रघुवंशम् कालिदास द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न २९ राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विशद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।
आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परन्तु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति 'रघुवंश' में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरान्त उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।
रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है।[1] किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई - 1450 ई) द्वारा रचित 'संजीवनी' है।
'रघुवंश' की कथा को कालिदास ने १९ सर्गों में बाँटा है जिनमें राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि तथा बाद के 29 रघुवंशी राजाओं की कथा गूँथी गई है। इस वंश का पतन उसके अन्तिम राजा अग्निवर्ण के विलासिता की अति के कारण होता है और यहीं इस कृति की इति भी होती है।
19सर्गों में वर्णित रघुवंशी राजाओं की नामावली क्रमानुसार निम्नलिखित है- यथा-
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रघुवंश काव्य में कालिदास ने रघुवंशी राजाओं को निमित्त बनाकर उदारचरित पुरुषों का स्वभाव पाठकों के सम्मुख रखा है। इस कथा के माध्यम से कवि ने राजा के चरित्र, आदर्श तथा राजधर्म जैसे विषयों का बडा़ सुन्दर वर्णन किया है।[2][3] भारत के इतिहास में सूर्यवंश के इस अध्याय का वह अंश भी है जिसमें एक ओर यह संदेश है कि राजधर्म का निर्वाह करनेवाले राजा की कीर्ति और यश देश भर में फैलती है, तो दूसरी ओर चरित्रहीन राजा के कारण अपयश व वंश-पतन निश्चित है, भले ही वह किसी भी वंश का वंशज ही क्यों न रहा हो!
इस महाकाव्य के आरम्भ में महाकवि ने रघुकुल के राजाओं का महत्त्व एवं उनकी योग्यता का वर्णन करने के बहाने प्राणिमात्र के लिए कितने ही प्रकार के रमणीय उपदेश दिये हैं। रघुवंशी राजाओं का संक्षेप में वर्णन जानना हो तो रघुवंश के केवल एक श्लोक में उसकी परिणति इस प्रकार है-
समालोचकों ने कालिदास का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'रघुवंश' को माना है। आदि से अन्त तक इसमें निपुण कवि का विलक्षण कौशल व्यक्त होता है। दिलीप और सुदक्षिणा के तपोमय जीवन से प्रारम्भ इस काव्य में क्रमशः रघुवंशी राजाओं की दान्यता, वीरता, त्याग और तप की एक के बाद एक कहानी उद्घाटित होती है और काव्य की समाप्ति कामुक अग्निवर्ण की विलासिता और उनके अवसान से होती है। दिलीप और सुदक्षिणा का तप:पूत आचरण, वरतन्तु के शिष्य कौत्स और रघु का संवाद, इन्दुमती स्वयंवर, अज का विलाप, राम और सीता की विमानयात्रा, निर्वासित सीता की तेजस्विता, संगमवर्णन, अयोध्या नगरी की शून्यता आदि का चित्र एक के बाद एक उभरता जाता है और पाठक विमुग्ध बना हुआ मनोयोग से उनको देखता जाता है। अनेक कथानकों का एकत्रीकरण होने पर भी इस महाकाव्य में कवि ने उनका एक दूसरे से एक प्रकार समन्वय कर दिया है जिससे उनमें स्वाभाविक प्रवाह का संचार हो गया है। 'रघुवंश' के अनेक नृपतियों की इस ज्योतित नक्षत्रमाला में कवि ने आदिकवि वाल्मीकि के महिमाशाली राम को तेजस्विता और गरिमा प्रदान की है। वर्णनों की सजीवता, आगत प्रसर्गों की स्वाभाविकता, शैली का माधुर्य तथा भाव और भाषा की दृष्टि से 'रघुवंश' संस्कृतमहाकाव्यों में अनुपम है।
