भारत विश्व कि उन प्रथम सभ्यताओं में से है जहाँ सिक्कों का प्रचलन लगभग छठी सदी ईसापूर्व में शुरू हुआ। रुपए शब्द का अर्थ शब्द रूपा से जोड़ा जा सकता है जिसका अर्थ होता है चाँदी। संस्कृत में रूप्यकम् का अर्थ है चाँदी का सिक्का। यह सिक्का ब्रिटिश भारत के शासन काल में भी उपयोग मे लाया जाता रहा।
बीसवीं सदी में फ़ारस की खाड़ी के देशों (खाड़ी देश) तथा अरब मुल्कों में भारतीय रुपया मुद्रा के तौर पर प्रचलित था। सोने की तस्करी को रोकने तथा भारतीय मुद्रा के बाहर में प्रयोग को रोकने के लिए मई १९५९ में भारतीय रिज़र्व बैंक ने गल्फ़ रुपी (खाड़ी रुपया) का विपणन किया। साठ के दशक में कुवैत तथा बहरीन ने अपनी स्वतंत्रता के बाद अपनी ख़ुद की मुद्रा प्रयोग में लानी शुरु की तथा १९६६ में भारतीय रुपये में हुए अवमूल्यन से बचने के लिए क़तर ने भी अपनी मुद्रा शुरु कर दी।[1]
ऐतिहासिक तौर पर रुपया चाँदी पर आधारित मुद्रा थी। १९वीं शताब्दी में इसके विपरीत परिणाम हुए, जब यूरोप और अमेरिका में भारी पैमाने मे चाँदी की खोज हुई। उस समय की मजबूत अर्थव्यवस्थाएँ सोने पर आधारित थीं। चाँदी की खोज से चाँदी और सोने के सापेक्षित मूल्यों में भारी अंतर आया। अचानक ही भारत की मुद्रा विश्व बाजार में उतना नहीं खरीद सकती थी जितना पहले। इसे "रुपए की गिरावट" के नाम से भी जाना जाता है।
शुरूआत में एक रूपए को 16 आनों, 64 पैसों या 192 पाई में बाँटा गया। यानी 1 आना 4 पैसों या 12 पाई मे विभाजित था। दशमलव प्रणाली के अनुसार विभाजन हुआ 1869 मे श्रीलंका मे, 1957 मे भारत मे और 1961 मे पाकिस्तान मे।
रुपयो के कागज के नोटो को सबसे पहले जारी करने वालो मे से थे बैंक ऑफ हिन्दुस्तान (1770-1832), द जनरल बैंक ऑफ बंगाल एंड बिहार (1773-75, वारेन हास्टिग्स द्वारा स्थापित) और द बंगाल बैंक(1784-91)।
शुरूआत मे बैंक ऑफ बंगाल द्वारा जारी किए गए कागज के नोटो पे केवल एक तरफ ही छपा होता था। इसमे सोने की एक मोहर बनी थी और यह १००, २५०, ५०० आदि वर्गो मे थे। बाद के नोट मे एक बेलबूटा बना था जो एक महिला आकृति, व्यापार का मानवीकरण दर्शाता था। यह नोट दोनो ओर छपे होते थे, तीन लिपिओं उर्दू, बंगाली और देवनागरी मे यह छपे होते थे, जिसमे पीछे की तरफ बैंक की छाप होती थी। १८०० सदी के अंत तक नोटों के मूलभाव ब्रितानी हो गए और जाली बनने से रोकने के लिए उनमे अन्य कई लक्षण जोडे गए।