क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी. | |
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क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी | |
![]() कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी दरगाह, दिल्ली | |
धर्म | इस्लाम |
पाठशाला | सूफ़ीवाद |
संप्रदाय | चिश्ती तरीका |
आदेश | चिश्ती, सूफ़ीवाद |
अन्य नाम | मलिक -उल् -मशाइख |
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
जन्म |
1173 ओश, दक्षिणी किर्गिज गणराज्य (किर्गिस्तान) |
निधन |
1235 14 रबी अल-अव्वलदिल्ली |
शांतचित्त स्थान |
महरौली, दिल्ली 28°31′09″N 77°10′47″E / 28.519303°N 77.179856°E |
पद तैनाती | |
कर्मभूमि | दिल्ली |
उपदि | ख्वाजा |
कार्यकाल | प्रारंभिक 13 वीं शताब्दी |
पूर्वाधिकारी | मोइनुद्दीन चिश्ती |
उत्तराधिकारी | फ़रीदुद्दीन गंजशकर |
कुतब उल अक्ताब हजरत ख्वाजा सय्यद मुहम्मद बख्तियार अल्हुस्सैनी क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी चिश्ती (जन्म ११७३-मृत्यु १२३५) चिश्ती आदेश के एक मुस्लिम सूफी संत और विद्वान थे| वह ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी और शिष्य थे, जिन्होंने भारत उपमहाद्वीप में चिश्ती तरीके की नीव रखी थी| उनसे पूर्व भारत में चिश्ती तरीका अजमेर और नागौर तक ही सीमित था, उन्होंने दिल्ली में आदेश को स्थापित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। मेहरौली में जफर महल के नजदीक स्थित उनकी दरगाह दिल्ली की सबसे प्राचीन दरगाहों में से एक हैं। इनका उर्स (परिवाण दिवस) दरगाह पर मनाया जाता है। यह रबी-उल-अव्वल की चोहदवी तारीख को (हिजरी अनुसार) वार्षिक मनाया जाता है। उर्स को दिल्ली के कई शासकों ने उच्च स्तर पर आयोजित किया था, जिनमे कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश जिन्होंने उनके लिए गंधक की बाओली का निर्माण किया, शेर शाह सूरी, जिन्होंने एक भव्य प्रवेश द्वार बनवाया, बहादुर शाह प्रथम, जिन्होंने मोती मस्जिद का निर्माण कराया और फररुखसियार,जिन्होंने एक संगमरमर स्क्रीन और एक मस्जिद जोड़ा, शामिल है। [1] सभी धर्म के लोग -हिंदू , मुस्लिम, सिख और ईसाई, मकबरे पर जाते हैं और हर गुरुवार को और वार्षिक उर्स मेला के दौरान वहां दुआ मांगते हैं।
उनके सबसे प्रसिद्ध शिष्य और आध्यात्मिक उत्तराधिकारी फ़रीदुद्दीन गंजशकर थे, जो दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत निज़ामुद्दीन औलिया के आध्यात्मिक गुरु थे, जो स्वयं अमीर खुसरो और नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी आध्यात्मिक गुरु थे।
कुतुबुद्दीन बक्तियार काकी का जन्म ११७३ में ओश (वैकल्पिक रूप से अवश या उश) नामक एक छोटे से शहर में हुआ था, जो कि दक्षिणी किर्गिज गणराज्य (किर्गिस्तान) में स्तिथ हैं| १६वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर के वज़ीर, अबूल-फजल इब्न मुबारक द्वारा लिखित आइन-इ-अकबरी[2][3][4] में वर्णित उनकी जीवनी के अनुसार, वह सय्यद कमालुद्दीन मुसा अलहुसैनी के पुत्र थे| जब क़ुतब सहाब की उम्र केवल डेढ साल थी, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी |ख्वाजा कुतबुद्दीन का मूल नाम बख्तियार था और बाद में उन्हें कुतबुद्दीन का खिताब दिया गया था| उनकी मां, जो खुद एक शिक्षित महिला थीं, ने शेख अबू हिफ्स द्वारा उनकी शिक्षा की व्यवस्था की थी|
