी ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत के रूप में पशुओं से सूखे कचरे के रूप में फ्युलवुड और बायोमास का बड़े पैमाने पर जलना, संगठित कचरा और कचरे को हटाने सेवाओं की एसीके, मलजल उपचार के संचालन की कमी, बाढ़ नियंत्रण और मानसून पानी की निकासी प्रणाली, नदियों में उपभोक्ता कचरे के मोड़, प्रमुख नदियों के पास दाह संस्कार प्रथाओं की कमी है, सरकार अत्यधिक पुराना सार्वजनिक परिवहन प्रदूषण की सुरक्षा अनिवार्य है, और जारी रखा 1950-1980 के बीच बनाया सरकार के स्वामित्व वाले, उच्च उत्सर्जन पौधों की भारत सरकार द्वारा आपरेशन है।
वायु प्रदूषण, गरीब कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल टेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि / मिट्टी का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की प्रमुख समस्या है। भारत की जनसंख्या वृद्धि पर्यावरण के मुद्दों और अपने संसाधनों के लिए दबाव समस्या बढ़ाते है।
भारत के 3,119 शहरों व कस्बों में से 209 में आंशिक रूप से तथा केवल 8 में मलजल को पूर्ण रूप से उपचारित करने की सुविधा (डब्ल्यू.एच.ओ. 1992) है।[5] 114 शहरों में अनुपचारित नाली का पानी तथा दाह संस्कार के बाद अधजले शरीर सीधे ही गंगा नदी में बहा दिए जाते हैं।[6] अनुप्रवाह में नीचे की ओर, अनुपचारित पानी को पीने, नहाने और कपड़े धोने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह स्थिति भारत और साथ ही भारत में खुले में शौच काफी आम है, यहां तक कि शहरी क्षेत्रों में भी.[7][8]
जल संसाधनों को इसीलिए घरेलू या अंतर्राष्ट्रीय हिंसक संघर्ष से नहीं जोड़ा गया है जैसा कि पहले कुछ पर्यवेक्षकों द्वारा अनुमानित था। इसके कुछ संभावित अपवादों में कावेरी नदी के जल वितरण से सम्बंधित जातिगत हिंसा तथा इससे जुड़ा राजनैतिक तनाव जिसमें वास्तविक और संभावित जनसमूह जो कि बांध परियोजनाओं के कारण विस्थापित होते हैं, विशेषकर नर्मदा नदी पर बनने वाली ऐसी परियोजनाएं शामिल हैं।[9] आज पंजाब प्रदूषण के पनपने का एक संभावित स्थान है, उदाहरण के लिए बुड्ढा नुल्ला नाम की एक छोटी नदी जो पंजाब, भारत के मालवा क्षेत्र से है, यह लुधियाना जिले जैसी घनी आबादी वाले क्षेत्र से होकर आती है और फिर सतलज नदी, जो कि सिन्धु नदी की सहायक नदी है, में मिल जाती है, हाल की शोधों के अनुसार यह इंगित किया गया है कि एक बार और भोपाल जैसी परिस्थितियां बनने वाली हैं।[10] 2008 में पीजीआईएमईआर और पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा किये गए संयुक्त अध्ययन से पता चला कि नुल्ला के आस पास के जिलों में भूमिगत जल तथा नल के पानी में स्वीकृत सीमा (एमपीएल) से कहीं अधिक मात्रा में कैल्शियम, मैग्नीशियम, फ्लोराइड, मरकरी तथा बीटा-एंडोसल्फान व हेप्टाक्लोर जैसे कीटनाशक पाए गए। इसके अलावा पानी में सीओडी तथा बीओडी (रासायनिक व जैवरासायनिक ऑक्सीजन की मांग), अमोनिया, फॉस्फेट, क्लोराइड, क्रोमियम व आर्सेनिक तथा क्लोरपायरीफौस जैसे कीटनाशक भी अधिक सांद्रता में थे। भूमिगत जल में भी निकल व सेलेनियम पाए गए और नल के पानी में सीसा, निकल और कैडमियम की उच्च सांद्रता मिली।[11]
मुंबई नगर से होकर बहने वाली मीठी नदी भी बहुत प्रदूषित है।
