योगवासिष्ठ

योगवाशिष्ठ महारामायण
लेखकवाल्मीकि
भाषासंस्कृत
शृंखलाअद्वैत सिद्धान्त
विषयमोक्ष की प्राप्ति
शैलीआदि धर्म ग्रन्थ
प्रकाशन स्थानभारत

योगवाशिष्ठ महारामायण संस्कृत सहित्य में अद्वैत वेदान्त का विशाल ग्रन्थ है। परम्परानुसार आदिकवि वाल्मीकि योगवाशिष्ठ महारामायण के रचयिता माने जाते हैं किन्तु वास्तविक रचयिता वशिष्ठ हैं तथा महर्षि वाल्मीकि इस सिद्धांत ग्रन्थ के संकलनकर्ता मात्र हैं। योगवाशिष्ठ महारामायण में जगत् की असत्ता और परमात्मसत्ता का विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से प्रतिपादन है। भारद्वाज के मोक्ष की प्राप्ति के लिए की गई प्रश्नोत्तरी का भी वर्णन है। इसके रचनाकाल के विषय में बहुत मतभेद है।

विद्वानों के मत अनुसार आत्मा और परमात्मा, लोक और परलोक, सुख और दुख, जरा और मृत्यु, बंधन और मोक्ष, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, ब्रह्म और जीव, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें ‘योगवाशिष्ठ महारामायण’ में अधिक गंभीर चिंतन तथा व्याख्यान किया गया है।

वसिष्ठ ने अपने शिष्य श्री राम को वेदान्त के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। सिद्धान्तों के स्पष्टीकरण के लिया उन्होंने सुन्दर एवं रोचक कथायें कहीं। योगवाशिष्ठ महारामायण में जगत् की असत्ता और परमात्मसत्ता का दृष्टान्तों से अच्छी तरह समझाया गया है। इस ग्रंथ में भारद्वाज के मोक्ष प्राप्ति के की गई प्रश्नोत्तरी का भी वर्णन किया गया है।योगवासिष्ठ के अनुसार आत्मज्ञान द्वारा ब्रह्मानन्द की प्राप्ति ही मोक्ष है।

इसमें श्लोकों की कुल संख्या २७६८७ है। वाल्मीकि रामायण से लगभग चार हजार अधिक श्लोक होने के कारण इसका 'महारामायण' अभिधान सर्वथा सार्थक है। महाभारत, स्कन्द पुराण एवं पद्म पुराण के बाद यह ग्रंथ चौथा सबसे बड़ा हिन्दू धर्मग्रन्थ है। इसमें राम का जीवनचरित न होकर ऋषि वसिष्ठ द्वारा भगवान राम को दिए गए आध्यात्मिक उपदेश हैं।

विनायक दामोदर सावरकर इस ग्रन्थ से अत्यन्त प्रभावित थे और उन्होने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।[1]

योगविशिष्ठ के फारसी अनुवाद की एक पाण्डुलिपि (१६०२ ई) से लिया गया चित्र जिसमे कार्कटी किरातराज से प्रश्नोत्तर करतीं है

विद्वत्जनों का मत है कि सुख और दुख, जरा और मृत्यु, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, लोक और परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें ‘योगविशिष्ठ’ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। मोक्ष प्राप्त करने का एक ही मार्ग है मोह का नाश। योगवासिष्ठ में जगत की असत्ता और परमात्मसत्ता का विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से प्रतिपादन है। पुरुषार्थ एवं तत्त्व-ज्ञान के निरूपण के साथ-साथ इसमें शास्त्रोक्त सदाचार, त्याग-वैराग्ययुक्त सत्कर्म और आदर्श व्यवहार आदि पर भी सूक्ष्म विवेचन है।[2]

अन्य नाम

यह ग्रन्थ अनेक अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे-

  • आर्ष-रामायण
  • ज्ञानवासिष्ठ[3]
  • महारामायण
  • योगवासिष्ठ महारामायण
  • योगवासिष्ठ रामायण
  • वसिष्ठ-गीता
  • वसिष्ठ रामायण[4]