रघुवंश महाकाव्य की शैली क्लिष्ट अथवा कृत्रिम नहीं, सरल और प्रसादगुणमयी है। अलंकारों का सुरुचिपूर्ण प्रयोग स्वाभाविक एवं सहज सुन्दर है। चुने हुए कुछ शब्दों में वर्ण्य विषय की सुन्दर झाँकी दिखाने के साथ कवि ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में इष्ट वस्तु के सौंदर्य की पराकाष्ठा दिखलाने की अद्भुत युक्ति का आश्रय लिया है। गंगा और यमुना के संगम की, उनके मिश्रित जल के प्रवाह की छटा का वर्णन करते समय एक के बाद एक उपमाओं की शृंखला उपस्थित करते हुए अन्त में कवि ने शिव के शरीर के साथ-साथ उसकी शोभा की उपमा दी है और इस प्रकार सौन्दर्य को सीमा से निकालकर अनन्त के हाथों सौंप दिया-
कालिदास मुख्यतः कोमल और रमणीय भावों के अभिव्यंजक कवि हैं। इसीलिए प्रकृति का कोमल, मनोरम और मधुर पक्ष उनकी इस कृति में भी अंकित हुआ है।
रघुवंशम् का आरम्भ कवि ने पार्वती और शिव की वन्दना से किया है-
रघुवंश काव्य के आरम्भ में महाकवि ने रघुकुल के राजाओं का महत्त्व एवं उनकी योग्यता का वर्णन करने के बहाने प्राणिमात्र के लिए कितने ही प्रकार के रमणीय उपदेश दिये हैं। कवि ने रघुवंशी राजाओं को निमित्त बनाकर उदारचरित पुरुषों का स्वभाव पाठकों के सम्मुख रखा है, जो निम्नलिखित प्रकार से है-
'रघुवंश' की कथा दिलीप तृतीय(खटवांग) और उनकी पत्नी सुदक्षिणा के ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश से प्रारम्भ होती है। राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परन्तु कमी है तो सन्तान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। रोज की तरह नंदिनी जंगल में विचर रही है और दिलीप भी उसकी रखवाली के लिए साथ चलते हैं। इतने में एक सिंह नंदिनी को अपना भोजन बनाना चाहता है। दिलीप अपने आप को अर्पित कर सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है।
रघु के पराक्रम का वर्णन कालिदास ने विस्तारपूर्वक अपने ग्रन्थ ‘रघुवंश’ में किया है। अश्वमेध यज्ञ के घोडे़ को चुराने पर उन्होंने इन्द्र से युद्ध किया और उसे छुडा़कर लाया था। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ सम्पन्न करके अपना सारा धन दान कर दिया था। जब उनके पास कुछ भी धन नहीं रहा, तो एक दिन ऋषिपुत्र कौत्स ने आकर उनसे १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं मांगी ताकि वे अपनी गुरु दक्षिणा दे सकें। रघु ने इस ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए कुबेर पर चढा़ई करने का मन बनाया। यह सूचना पाकर कुबेर घबराया और खुद ही उनका कोष भर दिया। रघु ने सारा कोष ब्राह्मण के हवाले कर दिया; परन्तु उस ब्राह्मणपुत्र ने केवल १४ करोड़ मुद्राएं ही स्वीकारी।
रघु के पुत्र अज भी बडे़ पराक्रमी हुए। उन्होंने विदर्भ की राजकुमारी इन्दुमति के स्वयंवर में जाकर उन्हें अपनी पत्नी बनाया। कालिदास ने इस स्वयंवर का सुंदर वर्णन 'रघुवंश' में किया है। रघु ने अज का राज-कौशल देखकर अपना सिंहासन उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ ले लिया। रघु की तरह अज भी एक कुशल राजा बने। वे अपनी पत्नी इन्दुमति से बहुत प्रेम करते थे। एक बार नारदजी प्रसन्नचित्त अपनी वीणा लिए आकाश में विचर रहे थे। संयोगवश उनकी विणा का एक फूल टूटा और बगीचे में सैर कर रही रानी इंदुमति के सिर पर गिरा जिससे उनकी मृत्यु हो गई। राजा अज इंदुमति के वियोग में विह्वल हो गए और अन्त में जल-समाधि ले ली।
