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काच मुख्यतः सिलिका (रेत), चूना तथा सोडा-लाईम से बनाया जाता है। निर्माण के लिए काच का अर्ध द्रवित अवस्था में होना आवश्यक है, क्योंकि इसी अवस्था में काच का कर्षण, बेलन, पीडन एवं धमन (फूँकना) हो सकता है। उपयुक्त मात्रा और गुण के विविध कच्चे मालों को मिलाकर मिश्रण को विशेष भट्ठी में उच्च ताप (१३००-१५०० डिग्री सें.) पर द्रवित किया जाता है।
काच-द्रावण के लिए अग्निसह मिट्टी की ईटों और सिल्लियों की भट्ठियाँ बनाई जाती हैं। ईधंन के लिए साधारणत: कोयला, तेल या गैस का प्रयोग किया जाता है। घट-भट्ठी (Potfurnace) में भट्ठी के भीतर अग्निसह मिट्ठी (Fire clay) के खुले या बंद पात्रों में काच द्रवित किया जाता है। कुंड भट्ठी (Tank furnace) में दहन कक्ष के फर्श और चारों ओर की दीवारों के निम्न भाग में द्रवित काच रहता है। गैस, या तेल से तप्त कई प्रकार की पुनर्नियोजी (Regenerative) और पुनराप्त (Recuperatise) भट्ठियाँ भी काच द्रावण के लिए प्रयुक्त होती है। प्रत्येक भट्ठी में प्रतिदिन सैकड़ों टन उच्च गुणों का काच तैयार किया जाता है। काच के द्रवित हो जाने पर वस्तुओं के निर्माण से पूर्व इसे कुछ ठंडा किया जाता है, जिससे निर्माण क्रिया के लिए उसमें उपयुक्त सुघटता आ जाए।
सुषिर वस्तुएँ, यथा बोतलों, विद्युत् लट्टुओं, गिलासों इत्यादि का निर्माण हाथ से या यंत्र द्वारा किया जाता है। हाथ से निर्माण में कुशल कारीगर द्रवित काच को फुँकनी पर संग्रह करता है। फुँकनी पाँच फुट लंबी, तीन चौथाई से एक इंच बाह्य व्यास और चौथाई इंच छिद्रवाली, लोहे की नली होती है। फुँकनी के एक सिरे पर द्रवित काच को दुबोकर, या लपेटकर, उपयुक्त मात्रा में भट्ठी के बाहर निकाला जाता है और नाड में मुख द्वारा फूँककर और काच के गोले को विशेष पट्टी पर बेलकर, संगृहीत काच को लोंदे या गोले का रूप दिया जाता है, जिसका पारिभाषिक नाम निर्माण्य (parison) है। लोंदा बनाना भी एक कला है, क्योंकि इसका आकार और परिमाण वांछित वस्तु के सदृश होना चाहिए।
काच को धमन या पीडन (दबाकर) द्वारा आकार में लाने के लिए साधारणत: लोहे के साँचों का प्रयोग होता है। धमन साँचे दो अवतल भागों में विभाजित होते हैं और ये भाग कब्जों से जुड़े रहते हैं। निर्माण के पश्चात् लोंदे को धमन साँचे के भीतर रखकर धमनकर्ता अपनी पूरी शक्ति के साथ, फुँकनी के ऊपरी सिरे में मुख से फूँकता है और इस प्रकार लोंदा फूलकर धमन साँचे के आकार का बन जाता है। इस विधि से विभिन्न प्रकार की पोली वस्तुएँ, जैसे बोतल इत्यादि बनाई जाती हैं। बोतल का कंठ बनाने के लिए, बोतल को फुँकनी से अलग कर लेते हैं। तब उसके ऊपरी सिरे को तप्त करके विशेष साँचों द्वारा दबाया और बेला जाता है। सभी उद्योगों की तरह काच उद्योगों में भी यंत्रों का प्रयोग होने लगा है और सब प्रकार की काच की वस्तुएँ अर्ध स्वचालित एवं पूर्ण स्वचालित यंत्रों द्वारा निर्मित की जा रही है।
समुन्नत देशों में इन यंत्रों का उपयोग अधिक मात्रा में होता है। ये यंत्र सस्ते होते हैं और प्रत्येक देश में बनाए जाते हैं।