गंगा नदी के किनारे 40 करोड़ से भी अधिक लोग रहते हैं। हिन्दुओं के द्वारा पवित्र मानी जाने वाली इस नदी में लगभग 2,000,000 लोग नियमित रूप से धार्मिक आस्था के कारण स्नान करते हैं। हिन्दू धर्म में कहा जाता है कि यह नदी भगवन विष्णु के कमल चरणों से (वैष्णवों की मान्यता) अथवा शिव की जटाओं से (शैवों की मान्यता) बहती है। आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व के लिए इस नदी की तुलना प्राचीन मिस्र वासियों के नील नदी से की जा सकती है। जबकि गंगा को पवित्र माना जाता है, वहीं इसके पारिस्थितिकी तंत्र से संबंधित कुछ समस्याएं भी हैं। यह रासायनिक कचरे, नाली के पानी और मानव व पशुओं की लाशों के अवशेषों से भरी हुई है और इसमें सीधे नहाना (उदाहरण के लिए बिल्हारज़ियासिस संक्रमण) अथवा इसका जल पीना (फेकल-मौखिक मार्ग से) प्रत्यक्ष रूप से खतरनाक है।
पवित्र यमुना नदी को न्यूज़ वीक द्वारा "काले कीचड़ की बदबूदार पट्टी" कहा गया जिसमें फेकल जीवाणु की संख्या सुरक्षित सीमा से 10,000 गुणा अधिक पायी गयी और ऐसा इस समस्या के समाधान हेतु 15 वर्षीय कार्यक्रम के बाद है।[12] हैजा महामारी से कोई अपरिचित नहीं है।[12]
भारतीय शहर वाहनों और उद्योगों के उत्सर्जन से प्रदूषित हैं। सड़क पर वाहनों के कारण उड़ने वाली धूल भी वायु प्रदूषण में 33% तक का योगदान करती है।[13]बंगलुरु जैसे शहर में लगभग 50% बच्चे अस्थमा से पीड़ित हैं।[14] भारत में 2005 के बाद से वाहनों के लिए भारत स्टेज दो (यूरो II) के उत्सर्जन मानक लागू हैं।[15]
भारत में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण परिवहन की व्यवस्था है। लाखों पुराने डीज़ल इंजन वह डीज़ल जला रहे हैं जिसमें यूरोपीय डीज़ल से 150 से 190 गुणा अधिक गंधक उपस्थित है। बेशक सबसे बड़ी समस्या बड़े शहरों में है जहां इन वाहनों का घनत्व बहुत अधिक है। सकारात्मक पक्ष पर, सरकार इस बड़ी समस्या और लोगों से संबद्ध स्वास्थ्य जोखिमों पर प्रतिक्रिया करते हुए धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से कदम उठा रही है। पहली बार 2001 में यह निर्णय लिया गया कि सम्पूर्ण सार्वजनिक यातायात प्रणाली, ट्रेनों को छोड़ कर, कंप्रेस्ड गैस (सीपीजी) पर चलने लायक बनायी जाएगी. विद्युत् चालित रिक्शा डिज़ाइन किया जा रहा है और सरकार द्वारा इसपर रियायत भी दी जाएगी परन्तु दिल्ली में साइकिल रिक्शा पर प्रतिबन्ध है और इसके कारण वहां यातायात के अन्य माध्यमों पर निर्भरता होगी, मुख्य रूप से इंजन वाले वाहनों पर.
यह भी प्रकट हुआ है कि अत्यधिक प्रदूषण से ताजमहल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था। अदालत द्वारा इस क्षेत्र में सभी प्रकार के वाहनों पर रोक लगाये जाने के पश्चात इस इलाके की सभी औद्योगिक इकाइयों को भी बंद कर दिया गया। बड़े शहरों में वायु प्रदूषण इस कदर बढ़ रहा है कि अब यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा दिए गए मानक से लगभग 2.3 गुना तक हो चुका है।[16] (सविता सेठी द्वारा लिखित दाह संस्कार द्वारा प्रदूषण, पर्यावरण संरक्षण न्यास 2005 द्वारा प्रकाशित)
भारत के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा ध्वनि प्रदूषण पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया।[17] वाहनों के हॉर्न की आवाज शहरों में शोर के डेसिबिल स्तर को अनावश्यक रूप से बढ़ा देती है। राजनैतिक कारणों से तथा मंदिरों व मस्जिदों में लाउडस्पीकर का प्रयोग रिहायशी इलाकों में ध्वनि प्रदूषण के स्तर को बढाता है।
हाल ही में भारत सरकार ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में ध्वनि स्तर के मानदंडों को स्वीकृत किया है।[18] इनकी निगरानी व क्रियान्वन कैसे होगा यह अभी भी सुनिश्चित नहीं है।
