गुणाढ्य पैशाची में बड्डकहा (संस्कृत: बृहत्कथा) नामक अनुपलब्ध आख्यायिका ग्रंथ के प्रणेता थे। क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथामञ्जरी (११वीं शती) के अनुसार वे प्रतिष्ठान निवासी कीर्तिसेन के पुत्र थे। दक्षिणापथ में विद्यार्जन करके विख्यात पंडित हुए। प्रभावित होकर सातवाहनराज ने उन्हें अपना मंत्री बनाया। प्रवाद है कि महाराज संस्कृत व्याकरण के अच्छे ज्ञाता नहीं थे जिससे जलक्रीड़ा के समय वे विदुषी रानियों के मध्य उपहास के पात्र बने। दु:खी होकर उन्होंने अल्प काल में ही व्याकरण मे निष्णात् होने के निमित्त गुणाढ्य पंडित को प्रेरित किया जिसे उन्होंने असंभव बताया। किंतु ‘कातत्र’ के रचयिता दूसरे सभापंडित शर्ववर्मा ने इसे छह मास में ही संभव बताया। गुणाढ्य ने इस चुनौती और प्रतिद्वंद्विता का उत्तर अपनी रोषयुक्त प्रतिज्ञा द्वारा किया। लेकिन शर्ववर्मा ने उसी अवधि में महाराज को व्याकरण का अच्छा ज्ञान करा ही दिया। फलत: प्रतिज्ञा के अनुसार गुणाढ्य को नगरवास छोड़ वनवास और संस्कृत, पाली तथा प्राकृत छोड़कर पैशाची का आश्रय लेना पड़ा। विद्वानों का एक वर्ग गुणाढ्य को कश्मीरी मानता है जिससे पैशाची से उनका संबंध स्वाभाविक हो जाता है। इसी भाषा में उन्होंने सात लाख की अपनी ‘बड्डकहा’ रची जो काणभूति के अनुसार चमड़े पर लिखी विद्याधरेंद्रो की कथा बताई जाती है। ग्रंथ को लेकर वे सातवाहन नरेश की सभा में पुन: गए जहाँ उन्हें वांछित सत्कार नहीं मिला। प्रतिक्रियास्वरूप, वन लौटकर वे उस कृति को पाठपूर्वक अग्नि में हवन करने लगे। कहा जाता है, माधुर्य के कारण पशु-पक्षी गण तक निराहार रह कथाश्रवण में लीन रहने लगें जिससे वे मांसरहित हो गए। इधर वनजीवों के मांसाभाव का कारण जानने के लिये सातवाहन द्वारा पूछताछ किए जाने पर लुब्धकों ने जो उत्तर दिया उसके अनुसार वे गुणाढ्य को मनाने अथवा ‘बड्डकहा’ को बचाने के उद्देश्य से वन की ओर गए। वहाँ वे अनुरोधपूर्वक ग्रंथ का केवल सप्तमांश जलने से बचाने में सफल हो सके जो क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथा श्लोकसंग्रह (७५०० श्लोक) और सोमदेवकृत कथासरित्सागर (२४०० श्लोक) नामक संस्कृत रूपांतरों में उपलब्ध है।
गुणाढ्य का समय विवादास्पद है। संस्कृत तथा अपभ्रंश ग्रंथों में जो उल्लेख प्राप्त होते हैं वे ७वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं है। कीथ ने कंबोडिया से प्राप्त ८७५ ई. के एक अभिलेख के आधार पर उनके अस्तित्व की कल्पना ६०० ई. से पूर्व की है। प्रचलित प्रवादों में गुणाढ्य का संबंध सातवाहन से जोड़ा गया है। सातवाहननरेशों का समय २०० ई. पू. से ३०० ई. तक माना जाता है जिनके समय में प्राकृत साहित्य की प्रतिनिधि रचनाएँ हुईं। इसके अतिरिक्त विद्वानों का मत है कि कादंबरी, दशकुमारचरित्, उदयन और पंचतंत्र की कथाओं का मूल बृहत्कथा ही है। इनमें पंचतंत्र का पहलवी भाषा में हुआ अनुवाद पाँचवीं शताब्दी का बताया जाता है। अत: गुणाढ्य का काल निस्संदेह तृतीय चतुर्थ शताब्दी में कभी माना जा सकता है।
गुणाढ्य कृत बड्डकहा यद्यपि अनुपलब्ध है तथापि जैसे सप्तशतियों की परंपरा का आदिस्रोत हालकृत ‘गाहासत्तसई’ बताई जाती है वैसे ही भारतीय आख्यायिका साहित्य का अतीत बड्डकहा से संयुक्त है। बाण ने उसे हरलीला के समान विस्मयकारक, त्रिविक्रम ने अत्यधिक लोगों का मनोरंजन करनेवाला और धनपाल ने उपजीव्य ग्रंथ मानकर उसे सागर के समान विशाल बताया है जिसकी बूंद से संस्कृत के परवर्ती आख्यायिकाकार और कवि अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते आए हैं। इस दृष्टि से गुणाड्य परवर्ती आख्यायिका लेखकों के शिक्षक सिद्ध होते है। पुराणों, वेदों आदि में प्राप्त कथाओं की शिष्ट साहित्यधारा, जो भारतीय इतिहास के सांस्कृतिक अतीत से जुड़ी है, उसी के ठीक समानांतर लोकप्रचलित कथाओं की धारा भी आदिकाल से संबंधित है। गुणाड्य ने सर्वप्रथम इस द्वितीय धारा का संग्रह जनभाषा में किया। अत: पौराणिक कथा-संकलनों की भाँति लोककथाओं के इस संग्रह का भी असाधारण महत्व है। इसीलिये गोवर्धनाचार्य ने बड्डकहा को व्यास और वाल्मीकि की कृतियों के पश्चात् तीसरी महान् कृति मानकर गुणाढ्य को व्यास का अवतार कहा है। लोककथाओं के महान् संग्राहक गुणाढ्य का असामान्य महत्व इससे स्वत: सिद्ध है।