कुतबुद्दीन बख्तियार काकी ने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के हाथों निष्ठा की शपथ ली थी| उनके आध्यात्मिक गुरु ने उन्हें भारत में निर्देशित किया और उनसे वहां रहने के लिए कहा था। वह मोइनुद्दीन चिश्ती के पहले आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे।[5][6]
कुतुबुद्दीन, दिल्ली के पास, मेंहरौली में बसने से पहले दिल्ली के केलो खेरी नामक गाव में रहे थे| मेंहरौली दिल्ली के पास, शहर के शोर शराबे और भीड़-भड़क्के से दूर स्थित था| उन्होंने यहाँ अपनी खंकाह बनाई, जहां पर विभिन्न समुदाय के लोगों को खाना खिलाया जाता था, खंकाह एक एसी जगह थी, जहां सभी तरह के लोग चाहे अमीर हों या गरीब, की भीड़ जमा रहती थी। ख्वाजा बक्तियार काकी, अन्य चिश्ती संतो की तरह, किसी भी औपचारिक सिद्धांत को तैयार नहीं किया था | वह एक मजलिस, एक सभा आयोजित करते थे, जहाँ वह भाषण और फ़तवा दिया करते थे। कुतबुद्दीन बक्तियार काकी भारत में चिश्ती घराने के दुसरे संत थे, इस सूफी संत ने चिश्ती तरीके के भीतर सार्वभौमिक भाईचारा, एक मात्र ईश्वर पर पूर्ण विश्वास, दान, मानव समानता, दरिद्र लोगों की मदद, के पारंपरिक विचारों को जारी और विकसित किया था।
उन्होंने समा या महफिल-ए-समा में भाग लेते हुए चिश्ती आदेश की संगीत परंपरा को भी जारी रखा था|[7] यह तरीका क़व्वाली, समाख्वानी, और उपन्यासों द्वारा लोगों को ईश्वर के समीप ले जाता है| 14 रबी-उल-अव्वल (27 नवंबर 1235) को उन्होंने महफिल-ए-समा में भाग लिया था, जहां कव्वाल नसीरुद्दीन ने निम्नलिखित छंद गाए:
“ | कुश्तगान-ए कंजर-ए तस्लीम रा; हर जमान अज़ ग़ैब जान-ए दीगर अस्त |
” |
छंद का अंग्रेजी अनुवाद निम्लिखित हैं:
“ | For the victims of the sword of divine love, ; there is a new life every moment from the unseen |
” |
ख्वाजा बख्तियार इन छंदों को सुन कर अति उत्साहित और बाहोश हो गए, चार दिनों के बाद उनकी मृत्यु हो गई| उनकी दरगाह दिल्ली के मेहरौली में कुतुब मीनार कॉम्प्लेक्स के पास जफर महल के नजदीक स्थित है। उनकी मृत्यु के बाद, वसीयत पढ़ी गई, कि केवल वही व्यक्ति उनकी नमाज-ए-जनाज़ा (अंतिम संस्कार प्रार्थना) का नेतृत्व कर सकता हैं, जिसने कभी-कोई हराम कार्य न किया हो और कभी भी अस्र की नमाज़ की सुन्नत ना छोडी हो, परन्तु लगभग सभी सूफी संतो और आम लोगों ने वसीयत की सामग्री का पालन नहीं किया था। अंततः उनकी प्रार्थना का नेतृत्व इल्तुतमिश ने किया,क्योंकि वह एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने इच्छा की सामग्री का पूर्ण रूप से पालन किया था।
मेहरौली में दरगाह के अजमेरी गेट के बाएं, मुगल मस्जिद, मुगल सम्राट बहादुर शाह प्रथम द्वारा १७०९ में निर्मित निजी प्रार्थना के लिए एक छोटी मस्जिद है, जो लाल किले के अंदर उनके पिता,औरंगजेब द्वारा निर्मित बड़ी मोती मस्जिद की नकल है। [8]
पैगम्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम से अपने वंश को इंगित करने के लिए क़ुतुब सहाब को सय्यद का खिताब दिया गया हैं | क़ुतुबुद्दीन नाम उन्हें " धर्म के द्रढ़ स्तम्भ" के रूप में वर्णित करता है | चिश्ती उनके आधात्मिक सिलसिले, चिश्तिया (वैकल्पिक रूप से चिष्तिया) तरीके को संदर्भित करता हैं | ख्वाजा कुतबुद्दीन का मूल नाम बख्तियार था|
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