भारत में भूमि प्रदूषण कीटनाशकों और उर्वरकों के साथ-साथ क्षरण की वजह से हो रहा है।[19] मार्च 2009 में पंजाब में युरेनियम विषाक्तता का मामला प्रकाश में आया, इसका कारण ताप विद्युत् गृहों द्वारा बनाये गए राख के तालाब थे, इनसे पंजाब के फरीदकोट तथा भटिंडा जिलों में बच्चों में गंभीर जन्मजात विकार पाए गए।[20][21][22][23]
जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण के बीच बातचीत के बारे में अध्ययन और बहस का एक लंबा इतिहास है। एक ब्रिटिश विचारक माल्थस के अनुसार, उदाहरण के लिए, एक बढ़ती हुई जनसंख्या पर्यावरण क्षरण के कारण, और गरीब गुणवत्ता के रूप में के रूप में अच्छी तरह से गरीब की भूमि की खेती के लिए मजबूर कर रहा, कृषि भूमि पर दबाव डाल रही है।यह पर्यावरण क्षरण अंततः, कृषि पैदावार और खाद्य पदार्थों की उपलब्धता को कम कर देता है, जिससे जनसंख्या वृद्धि की दर को कम करने, अकाल और रोगों और मृत्यु का कारण बनता है [24]। यह पर्यावरण की क्षमता पर दबाव डाल सकता है जनसंख्या वृद्धि ने भी हवा, पानी, और ठोस अपशिष्ट प्रदूषण का एक प्रमुख कारण के रूप में देखा जाता है।[25]
1980 के दशक के बाद से, भारत के सर्वोच्च न्यायालय समर्थक सक्रिय रूप से भारत के पर्यावरण के मुद्दों में लगा हुआ है।भारत के उच्चतम न्यायालय की व्याख्या और सीधे पर्यावरण न्यायशास्त्र में नए परिवर्तन शुरू करने में लगा हुआ है। न्यायालय के निर्देशों और निर्णय की एक श्रृंखला के माध्यम से मौजूदा वालों पर अतिरिक्त शक्तियां, पर्यावरण कानूनों को फिर से व्याख्या की है, पर्यावरण की रक्षा के लिए नए संस्थानों और संरचनाओं नए सिद्धांतों बनाया नीचे रखी है, और नवाजा गया है। पर्यावरण के मुद्दों पर जनहित याचिका और न्यायिक सक्रियता भारत के सुप्रीम कोर्ट से परे फैली हुई है। यह अलग-अलग राज्यों के उच्च न्यायालयों में शामिल हैं। [26][27]
खराब वायु गुणवत्ता, जल प्रदूषण और कचरे के प्रदूषण - सभी पारिस्थितिक तंत्र के लिए आवश्यक खाद्य और पर्यावरण की गुणवत्ता प्रभावित करते हैं। भारतीय जंगलों वन वनस्पति की विविधता और वितरण बड़ी है।[28]
भारत, जो कि इंडोमलय पारिस्थितिकी क्षेत्र के अंतर्गत आता है, एक महत्वपूर्ण जैव-विविधता वाला क्षेत्र है; यहां सभी स्तनपाइयों में से 7.6%, सभी पक्षियों में से 12.6%, सभी सरीसृपों में से 6.2% तथा फूलदार पौधों में से 6.0% प्रजातियां पायी जाती है।[29]
हाल के दशकों में, मानव अतिक्रमण के कारण भारतीय वन्यजीवन के समक्ष खतरा पैदा हो गया है; इसकी प्रतिक्रियास्वरूप, 1935 में स्थापित राष्ट्रीय पार्कों व संरक्षित क्षेत्रों की प्रणाली को बड़ी मात्रा में बढाया गया है। 1972 में, भारत ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और प्रोजेक्ट टाइगर को अधिनियमित करके संकटग्रस्त प्राकृतिक आवासों को बचाने का प्रयास आरंभ किया; कई अन्य संघीय संरक्षण 1980 से प्रकाश में आये हैं। 500 से अधिक वन्यजीव सेंचुरियों के अतिरिक्त, भारत में 14 रक्षित जीवमंडल क्षेत्र हैं जिसमें से चार रक्षित जीवमंडल क्षेत्र की अंतर्राष्ट्रीय श्रृंखला के भाग हैं; 25 जलक्षेत्र रामसर कन्वेंशन के अंतर्गत रजिस्ट्रीकृत हैं।
भारत में 2015 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ग्रीनपीस रोकने की कोशिश की। [30]
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