साधारणत: यंत्र में लोहे की ढलवाँ मेज पर बाईं ओर लोंदवाला साँचा उल्टा लगा रहता है। मेज के नीचे और लोंदेवाले साँचे के निकट हस्तक (बेंट) से चलनेवाला वायु-बेलन (cylinder) होता है। हस्तक को सामने खींचने पर लोंदेवाले साँचे में निर्वात (vacuum) स्थापित हो जाता है और उसे पीछे हटाने पर साँचे से लोंदा बाहर आ जाता है। लोंदेवाले साँचे के ठीक नीचे छोटा कंठवलय साँचा होता है। इस साँचे में ऊपरी ओर एक मज्जक (Plunber) होता है। बड़े साँचे में द्रवित काच सीमित मात्रा में डाल देते हैं और मज्जक की सहायता से बोतल का कंठ बना लेते हैं। हस्तक को इधर-उधर चलाने से, लोंदे का निर्माण होता है। मेज पर दाहिनी ओर धमन साँचा रहता है। लोंदे को कंठवलय साँचे सहित धमन साँचे के ऊपर रखा जाता है और धमन साँचे में संपीडित वायु का प्रयोग कर बोतल का निर्माण किया जाता है।
भट्ठी के अग्र भाग में स्वचालित काच प्रदायक यंत्र लगाने से आवश्यक मात्रा में द्रवित काच किसी भी यंत्र में डाला जा सकता है। यह यंत्र गिरते हुए काच स्रोत को द्रवित गोले के रूप में परिणत कर देता है और ये गोल नीचे टिके हुए स्वचालित यंत्रों के लोंदेवाले साँचों में स्वयं ही पहुँच जाते हैं।
ये यंत्र कई प्रकार के होते हैं, जिनमें मिलर, ओनील, लिंच, ओवेन, राइरांट, मोनिश और वेस्टेलेक कंपनियों के निर्माण यंत्र बहुत प्रचलित हैं। प्रत्येक में अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं।
इन यंत्रों में दो घूमनेवाली मेजें होती हैं। एक मेज पर छह लोंदेवाली उल्टे साँचे और दूसरी पर छह धमन साँचे रहते हैं। द्रवित काच का गोला, काच प्रदायक यंत्र द्वारा क्रमानुसार प्रत्येक लोंदेवाले साँचे में गिरता है। लोंदे के बन जाने के अनंतर लोंदे स्वयं ही दूसरी मेज पर स्थित धमन साँचों में चले जाते हैं और उस साँचे में संपीडित वायु द्वारा फूँके जाने पर बोतल तैयार हो जाती है। तब एक वायुचालित निष्कासक (take out) बोतल को उठाकर स्वचालित पट्टे पर रख देता है।
धमन यंत्रों की भाँति पीडन यंत्रों का भी प्रचलन है। इन यंत्रों में काच को लोंदेवाले साँचों में ही स्वचालित मज्जक द्वारा पीडित कर कुछ पोली वस्तुएँ, जैसे गिलास, कलश, प्याले, टाइलें (tiles), मसिपात्र, कलमदान, भस्मधानियाँ इत्यादि निर्मित की जाती हैं। साँचे से वस्तु की बाह्य रूपरेखा बनती है और भीतर का आकर मज्जक द्वारा तैयार होता है।
कुछ यंत्रों में, जैसे मोनिश एवं ओवेन यंत्रों में काच-प्रदायक यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, क्योंकि इन यंत्रों से लोंदेवाले साँचे काच पिघलाने की भट्ठी से आवश्यक काच चूस लेते हैं और लोंदा बनने पर उसको धमन साँचे में डाल देते हैं।
पीली वस्तुओं को निर्माण के पश्चात् अभितापन भट्ठी में रखा जाता है। इन भट्ठियों का ताप इतना होता है कि काच में कुछ कोमलता आ जाए। साधारण काच के लिए यह ताप प्राय: ४५०र-५५० डिग्री सें. तक होता है। इस ताप पर काच की आंतरिक विकृतियाँ दूर हो जाती हैं। तब काच शनै: शनै: ठंडा किया जाता है।
यह दो प्रकार का होता है
कुछ देशों में अब भी चादरी काच हाथ से बनाते हैं। इस विधि में फुँकनी द्वारा मुख से फूँककर काच के विशाल पोले बेलन बनाए जाते हैं। तब इन्हें लंबाई में काटकर विशेष भट्ठी में रखकर चिपटा एवं अभितापित किया जाता है।
