जयतीर्थ | |
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धर्म | हिन्दू धर्म |
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
जन्म |
धोन्डोपन्त रघुनाथ देशपाण्डे[1][2][3] 1345 CE पंढरपुर के निकट मंगलवेढा (वर्तमान समय में महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में )[4] |
निधन | मलखेड |
पिता | रघुनाथ पन्त देशपाण्डे |
माता | साकुबाई |
पद तैनाती | |
उत्तराधिकारी | विद्याधीरज तीर्थ |
वैष्णव धर्म |
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मुख्य देवता |
अन्य देवता |
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ग्रंथ |
सम्प्रदाय |
आचार्यगण |
संबंधित परंपराऐं |
हिन्दू धर्म प्रवेशद्वार |
जयतीर्थ ( 1345 - 1388 ई [5] [6] [7] ) एक हिंदू दार्शनिक, महान द्वैतवादी, नीतिज्ञ और मध्वचार्य पीठ के छठे आचार्य थे। उन्हें टीकाचार्य के नाम से भी जाना जाता है। मध्वाचार्य की कृतियों की सम्यक व्याख्या के कारण द्वैत दर्शन के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में उनकी गिनती होती है। मध्वाचार्य, व्यासतीर्थ और जयतीर्थ को द्वैत दर्शन के 'मुनित्रय' की संज्ञा दी गयी है। वे आदि शेष के अंश तथा इंद्र के अवतार माने गये हैं। [8] [9]
जयतीर्थ ने कोई 22 ग्रन्थों की रचना की जिनमें से १८ ग्रन्थ मध्वाचार्य की कृतियों के भाष्य हैं। [10] 'न्यायसुधा' नामक उनकी कृति मध्वाचार्य के 'अनुव्याख्यान' नामक कृति का भाष्य है। यह उनकी महान कृति है। इसमें लगभग 24,000 श्लोक हैं जिनमें मीमांसा और न्याय दर्शन से लेकर बौद्ध और जैन आदि विविध दर्शनों की आलोचना की गयी है और द्वैत दर्शन को स्थापित किया गया है। सुधा वा पठनीया वसुधा वा पालनीया - यह उद्घोष न्यायसुधा के वैशिष्ट्य को प्रकट करता है।[11] भाष्यग्रन्थों के अतिरिक्त उन्होंने 4 मूल ग्रंथ भी लिखे हैं जिनमें 'प्रमाणपद्धति' और 'वादावली' विशिष्ट हैं। प्रमाणपद्धति, द्वैत की ज्ञानमीमांसा पर एक संक्षिप्त ग्रन्थ है। 'वादावली' , 'वास्तविकता' और भ्रम की प्रकृति से संबंधित है। [12]
Among the authors who wrote on the other schools of Vedānta à mention must first of all be made of Jayatirtha (1365–1388 A. D.). His original name was Dhondo Raghunath Deshpande, and he belonged to Mangalwedha near Pandharpur.
Jayatirtha, whose original name was Dhondo Raghunātha , was a native of Mangalvedhā near Pandharpur.
Jaya Tirtha was first named 'Dhondo', and he was the son of Raghunatha, who was a survivor of Bukka's war with the Bahmani Sultanate. Tradition says Raghunatha was from Mangalavede village near Pandharpur. An ancestral house still exists there, and the Deshpandes of Mangalavede claim to be descendents of his family.