कालिदास ने 'रघुवंश' के आठ सर्गों में दिलीप, रघु और अज की जीवनी पर प्रकाश डाला। बाद में उन्होंने दशरथ, राम, लव और कुश की कथा का वर्णन आठ सर्गों में किया। जब राम लंका से लौट रहे थे, तब पुष्पक विमान में बैठी सीता को दण्डकारण्य तथा पंचवटी के उन स्थानों को दिखा रहे थे जहाँ उन्होंने सीता की खोज की थी। इसका बडा़ ही सुन्दर एवं मार्मिक दृष्टान्त कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में किया है। इस सर्ग से पता चलता है कि कालिदास की भौगोलिक जानकारी कितनी गहन थी।
अयोध्या की पूर्व ख्याति और वर्तमान स्थिति का वर्णन कुश के स्वप्न के माध्यम से कवि ने बडी़ कुशलता से सोलहवें सर्ग में किया है।
रघुवंश के अन्तिम सर्ग में रघुवंश के अन्तिम राजा अग्निवर्ण के भोग-विलास का चित्रण किया गया है। अग्निवर्ण के दम्भ की पराकाष्ठा यह है कि प्रजा जब राजा के दर्शन के लिए आती है तो अग्निवर्ण अपने पैर खिड़की के बाहर पसार देता है। जनता के अनादर का परिणाम राज्य का पतन होता है। अग्निवर्ण पतित होकर क्षयग्रस्त हो गया था और उसी से उसका प्राणान्त भी हुआ। इसके लिए कालिदास का स्पष्टीकरण है कि अग्निवर्ण के पिता सुदर्शन अपने राज्य की इस प्रकार सुन्दर व्यवस्था कर गए थे कि अग्निवर्ण को करने के लिए कुछ रहा ही नहीं तो उसमें कामनाओं और वासनाओं की प्रबलता होने लगी और वह पतन के गर्त में गिरता चला गया।
अग्निवर्ण के मरणोपरान्त उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।
कालिदास जानते थे कि राम की कथा का उत्कर्ष वाल्मिकि के रामायण से हो गया था और उसके बाद जो भी लिखा जाएगा उसका जूठन ही होगा। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में राम को नायक बनाने की बजाय रघुवंश को ही कथानायक के रूप में प्रस्तुत किया; जिसमें सभी पात्रों की अपनी-अपनी भूमिका रही- अपने-अपने चरित्र के आधार पर....कुछ उत्कर्ष तो कुछ घटिया। रघुवंश का नाम उनके पराक्रमी और आदर्श राजाओं के नाम से ही चलता रहेगा।
इस महाकाव्य में २१ प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है:
'रघुवंश' नाम पड़ने के पहले इस वंश का नाम 'इक्ष्वाकु वंश' था। वाल्मीकि रामायण में राम को 'इक्ष्वाकुवंशप्रभवो' (इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न) कहा गया है।
(1) मनु (2) इक्ष्वाकु (3) शशाद(शशांक ) (4) ककुत्स्थ (5) अनेनस (6) पृथु (7) विश्वगाश्व आर्द्र (8) युवनाश्च (9) श्रावस्त (10) वृहदश्व (11) कुवलयाश्व (12) दृढ़ाश्व (13) प्रमोद (14) हर्यश्रव (15) निकुम्भ (16) संहताश्व |
(17) कृशाश्व (18) प्रसेनजित (19) युवनाश्च (20) मान्धातु (21) पुरुकुत्स (22) त्रसदस्यु (23) सम्भूत (24) अनरण्य (25) पृषदश्व (26) हर्यश्रव (27) वसुमनस (28) तृधन्वन (29) त्रैयारुण (30) त्रिशंकु(सत्यव्रत ) (31) हरिश्चन्द्र (32) रोहित |
(33) हरित (34) चंचु (35) विजय (36) रुरुक (37) वृक (38) बाहु (39) सगर (40) असमज्जस (41) अंशुमन (42) दिलीप (43) भगीरथ (44) श्रुत (45) श्रुत (46) नाभाग (47) अम्बरीष (48) सिंधुदीप |
(49) अयतायुस (50) ऋतुपर्ण (51) सर्वकाम (52) सुदास (53) कल्माषपाद (54) अश्मक (55) मूलक (56) शतरथ (57) वृद्धशर्मन (58) विश्वसह (59) दिलीप (द्वितीय) (60)दिलीप तृतीय(खटवांग) "खटीक" (61) रघु(दीर्घबाहु) , नाभाग(महाप्राख्यत ) (62) अज (63) दशरथ (64) रामचन्द्र |