चादरी काच निर्माण के लिए यांत्रिक प्रणालियों में फ़ूरकाल्ट कर्षण प्रणाली बहुत प्रचलित है। द्रवित काच में तैरती हुई, अग्निसह मिट्टी से बनी एक ८ फुट लंबी बेंडी नली होती है। इस नली के माथे में एक लंबी दरार होती है और इस दरार से चौड़े फीते के रूप में द्रवित काच की अविराम धारा ऊपर की ओर निकलती है। दरार के दोनों ओर दो जल शीतित नलियाँ निकलते हुए काच को ठंड़ा कर देती हैं। दरारवाली नली के ऊपर कर्षण यंत्र होता है। काच की चादर समान गति से घूमते हुए एक जोड़ी ऐस्बेस्ट्स के बेलनों के बीच से होकर निरंतर ऊपर बढ़ती है और ऊपर से उपयुक्त लंबाई की चादरें काट ली जाती हैं। इस बननेवाली चादर की चौड़ाई ३ से ६ फुट तक ही होती है। इन चादरों में कुछ हल्की क्षैतिज रेखाएँ बन जाती हैं। इन चादरों को अलग अभितप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
पट्ट काच की सतहें बड़ी सफाई से समतल और परस्पर समातंर बनाई जाती हैं। अच्छे दर्पण बनाने के लिए पट्ट काच ही उपयोग में लाया जाता है। एक निर्माण विधि में द्रवित काच के पात्र को उभरे किनारों की ढलवाँ लोहे की मेज पर एक लोहे के भारी बेलन के सामने उड़ेल दिया जाता है। बेलन के आगे बढ़ने पर काच पीडन द्वारा मेज के ऊपरी स्थल में फैलकर और दबकर, प्रारंभिक पट्ट काच के रूप में परिणत हो जाता है। दूसरी विधि में पट्ट काच अविराम-स्रोत-प्रणाली द्वारा बनाया जाता है। इस विधि में काच बड़े अविराम कुंडों में द्रवित किया जाता है। काच की छिछली धारा एक ओष्ठ के ऊपर से बहकर दो बेलनों के मध्य से गुजरती है। यह काच पट्ट धीरे-धीरे ठंडा होकर स्वयं ही अभितापित हो जाता है। इस पट्ट को काटकर लोहे की मेज पर पेरिस पलस्तर से जमा दिया जाता है। तब स्वचालित पेटी (belt) पर पट्ट आगे बढ़ता है और घर्षक यंत्र क्रम से, बालू एवं जल से, पट्ट को रगड़ते और कुंकुमी तथा जल से पालिश करते हैं। इसी प्रकार पट्ट के दूसरी ओर भी घर्षणा और पालिश की जाती है।
इसके निर्माण के लिए काच की चादर को बेलते समय जस्ते की कलईदार लोहे की जाली उसमें डाल दी जाती है।
काच शलाका एवं नली का हस्तकर्षण द्वारा निर्माण-फँकनी के सिरे पर अधिक मात्रा में द्रवित काच संगृहीत कर उसे दबाकर और बेलकर, बेलन के आकर का लोंदा बनाया जाता है। तब लोदे को कोमलांक तक पुन: तप्त कर एक लोह शलाका पर रखकर, उसमें एकदूसरी शलाका संयोजित की जाती है। संयुक्त होने के पश्चात् दो श्रमिक शलाकाओं को पकड़कर विपरीत दिशाओं में श्घ्रीाता से चलते हैं। इससे लोंदा शलाका के रूप में खिंच जाता है।
काच नली के निर्माण के लिए संगृहीत काच में फुँकनी द्वारा मुख से फुँकने पर स्थूल दीवार का पोला बेलन बन जाता है। फिर इसे पूर्वोक्त रीति से खींचा जाता है। कर्षण की अवधि में भी मुँह से निरंतर फूँका जाता है।
काच शलाका एवं नली का निर्माण पूर्णत: स्वचालित यंत्र द्वारा भी किया जाता है। इन यंत्रों में सबसे अधिक प्रचलित डैनर यंत्र है। इस यंत्र में काच की दो इंच चौड़ी और आध इंच मोटी धारा अक्ष पर घूमती हुई पोली लोह शलाका पर गिरती रहती है। इस शलाका पर अग्निसह मिट्टी चढ़ी रहती है। शलाका के घूमते रहने के कारण काच शलाका के चारों ओर लिपट जाता है। शलाका को कुछ तिरछा रखा जाता है; इसके काच शलाका के अंत तक पहुँच जाता है। वहाँ से काच को खींचा जाता है। साथ ही शलाका में से संपीडित वायु भी आती रहती है। इससे काच नली के रूप में खिंचता है। खींचनेवाला यंत्र प्राय: १०० फुट की दूरी पर रहता है। यंत्र कर्षित नली का छिद्र एक समान होता है और दीवारों की मोटाई की सर्वत्र समान होती है। हस्त कर्षित नली में यह बात नहीं आ पाती। नली एवं शलाका को अभितप्त करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि १०० फुट की दूरी तय करने में नली अपने आप धीरे-धीरे ठंडी हो जाती है।
