आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री | |
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जन्म |
1897 भारत |
मौत |
1973 |
पेशा |
वैदिक विद्वान शिक्षाविद लेखक |
पुरस्कार | पद्मभूषण |
आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री (३० सितम्बर, १८९७ - ०१ अगस्त, १९७३) एक भारतीय वैदिक विद्वान, लेखक, शिक्षाविद और दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय के प्राचार्य थे, जो डी ए वी कॉलेज ट्रस्ट और प्रबन्धन सोसायटी के प्रबन्धन के तहत एक संस्थान था। १९६८ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।
आचार्य विश्वबन्धु जी को उनके माता पिता का दिया हुआ नाम चमन लाल था। बालक चमन लाल का जन्म 30 सितम्बर, 1897 में सरगोधा जिला के भेरा नामक गांव में हुआ। आजकल यह स्थान पाकिस्तान में है। इनके पूज्य पिता जी का नाम राम लुभाया (दिलशाद) था जो कश्मीर राज्य के पुलिस विभाग में नौकरी करते थे। बालक चमनलाल माता के पास ही रहते थे। इनकी माता धार्मिक वृत्ति और सरल स्वभाव की थीं। माता का प्रभाव इन पर भी पड़ा, इनकी प्रवृत्ति भी धार्मिक बनती गई। इनका बाल्यावस्था में ही भेरा में चल रहे आर्यसमाज से सम्पर्क हो गया, अतः इन पर आर्यसमाज का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। भेरा में एक कृपाराम ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल तथा गवर्नमेण्ट हाई स्कूल भी था। बालक चमनलाल ने गवर्नमेण्ट हाई स्कूल की अपेक्षा आर्यसमाज के स्कूल में पढ़ना ही उचित समझा। बालक चमनलाल अवस्था में छोटे पर बुद्धि में सबसे प्रखर थे। उसकी कुशाग्रबुद्धि की प्रायः सभी प्रशंसा करते, इसका फल यह हुआ कि उसका प्रभाव अपने सहपाठियों पर अच्छी तरह पड़ने लगा और वह छोटी सी अवस्था में ही छात्रों की श्रद्धा के पात्र बन गये। धीरे-धीरे उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के साहित्य को पढ़ लिया, और अपने साथियों को भी पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। समय मिलने पर अपने साथियों को साथ लेकर कहीं नगर से बाहर जाकर बैठते और चर्चा भी करते। धीरे धीरे चमनलाल का प्रभाव दूसरे स्कूल के छात्रों पर भी पड़ने लगा। उनके मार्ग दर्शन में गवर्नमेण्ट हाई स्कूल और आर्य समाजीय स्कूल के छात्रों ने मिल कर 'धर्म रक्षा' नामक एक सभा भी चलाई।
बालक चमनलाल पूरे साल आर्यसमाज मन्दिर में सांयकाल के समय सत्यार्थप्रकाश की कथा सुनाया करते थे। अवस्था में छोटे, ज्ञान में बड़े चमनलाल के द्वारा जब कथा की जाती तो छोटे बड़े तथा हाई स्कूल के छात्र भी आकर कथा सुना करते थे। अभी वे पढ़ ही रहे थे कि उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। पिताजी भेरा से दूर कश्मीर में नौकरी करते थे। इतना होने पर भी बालक चमनलाल विचलित नहीं हुए और अपने परिश्रम से 1913 में मैट्रिक परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण की। उस समय अच्छे छात्रों को छात्रवृत्ति मिला करती थी। बालक चमन लाल को भी छात्रवृत्ति मिली और वे पढ़ने के लिए लाहौर चले गए। उस समय लाहौर सभी तरह से अच्छा माना जाता था। वह शिक्षा तथा आर्यसमाज का केन्द्र था। अब बालक चमनलाल युवक हो गये और उन्होंने वहां डी.ए.वी. काॅलेज में इण्टर कक्षा में प्रवेश लिया, संस्कृत, भौतिकी तथा रसायन विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाई के लिए चुना। इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने बी.ए. में विज्ञान विषयों को छोड़कर आर्ट्स ले लिया। साथ में संस्कृत विषय भी रखा।
युवक चमन लाल अपनी दिनचर्या के अनुसार कार्य करते, काॅलेज जाते, अच्छे छात्रों के साथ सम्पर्क बनाये रखते, नित्यप्रति आर्य समाज मन्दिर भी जाया करते। इसी समय महात्मा हंसराज जी भी शिक्षा विभाग से मुक्त हुए थे। महात्मा हंसराज जी डी.ए.वी.कालेज के प्रधानाचार्य थे। पर जब तक युवक चमन लाल जी बी.ए. में पहुंचे, तब तक महात्मा हंसराज काॅलेज के प्रिंसिपल पद से मुक्त हो कर डी.ए.वी. काॅलेज प्रबन्धक सभा के प्रधान बन गए थे। अब महात्मा हंसराज जी के पास प्रशासन का उतना भार नहीं था जितना प्रिंसिपल के समय, अब वे छात्रों से मिलते जुलते, उनके साथ आर्य समाज की बातें करते, नियमित रूप से अनारकली के आर्य समाज और छात्रावास में छात्रों द्वारा संचालित आर्य युवक समाज के साप्ताहिक सत्संगों में जाया करते। वे काॅलेज के अच्छे छात्रों की खोज में रहते, जो छात्र उन्हें वैदिक, धार्मिक तथा सामाजिक तौर पर अच्छा लगता उसमें और भी आर्य समाज की भावना भरते। ऐसी स्थिति में युवक चमनलाल भी उनकी दृष्टि से कैसे ओझल रह सकते थे। साथ ही स्वयं युवक चमनलाल भी उनके प्रभाव से प्रभावित हुए बिना कैसे रहते।
