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आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। प्राचीन भारत की शिक्षा में इसका बहुत बड़ा प्रभाव था।
'आत्मबोध', आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक लघु ग्रन्थ का नाम भी है। वेदान्त के मूल ग्रन्थों का अध्ययन आरम्भ करने की पूर्वतैयारी के रूप में शंकराचार्य ने कुछ ‘प्रकरण-ग्रन्थ’ भी लिखे हैं। उन्हीं में ‘आत्मबोध’ नाम का यह छोटा-सा, पर अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी है। वेदान्त के सभी जिज्ञासुओं तथा साधकों के लिये यह अति उपयोगी है। इसमें मात्र अड़सठ श्लोकों के माध्यम से आत्मतत्त्व का निरूपण किया गया है। इसमें श्रीशंकराचार्य ने समझाया है कि इस आत्मा का बोध होने के लिये क्या-क्या साधना आवश्यक है और आत्मबोध हो जाने से साधक को क्या उपलब्धि होती है।
इसका प्रथम श्लोक यह है-
श्लोकार्थ - तपों के अभ्यास द्वारा जिन लोगों के पाप क्षीण हो गये है, जिनके चित्त शान्त और राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हो गये है, ऐसे मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा रखनेवाले साधकों के लिए ‘आत्मबोध' नामक इस ग्रन्थ की रचना की जा रही है।