अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है। इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे। कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।[1] डाॅ. राजबली पाण्डेय और अन्य कई इतिहासविद अमरकोष और उसके रचयिता अमरसिंह को प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के काल का मानते हैं। [2]
इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
अमरकोश श्लोकरूप में रचित है। इसमें तीन काण्ड (अध्याय) हैं। स्वर्गादिकाण्डं, भूवर्गादिकाण्डं और सामान्यादिकाण्डम्। प्रत्येक काण्ड में अनेक वर्ग हैं। विषयानुगुणं शब्दाः अत्र वर्गीकृताः सन्ति। शब्दों के साथ-साथ इसमें लिंगनिर्देश भी किया हुआ है।
प्रथमकाण्ड/स्वर्गादिकाण्डम्[संपादित करें]स्वर्गादिकाण्ड में ग्यारह वर्ग हैं :
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द्वितीयकाण्ड/भूवर्गादिकाण्डम्[संपादित करें]इस काण्ड में दस वर्ग हैं:
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तृतीयकाण्डम्/सामान्यादिकाण्डम्[संपादित करें]इस काण्ड में छः वर्ग हैं:
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अन्य संस्कृत कोशों की भाँति अमरकोश भी छंदोबद्ध रचना है। इसका कारण यह है कि भारत के प्राचीन पण्डित "पुस्तकस्था' विद्या को कम महत्त्व देते थे। उनके लिए कोश का उचित उपयोग वही विद्वान् कर पाता है जिसे वह कणृठस्थ हो। श्लोक शीघ्र कण्ठस्थ हो जाते हैं। इसलिए संस्कृत के सभी मध्यकालीन कोश पद्य में हैं। इतालीय पडित पावोलीनी ने सत्तर वर्ष पहले यह सिद्ध किया था कि संस्कृत के ये कोश कवियों के लिए महत्त्वपूर्ण तथा काम में कम आनेवाले शब्दों के संग्रह हैं। अमरकोश ऐसा ही एक कोश है।
अमरकोश का वास्तविक नाम अमरसिंह के अनुसार नामलिगानुशासन है। नाम का अर्थ यहाँ संज्ञा शब्द है। अमरकोश में संज्ञा और उसके लिंगभेद का अनुशासन या शिक्षा है। अव्यय भी दिए गए हैं, किन्तु धातु नहीं हैं। धातुओं के कोश भिन्न होते थे (काव्यप्रकाश, काव्यानुशासन आदि)। हलायुध ने अपना कोश लिखने का प्रयोजन कविकंठविभूषणार्थम् बताया है। धनंजय ने अपने कोश के विषय में लिखा है - मैं इसे कवियों के लाभ के लिए लिख रहा हूँ (कवीनां हितकाम्यया)। अमरसिंह इस विषय पर मौन हैं, किन्तु उनका उद्देश्य भी यही रहा होगा।
अमरकोश में साधारण संस्कृत शब्दों के साथ-साथ असाधारण नामों की भरमार है। आरम्भ ही देखिए- देवताओं के नामों में लेखा शब्द का प्रयोग अमरसिंह ने कहाँ देखा, पता नहीं। ऐसे भारी भरकम और नाममात्र के लिए प्रयोग में आए शब्द इस कोश में संगृहीत हैं, जैसे-देवद्रयंग या विश्द्रयंग (3,34)। कठिन, दुलर्भ और विचित्र शब्द ढूंढ़-ढूंढ़कर रखना कोशकारों का एक कर्तव्य माना जाता था। नमस्या (नमाज या प्रार्थना) ऋग्वेद का शब्द है (2,7,34)। द्विवचन में नासत्या, ऐसा ही शब्द है। मध्यकाल के इन कोशों में, उस समय प्राकृत शब्द भी संस्कृत समझकर रख दिए गए हैं। मध्यकाल के इन कोशों में, उस समय प्राकृत शब्दों के अत्यधिक प्रयोग के कारण, कई प्राकृत शब्द संस्कृत माने गए हैं; जैसे-छुरिक, ढक्का, गर्गरी (प्राकृत गग्गरी), डुलि, आदि। बौद्ध-विकृत-संस्कृत का प्रभाव भी स्पष्ट है, जैसे-बुद्ध का एक नामपर्याय अर्कबन्धु। बौद्ध-विकृत-संस्कृत में बताया गया है कि अर्कबन्धु नाम भी कोश में दे दिया। बुद्ध के 'सुगत' आदि अन्य नामपर्याय ऐसे ही हैं।
अमरकोष पर आज तक ४० से भी अधिक टीकाओं का प्रणयन किया जा चुका है। उनमें से कुछ प्रमुख टीकाएँ निम्नलिखित हैं –
रामाश्रमी टीका में, अमरकोश में परिगणित शब्दों की व्युत्पत्ति और निरुक्ति दी गयी है। अभी तक इस टीका का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है। यह अमरकोष की एकमात्र ऐसी टीका है, जिसमें शब्दों की व्याकरणिक व्युत्पत्तियों के साथ–साथ निरुक्ति भी दी गयी है। यास्क कृत निरुक्त में कहा गया है –
इसी सिद्धान्त का पालन करते हुए भानुजि दीक्षित् ने अमरकोष में परिगणित शब्दों का निर्वचन किया है। वे भी सभी शब्दों को धातुज मानते हुए उनका निर्वचन करते हैं।
पीठिकाश्लोकाःचरण्ट इन वाचस्पत्यम्
स्वर्गः
बुद्धिः
भूमिः
नमस्कृतम्
पूजितम्
ककारान्ताः