चूड़ियाँ कई विधियों से बनाई जाती हैं। विशेष प्रचलित विधि यह है कि एक लोह शलाका पर द्रवित काच को संगृहीत किया जाता है और फिर अपने भार से लटके हुए काच को खींचकर उसे लोहे के एक क्षैतिज बेलन से जोड़ा जाता है। इस बेलन का व्यास चूड़ी के नाप का होता है और उसके नीचे कुछ अग्नि जलती रहती है। इस बेलन को घुमाने पर बेलन अनुप्रस्थ गति से थोड़ा आगे बढ़ता है। इसलिए ऊपर के बेलन से खिंचा काच सर्पिल रूप (spiral form) में नीचेवाले बेलन पर लिपट जाता है। काच के सर्पिल को बेलन से निकालकर, लंबाई में खेराच करने से, सर्पिल भाग खुले वलयों में विभाजित हो जाता है। अब वलयों के सिरों को कोमलांक तक तप्त करके दबाने पर, सिरे जुड़ जाते हैं और चूड़ी तैयार हो जाती हे। चूड़ियों को अभितप्त नहीं किया जाता है। रंगीन चूड़ियों के लिए रंगीन काचों का उपयोग किया जाता है और दक्ष कारीगर विभिन्न प्रकार की कलात्मक चूड़ियाँ इस रीति से बना सकते हैं।
इस काच में नन्हें-नन्हें बहुत से बुलबुले होते हैं। ये बुलबुले परस्पर अति निकट होने पर भी एक दूसरे से पूर्णत: पृथक रहते हैं। इसे बनाने के लिए चूर्ण किए हुए काच को कार्बनीय मिश्रण के साथ ७००-९०० डिग्री सें. तक के ताप पर द्रवित किया जाता है। ताप के कारण कार्बन डाइ-आक्साइड गैस निकलती है। फलत: काच फूल उठता है और वह फेन के समान हो जाता है। भवन निर्माण के लिए फेनसम काच उपयुक्त पदार्थ है। इसकी बनी ईटों और शलाकाओं को आरी से काट जा सकता है और इसमें कीलें भी जड़ी जा सकती हैं। फिर, ध्वनि भी इन ईटों को सुगमता से पार नहीं कर सकती।
उस काच को कहते हैं जिससे लेंस (लेंज़), प्रिज़्म (त्रिपार्श्व) आदि बनाए जाते हैं। प्रकाशीय काच निर्माण के लिए स्वच्छ, समांग, स्थायी और पूर्णतया रंगहीन काच का होना आवश्यक है। इस काच के प्रकाश-नियतांक (optical constants), जैसे वर्तनांक (refractive index) आदि, आवश्यकतानुसार होने चाहिए। समस्त आंतरिक विकृतियाँ दूर करने के हेतु इस काच को पूर्णतया तपाया जाता है। काच-मिश्रण के लिए लोहरहित और सुनिश्चित रचना के कच्चे पदार्थों का उपयोग किया जाता है। उत्तम मिट्टी के बने बंद पात्र में स्थिर ताप पर काच को द्रवित किया जाता है। द्रवण और शोधन के पश्चात् काच को चलाया (विलोड़ित किया) जाता है। काच में विलोड़न क्रिया अग्निसह मिट्टी की बनी छड़ों द्वारा की जाती है। विलोड़क छड़ द्रवित काच में ऊर्ध्वाधर रखकर उसको एक लौह शलाका से संबद्ध कर दिया जाता है और इस शलाका को यंत्र से चलाया जाता है। काच में छड़ के वृत्ताकार परिक्रमण से काच में समांगता आ जाती है। फिर विलोड़क को बाहर निकाल लिया जाता है। तदनंतर पात्र को तोड़ दिया जाता है। इससे काच कई टुकड़ों में विभाजित हो जाता है। शुद्ध एवं निर्दोष टुकड़ों को साँचों में रखकर साँचों को विद्युत् भट्ठी में रख दिया जाता है। पिघलने के पश्चात् ठंडा होने पर काच वांछित आकार का हो जाता है। कुछ विशेष स्थितियों में द्रवित काच को ढालनेवाली मेज पर उड़ेलकर और बेलकर पट्ट कच का रूप दिया जाता है। काच पट्ट एवं आकार युक्त काच टुकड़ों का विद्युत् तापित विशेष भट्ठी में पूर्ण अभितापन किया जाता है। इस कार्य में कई सप्ताह लग जाते हैं। अभितप्त काच को काटकर बालू से घिसकर और कुंकुम से पालिश करके मनचाहे आकार के लेंस (लेंज़) आदि बनाए जाते हैं।