युवक चमनलाल से न केवल जूनियर विद्यार्थी ही प्रभावित होते थे अपितु उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, बुद्धिकौशल, ज्ञानराशि तथा आर्य समाज के प्रति गहरी पैठ के कारण सीनियर विद्यार्थी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे। उनके प्रति उनसे बड़े विद्यार्थियों का भी बड़ा आदर भाव था। उनको छात्रावास में भी बड़े आदर से देखा जाता था। आचार्य जी ने इण्टर परीक्षा उत्तीर्ण करके बी.ए.में प्रवेश लिया। बी.ए.में भी आपने छात्रवृत्ति प्राप्त की अच्छे अंक ले कर बी.ए.परीक्षा उत्तीर्ण की। एम.ए.में आपने अपना प्रिय विषय संस्कृत ही चुना। उस समय पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) के ओरियण्टल काॅलेज के प्रिंसिपल डा.ए.सी. वुल्नर थे। वे आचार्य विश्वबन्धु जी के वैदुष्य तथा रुचिपूर्ण अध्ययन से अच्छे प्रभावित थे। विश्वबन्धु जीअपनी प्रतिभा के कारण डा. वुल्नर के अति प्रिय छात्र हो गए। आचार्य विश्वबन्धु ने 1919 में एम.ए. संस्कृत परीक्षा सबसे अधिक अंक लेकर उत्तीर्ण की। इतने अंक प्राप्त किए कि पिछले सभी रिकार्ड तोड़ दिए। डा. वुल्नर आचार्य जी से इतने प्रसन्न तथा प्रभावित हुए कि उन्होंने स्टेट स्कालरशिप (सरकारी छात्रवृत्ति) के लिए विश्वबन्धु जी के नाम की संस्तुति की। आचार्य जी को वह विशिष्ट छात्रवृत्ति दे दी गई। वह छात्रवृत्ति तीन सौ रुपये मासिक की थी। यह तीन सौ रुपयों की छात्रवृत्ति उस समय के छात्रों के लिए एक विशिष्ट सम्मान था। चार साल तक विलायत में यह छात्रवृत्ति मिलनी थी। विश्वबन्धु जी को इस प्रकार की विशिष्ट छात्रवृत्ति के प्राप्त होने से कोई प्रसन्नता नहीं हुई और उन्होंने एक क्षण में ही ऐसी छात्रवृत्ति को लेने से नम्रतापूर्वक मना कर दिया। उन्होंने डा. वुल्नर का बडे़ विनम्र भाव से धन्यवाद करते हुए कहा कि मैं अपने जीवन के गुरु महात्मा हंसराज जी की अनुमति प्राप्त कर ही इस आदरमयी छात्रवृत्ति को ग्रहण कर सकता हूं। महात्मा हंसराज जी आचार्य विश्वबन्धु का भाव समझ गए और उन्होंने भी उनके द्वारा छात्रवृत्ति ग्रहण न करने की भावना की सराहना की।
आप विलायत तो नहीं गए पर उन्होंने 1920 में पंजाब विश्वविद्यालय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। उस परीक्षा में भी आप सर्वप्रथम रहे। उस समय महात्मा हंसराज जी डी.ए.वी. काॅलेज के लिए एक इस प्रकार के प्राध्यापकों का मण्डल तैयार कर रहे थे जो साधारण जीवन निर्वाह पर आजीवन सदस्य बन जाये। चुने हुए इन युवकों को 25 वर्ष तक काॅलेज में पढ़ाने का व्रत लेना पड़ता था। चमनलाल से विश्वबन्धु-महात्मा हंसराज जी ने विश्वबन्धु जी को भी आजीवन सदस्य के रूप में चुन लिया। आचार्य विश्वबन्धु ने डी.ए.वी. काॅलेज की आजीवन सदस्यता स्वीकार करने से पूर्व महात्मा जी के सामने विनम्र भाव से कहा था कि मैं काॅलेज की आजीवन सदस्यता काॅलेज में पढ़ाने के लिए नहीं अपितु पंजाब विश्वविद्यालय से चलाये जाने वाली शास्त्री आदि श्रेणियों के स्थान पर अपनी ही परीक्षाओं को प्रारम्भ करने के लिए ले रहा हूं। युवक चमन लाल का यह एक साहसिक कदम था। इससे पहले शास्त्री आदि की संस्कृत श्रेणियां डी.ए.वी. काॅलेज के कुछ दूरी पर चलती थीं। युवक चमन लाल ने उसी स्थान पर डी.ए.वी. काॅलेज प्रबन्धकर्त्री सभा के तत्त्वावधान में विशारद, शास्त्री के स्थान पर स्वतन्त्र रूप से विद्यावाचस्पति इत्यादि उपाधि दिए जाने वाली श्रेणियों को चलाने की प्रतिज्ञा की, इस प्रतिज्ञा के साथ ही भीष्म पितामह के समान आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भी प्रतिज्ञा की। सभी को यह बहुत अच्छा लगा और युवक चमन लाल की बात मान ली गई। यह बात 1921 वैसाखी के शुभ दिन की है। उसी दिन से चमन लाल ने अपना नाम 'विश्वबन्धु' रख लिया। उसी दिन से नवीन परिपाटी के आधार पर श्रेणियां चलाने के लिए ‘दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय’ नामक संस्था को प्रारम्भ कर दिया गया। विश्वबन्धु उसके प्रथम आचार्य बने।