गिरनार पर्वत ગિરનાર પર્વત | |
---|---|
गिरिनगर | |
उच्चतम बिंदु | |
ऊँचाई | 1,031 मी॰ (3,383 फीट) |
निर्देशांक | 21°29′41″N 70°30′20″E / 21.49472°N 70.50556°Eनिर्देशांक: 21°29′41″N 70°30′20″E / 21.49472°N 70.50556°E |
भूगोल | |
यह भगवान नेमिनाथ (जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर) की मोक्ष एवं ज्ञान कल्याणक स्थली है। गिरनार की पाँचवी टोंक पर उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ था। भारत के गुजरात प्रदेश में सौराष्ट्र प्रांत के जूनागढ़ शहर से लगभग 2 कि.मी. की दूरी पर एक भव्य और दिव्य पर्वत “गिरनार” विद्यमान है। गिरनार पर्वत की पाँचवी चोटी को नेमिशिखर के नाम से पहचाना जाता है, यहा भगवान श्री नेमिनाथ की चरण पादुका है।
इन पहाड़ियों की औसत ऊँचाई 3,500 फुट है पर चोटियों की संख्या अधिक है, चोटी 3,666 फुट ऊँची है;|[1][2] यहां पर सम्राट अशोक का एक स्तंभ भी है । महाभारत में अनुसार रेवतक पर्वत की क्रोड़ में बसा हुआ प्राचीन तीर्थ स्थल है ।
गिरिनार का प्राचीन नाम उर्ज्जयंत था। ये पहाड़ियाँ ऐतिहासिक मंदिरों, राजाओं के शिलालेखों तथा अभिलेखों (जो अब प्राय: ध्वस्तप्राय स्थिति में हैं) के लिए भी प्रसिद्ध हैं। पहाड़ी की तलहटी में एक बृहत चट्टान पर अशोक के मुख्य 14 धर्मलेख उत्कीर्ण हैं। इसी चट्टान पर क्षत्रप रुद्रदामन् का लगभग 150 ई. का प्रसिद्ध संस्कृत अभिलेख है। इसमें सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य तथा परवर्ती राजाओं द्वारा निर्मित तथा जीर्णोद्वारकृत जैन मंदिर का सुंदर वर्णन है। यह लेख संस्कृत काव्यशैली के विकास के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है। इस बृहत अभिलेख में रुद्रदमन के नाम और वंश का उल्लेख तथा रूद्रदमन् संवत् 72 में, भयानक आँधी पानी के कारण प्राचीन सुदर्शन झील टूट फूट जाने का काव्यमय वर्णन है। विशेषकर सुवर्णसिकता तथा पलाशिनी नदियों के पानी को रोककर बाँध बनाए जाने तथा महावृष्टि एवं तूफान से छूट जाने का वर्णन तो बहुत ही सुंदर है।
इस अभिलेख की चट्टान पर 458 ई. का एक अन्य अभिलेख गुप्तसम्राट् स्कंदगुप्त के समय का भी है जिसमें सुराष्ट्र के तत्कालीन राष्ट्रिक पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित द्वारा सुदर्शन तड़ाग के सेतु या बाँध का पुन: एक बार जीर्णोद्धार किए जाने का उल्लेख है क्योंकि पुराना बाँध, जिसे रूद्रदामन् ने बनवाया था, स्कंदगुप्त के राज्याभिषेक वर्ष में जल के महावेग से नष्ट भ्रष्ट हो गया था।
यहाँ के सिंहों की नस्ल भी अधिक विख्यात है जिनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।[3]
पालिताना और सम्मेत शिखर के बाद यह जैनियों का प्रमुख तीर्थ हैं। पर्वत पर स्थित जैन मंदिर प्राचीन एवं सुंदर हैं। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकरों की आराधना का विधान किया गया है जिसमें से 22 वे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी [ अरिष्ठनेमी ] का केवल ज्ञान प्राप्ति व मोक्ष [ निर्वाण ] प्राप्ति स्थल ऐतिहासिक रूप से गिरनार पर्वत, जिला-जूनागढ़, राज्य-गुजरात से बताया गया है; जिस कारण उक्त पर्वत जैन धर्मानुयायियो हेतु पवित्र व पूजनीय है | पुराणों के अनुसार श्री नेमिनाथ जी शौर्यपुर के राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी के पुत्र थे। समुद्रविजय के अनुज (छोटे भाई) का नाम वसुदेव था जिनकी दो रानियाँ थीं—रोहिणी और देवकी। रोहिणी के पुत्र का नाम बलराम बलभद्र व देवकी के पुत्र का नाम श्रीकृष्ण था । इस तरह नेमिनाथ श्रीकृष्ण के बाबा(ताऊ) के पुत्र थे। [4][5][6][7][8][9][10][11]