रचयिता तथा रचनाकाल

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आदिकवि वाल्मीकि परम्परानुसार योगवासिष्ठ के रचयिता माने जाते हैं। परन्तु इसमें बौद्धों के विज्ञानवादी, शून्यवादी, माध्यमिक इत्यादि मतों का तथा काश्मीरी शैव, त्रिक, प्रत्यभिज्ञा तथा स्पन्द इत्यादि तत्वज्ञानो का निर्देश होने के कारण इसके रचयिता उसी (वाल्मीकि) नाम के अन्य कवि माने जाते हैं। अतः इस ग्रन्थ के रचियता के संबंध में मतभेद है। योगवासिष्ठ की श्लोक संख्या 32 हजार है। विद्वानों के मतानुसार महाभारत के समान इसका भी तीन अवस्थाओं में विकास हुआ- (१) वसिष्ठकवच, (२) मोक्षोपाय (अथवा वसिष्ठरामसंवाद) (३) वसिष्ठरामयण (या बृहद्योगवासिष्ठ)। यह तीसरी पूर्णावस्था ई० ११-१२वीं शती में पूर्ण मानी जाती है।

योगविशिष्ठ ग्रन्थ छः प्रकरणों (४५८ सर्गों) में पूर्ण है। योगविशिष्ठ की श्लोक संख्या २९ हजार है।

  1. वैराग्यप्रकरण (३३ सर्ग),
  2. मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण (२० सर्ग),
  3. उत्पत्ति प्रकरण (१२२ सर्ग),
  4. स्थिति प्रकरण (६२ सर्ग),
  5. उपशम प्रकरण (९३ सर्ग), तथा
  6. निर्वाण प्रकरण (पूर्वार्ध १२८ सर्ग और उत्तरार्ध २१६ सर्ग)।

प्रथम वैराग्य प्रकरण में उपनयन संस्कार के बाद राम अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए। अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर राम विरक्त हुए। महाराज दशरथ की सभा में वे कहते हैं कि वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में काल इन सब का नाश करने वाला है। अपनी मनोव्यथा का निवारण करने की प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र से की। दूसरे मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वशिष्ठ ऋषि ने उपदेश दिया है। ३-४ और ५ वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय की उत्पत्ति वार्णित है। इन प्रकारणों में अनेक दृष्टान्तात्मक आख्यान और उपाख्यान निवेदन किये गए हैं। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजन किया गया है। इसमें संसारचक्र में फँसे हुए जीवात्मा को निर्वाण अर्थात निरतिशय आनन्द की प्राप्ति का उपाय प्रतिपादित किया गया है।

योगवासिष्ठ की निम्नलिखित पारम्परिक टीकाएँ आज भी सुरक्षित हैं-

  • वासिष्ठ-रामायण-चन्द्रिका (आद्वयारण्य, नरहरि के पुत्र)
  • तात्पर्य-प्रकाश (आनन्द बोधेन्द्र सरस्वती)
  • गङ्गाधरेन्द्र का भाष्य
  • पद-चन्द्रिका (माधव सरस्वती)

गौड अभिनन्द नामक काश्मीर के पण्डित द्वारा ९वीं शताब्दी में किया हुआ इसका लघुयोगवासिष्ठ नामक संक्षेप 4829 श्लोकों का है। योगवासिष्ठसार नामक दूसरा संक्षेप 225 श्लोकों का है।

अन्य ग्रन्थों पर प्रभाव

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वेदान्त के प्रसिद्ध लेखक विद्यारण्य स्वामी के जीवन्मुक्तिविवेक और पंचदशी, नारायण भट्ट के भक्तिसागर, प्रकाशात्मा की वेदान्तसिधान्तमुक्तावली, और शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका तथा रामगीता इत्यादि ग्रंथों में योगवासिष्ट की उक्तियाँ उद्धृत की गई हैं। केवल जीवन्मुक्ति विवेक में ही योगवासिष्ठ के २५३ श्लोक उद्धृत हैं।

