यह लेख इस सिलसिले का हिस्सा |
इस्लामी धर्मशास्त्र (फ़िक़्ह ) |
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इस्लाम में इद्दत या इद्दाह ( अरबी: العدة; प्रतीक्षाकाल) किसी महिला के तलाक़ या उसके पति की मृत्यु के बाद की वह अवधि है, जिसका पालन करना उस महिला के लिए अनिवार्य है, इस अवधि के दौरान वह किसी अन्य पुरुष से शादी नहीं कर सकती है।[1][2] इसका मुख्य उद्देश्य तलाक या पूर्व पति की मृत्यु के बाद पैदा हुए बच्चे के पितृत्व के बारे में किसी भी प्रकार के संदेह को दूर करना है।
इद्दत की लंबाई परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। आम तौर पर, पति द्वारा तलाक़ दी गयी महिला के लिए यह अवधि तीन महीने होती है, लेकिन अगर शादी के पश्चात सहवास नहीं हुआ तो कोई 'इद्दत' नहीं होती है। जिस महिला के पति की मृत्यु हो गई हो, उसके लिए इद्दत पति की मृत्यु के बाद के चार चंद्र मास और दस दिन होती है, चाहे शादी के पश्चात सहवास हुआ हो या नहीं। अगर कोई गर्भवती महिला विधवा हो जाती है या उसका तलाक हो जाता है, तो 'इद्दत तब तक चलती है जब तक संतान का जन्म नहीं हो जाता।
इस्लामी विद्वान इस निर्देश को पति की मृत्यु के शोक और विधवा को उसके पति की मृत्यु के बाद बहुत जल्दी पुनर्विवाह करने पर होने वाली आलोचना से बचाने, के बीच एक संतुलन के रूप में मानते हैं।[3] साथ ही इस अवधि में यह भी पता लग जाता है कि अमुक महिला गर्भवती है या नहीं, क्योंकि साढ़े चार महीने का समय सामान्य गर्भावस्था की अवधि का आधा है।[4]
मुसलमानों की मान्यता है कि यदि गर्भ हो तो इस अवधि में विस्वास के साथ उसका पता चल जाता है। [5]
इस्लाम |
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इस्लाम धर्म में इद्दत 7 प्रकार की होती हैं, उनका समय भी विभिन होता है।
जब तुम लोग त़लाक़ दो अपनी पत्नियों को, तो उन्हें तलाक़ दो उनकी 'इद्दत' के लिए, और गणना करो 'इद्दत' की तथा डरो अपने पालनहार अल्लाह से और न निकालो उन्हें उनके घरों से और न वह स्वयं निकलें,(क़ुरआन, 65:1)[6]
हे ईमान वालो! जब तुम निकाह करो ईमान वालियों से, फिर तलाक़ दो उन्हें, इससे पूर्व कि हाथ लगाओ उनको, तो नहीं है तुम्हारे लिए उनपर कोई इद्दत,[1] जिसकी तुम गणना करो। तो तुम उन्हें कुछ लाभ पहुँचाओ और उन्हें विदा करो भलाई के साथ। (क़ुरआन, 33:49)
जिन स्त्रियों को तलाक़ दी गयी हो, वे तीन बार रजवती होने तक अपने आपको विवाह से रोके रखें। उनके लिए ह़लाल (वैध) नहीं है कि अल्लाह ने जो उनके गर्भाशयों में पैदा किया[1] है, उसे छुपायें, यदि वे अल्लाह तथा आख़िरत (परलोक) पर ईमान रखती हों,(क़ुरआन, 65:4)
तथा जो निराश[1] हो जाती हैं मासिक धर्म से तुम्हारी स्त्रियों में से, यदि तुम्हें संदेह हो तो उनकी निर्धारित अवधि तीन मास है तथा उनकी, जिन्हें मासिक धर्म न आता हो और गर्भवती स्त्रियों की निर्धारित अवधि ये है कि प्रसव हो जाये
और तुममें से जो मर जायें और अपने पीछे पत्नियाँ छोड़ जायें, तो वे स्वयं को चार महीने दस दिन रोके रखें।,(क़ुरआन, 2:234)
हदीस (बुखारी 5320)
इस्लाम में औरतों की नमाज़ का तरीका [7]