उक्त पर्वत पर जैनों हेतु ऐतिहासिक रूप से आठ स्थल पूजनीय बताए गए हैं जिनमें से प्रथम पॉच स्थल टोंक कहा जाता है; द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ टोंक का उल्लेख उत्तर पुराण सर्ग ७२ श्लोक १८९-१९० में आचार्य गुणभद्र सुरी ( 741 ईसवी ) ने भी किया है |[12]
इस स्थल पर पांचवी सदी से सोलवीं सदी के श्वेतांबर en:Śvetāmbara/ दिगंबर en:Digambara monk पंथ के 100 से अधिक मंदिर बने हुए हैं |[13]
पहाड़ की चोटी पर कई जैन मंदिर
हैं। यहां तक पहुँचने के लिए 7,000 सीढ़ियाँ हैं। इनमें सर्वप्राचीन मंदिर गुजरात नरेश कुमारपाल के समय का बना हुआ है। दूसरा वास्तुपाल और तेजपाल नामक भाइयों ने बनवाया था। इसे तीर्थंकर मल्लिनाथ मंदिर कहते हैं। यह विक्रम संवत् 1288 (1237 ई.) में बना। तीसरा मंदिर नेमिनाथ का है जो लगभग 1277 ई. में तैयार हुआ। यह सबसे अधिक विशाल एवं भव्य है। प्राचीन काल में इन पर्वतों की शोभा अपूर्व थी क्योंकि इनके सभामंडप, स्तंभ, शिखर, गर्भगृह आदि स्वच्छ संगमरमर से निर्मित होने के कारण बहुत चमकदार और सुंदर दिखते थे। अब अनेक बार मरम्मत होने से इनका स्वभाविक सौंदर्य कुछ फीका पड़ गया है।
मुनि अनिरुद्ध कुमार जी के चरण स्थित है। इन्होंने जैन दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया।
मुनि शंभू कुमार जी के चरण स्थित है। इनका उल्लेख जैन शास्त्रों में मिलता है। मुनि ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर तप करके यहां से निर्वाण प्राप्त किया था।
मुनि प्रदुम कुमार जी के चरण एवं पत्थर पर तीर्थंकर की प्रतिमा उत्कीर्ण है; जैन मान्यतानुसार ये श्री कृष्ण के पुत्र है।
यहां भगवान नेमिनाथ जी के चरण कमल हैं। यह जैन संप्रदाय के लिए अत्यंत पवित्र तीर्थ स्थान है। इसी शिखर से भगवान नेमिनाथ को मोक्ष प्राप्त हुआ था।
इसमें चट्टान में नेमिनाथ के पदचिह्नों या पादुका के ऊपर एक छोटा सा खुला मंदिर या मंडप है। इसके बगल में एक भारी घंटा लटका हुआ था।[14][2]
इस स्थल पर चरण के ऊपर चार खम्बों पर एक छतरी बनी हुई थी साथ ही इक शिलालेख स्थित था जिसमे उल्लेख था कि बूंदी (राजपूताना) के जैन अनुयायी द्वारा पर्वत की सीढ़ियों का निर्माण कार्य कराया गया है।[15] (उक्त छत्री १९८१ मे आकाशीय बिजली से नष्ट हो गयी है।)
तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान का केवल ज्ञान प्राप्ति स्थल; यहां नेमिनाथ जी के चरण स्थित है एवं एक भव्य मंदिर निर्मित है| यहां नेमिनाथ भगवान का दीक्षा कल्याणक एवं केवल ज्ञान कल्याणक हुआ था।
यहां माता राजुल की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है[16]; इनका विवाह भगवान नेमिनाथ से होने से पूर्व ही नेमिनाथ को वैराग्य हो गया था जिस् कारण इन्होंने भी वैराग्य धारण कर इस स्थल पर साधना की है।
यह तीर्थंकर नेमिनाथ की यक्षिनी अंबिका देवी का मंदिर हैं।[17] वह नीले वर्ण वाली, सिंह की सवारी करने वाली, आम्रछाया में रहने वाली दो भुजा वाली है। बायें हाथ में प्रियंकर नामक पुत्र के प्रेम के कारण आम की डाली को और दायें हाथ में अपने द्वितीय पुत्र शुभंकर को धारण करने वाली है। चूंकि अम्बिका जी हाथो मे आम्र वृक्ष धारण करती है जिस कारण इस मन्दिर के आस-पास आम्र वृक्ष लगाने की प्रथा पुरातन समय मे यहाँ थी।
अन्य स्थलो मे चौबीस तीर्थंकरो के चरण (यह गौमुखी गंगा के परिसर मे स्थित है ) ,एवम पर्वत पर जगह-जगह पर स्थित तीर्थंकरो के चरण एवं पत्थरो पर तीर्थंकर की उत्कीर्ण प्रतिमाएं है |
|firstlast=
missing |lastlast=
in first (मदद)