१०८ प्रसिद्ध उपनिषदों में से कुछ उपनिषद ऐसे हैं जो कि सब के सब अथवा जिनके कुछ (प्रधान) भाग - योगवासिष्ठ में से चुने हुए श्लोकों से ही बने हैं, अथवा जिनमें कहीं कहीं पर योगवासिष्ठ के श्लोक भी पाए जाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन काल में हस्तलिखित पुस्तकें होने से योगवासिष्ठ जैसा बड़ा ग्रंथ आसानी से उपलब्ध न होने के कारण, लोगों ने इसमें से अपनी-अपनी रुचि के अनुसार श्लोकों को छाँट कर उनका संग्रह करके उसका नाम उपनिषत् रख लिया । निम्नलिखित उपनिषदों में योगवासिष्ठ के श्लोक पाए जाते हैं-

(१) महा उपनिषद -- केवल पहिला, छोटा सा भूमिकामय अध्याय छोड़कर सारा उपनिषद् योगवासिष्ठ के ही (५१० के लगभग ) श्लोकों से बना है।

(२) अन्नपूर्णा उपनिषद् - सम्पूर्ण ( आरम्भ के १७ श्लोक छोड़ कर )

(३) अक्षि उपनिषद् - सम्पूर्ण

(४) मुक्तिकोपनिषद् - दूसरा अध्याय जो कि मुख्य अध्याय है।

(५) वराह उपनिषद् - चौथा अध्याय

(६) बृहत्संन्यासोपनिषद् - ५० श्लोक

(७) शांडिल्य उपनिषद् - १८ श्लोक

(८) याज्ञवल्क्य उपनिषद् - १० श्लोक

(९) योगकुण्डली उपनिषद् - ३ श्लोक

(१०) पैङ्गल उपनिषद् -१ श्लोक ।

इनके अतिरिक्त दूसरे कुछ ऐसे उपनिषद् भी हैं जिनमें योगवासिष्ठ के श्लोक तो अक्षरशः नहीं पाये जाते लेकिन योगवासिष्ठ के सिद्धान्त अवश्य ही मिलते हैं। अभी तक यह कहना कठिन है कि ये योगवासिष्ठ के पहिले के हैं अथवा पीछे के। वे ये हैं :-

(१) जावाल उपनिषद् - समाधिखण्ड ।

(२) योगशिखोपनिषद् - १।३४-३७, १।५९, ६०, ४ ( समस्त ) ६।५८, ५९-६४

(३) तेजोबिन्दुपनिषद् - समस्त ।

(४) त्रिपुरतापिनी उपनिषद् - उपनिषद् ५, श्लोक १-१६

(५) सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद् - द्वितीयखण्ड, श्लोक १२-१६

(६) मैत्रायण्युपनिषद् - प्रपाठक ४, श्लोक १-११

(७) अमृतबिन्दुपनिषद् - श्लोक १-५

इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि भारतीय दर्शन में योगवासिष्ठ का बहुत ऊँचा स्थान है और भारतीय दर्शन के इतिहास में इसका महत्व उपनिषद और भगवद्गीता से किसी प्रकार कम नहीं वरन् अधिक ही रहा है।[5]

योगवासिष्ठ का सार

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यदि मोक्ष-द्वार के चार प्रहरियों — शान्ति, विचार, सन्तोष और सत्संग से मित्रता कर ली जाये, तो अन्तिम निर्वाण प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आ सकती। यदि इनमें से एक से भी मित्रता हो जाये, तो वह अपने शेष साथियों से स्वयं ही मिला देगा।

यदि तुम्हें आत्मा का ज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान हो जाता है, तो तुम जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाओगे। तुम्हारे सब संशय दूर हो जायेंगे और सारे कर्म नष्ट हो जायेंगे। केवल अपने ही प्रयत्नों से अमर, सर्वानन्दमय ब्रह्म-पद प्राप्त किया जा सकता है।

आत्मा को नष्ट करने वाला केवल मन है। मन का स्वरूप मात्र संकल्प है। मन की यथार्थ प्रकृति वासनाओं में निहित है। मन की क्रियाएँ ही वस्तुतः कर्म नाम से विहित होती हैं। सृष्टि ब्रह्म-शक्ति के माध्यम से मन की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मन शरीर का चिन्तन करता हुआ शरीर-रूप ही बन जाता है, फिर उसमें लिप्त हुआ उसके द्वारा कष्ट पाता है।

मन ही सुख अथवा दुःख की आकृति में बाहरी संसार के रूप में प्रकट होता है। कर्तृत्व-भाव में मन चेतना है। कर्म-रूप में यह सृष्टि है। अपने शत्रु विवेक के द्वारा मन ब्रह्म की निश्चल व शान्त स्थिति प्राप्त कर लेता है । यथार्थ आनन्द वह है, जो शाश्वत ज्ञान के द्वारा मन के वासना रहित हो कर अपना सूक्ष्म रूप खो देने पर उदय होता है। संकल्प और वासनाएँ जो तुम उत्पन्न करते हो, वे तुम्हें जंजाल में फँसा लेती हैं। परब्रह्म का आत्म-प्रकाश ही मन अथवा इस सृष्टि के रूप में प्रकट हो रहा है।

आत्म-विचार से रहित मनुष्यों को यह संसार सत्य प्रतीत होता है, जो संकल्पों की प्रकृति के सिवाय कुछ नहीं है । इस मन का विस्तार ही संकल्प है। अपनी भेद-शक्ति के द्वारा संकल्प इस सृष्टि को उत्पन्न करता है। संकल्पों का नाश ही मोक्ष है।

आत्मा का शत्रु यही अशुद्ध मन है, जो अत्यधिक भ्रम और सांसारिक विचारों समूह से भरा रहता है। इस विरोधी मन पर नियन्त्रण करने के अतिरिक्त पुनर्जन्म-रूपी महासागर से पार ले जाने वाला पृथ्वी पर कोई जहाज (बेड़ा) नहीं है।

पुनर्जन्मों के कोमल तनों सहित, इस दुःखदायी अहंकार के मूल अंकुर 'तेरा मेरा' की लम्बी शाखाओं सहित सर्वत्र फैल जाते हैं और मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था एवं क्लेश-रूपी अपक्व फल देते हैं। ज्ञानाग्नि से यह वृक्ष समूल नष्ट किया जा सकता है।

इन्द्रियों के माध्यम से दिखायी देने वाले समस्त विभिन्न प्रकार के दृश्य पदार्थ मिथ्या हैं; जो सत्य है, वह परब्रह्म अथवा परम आत्मा है।

यदि मोहित करने वाले सारे पदार्थ आँख की किरकिरी (पीड़ाकारक) बन जायें और पूर्व-भावना के विपरीत प्रतीत होने लगें, तो मनोनाश हो जाये । तुम्हारी सारी सम्पत्ति व्यर्थ है । सारी धन-दौलत तुम्हें खतरे में डालने वाली है। वासनाओं से मुक्ति तुम्हें शाश्वत, आनन्दपूर्ण धाम पर ले जायेगी।

वासनाओं और संकल्पों को नष्ट करो। अहंकार को मार डालो। इस मन का नाश कर दो। अपने-आपको 'साधन - चतुष्टय' से सम्पन्न करो। शुद्ध, अमर, सर्वव्यापक आत्मा का ध्यान करो। आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके अमरता, अनन्त शान्ति, शाश्वत सुख, स्वतन्त्रता और पूर्णता प्राप्त करो ।

सन्दर्भ

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  1. Savarkar,Vinayak D. "My Transportation for Life" pp.151 http://www.savarkarsmarak.com/activityimages/My%20Transportation%20to%20Life.pdf Archived 2018-09-29 at the वेबैक मशीन
  2. "गीताप्रेस डाट काम, योगवासिष्ठ". मूल से 23 जून 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 जून 2010.
  3. Leslie 2003 Archived 2020-06-17 at the वेबैक मशीन, pp. 104
  4. Encyclopaedia of Indian Literature, Volume 5. pp. 4638, By various, Published by Sahitya Akademi, 1992, ISBN 81-260-1221-8, ISBN 978-81-260-1221-3
  5. योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त

इन्हें भी देखें

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बाहरी कडियाँ

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