जौनसार बावर मसूरी के १५ किलोमीटर दूर चकराता तहसील में देहरादून जिले का एक गाँव है। यह स्थान जौनसारी जनजाति का मूल स्थान है जिनकी जड़े महाभारत के पाण्डवों से निकली हुई हैं। [1][2].
देहरादून का यह जनजातीय क्षेत्र शहर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। कालसी, चकराता व त्यूनी तहसीलें इसी क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। सामान्यतः यह क्षेत्र यमुना और टौंस नदियों के मध्य में स्थित है। इस क्षेत्र के प्रमुख स्थल हैं- कालसी, लाखमण्डल, बैराटगढ़ और हनोल ।
सामाजिक दृष्टि से जौनसार-बावर के दो प्रमुख क्षेत्र हैं जिसमें दो प्रमुख समुदाय निवास करते हैं। नीचे का आधा भाग 'जौनसार' है और ऊपरी हिमाच्छादित भाग 'बावर'। खरम्बा चोटी (3084 मी.) बावर क्षेत्र में ही आती है।[3].
यद्यपै दोनों क्षेत्र सटे हुए हैं किन्तु इसके मूल निवासी अपनी उत्पत्ति बिलकुल अलग-अलग मानते हैं। जौनसार जनजाति के लोग अपने को पाण्डवों का वंशज मानते हैं जिनको पाशि कहां जाता है और बावर के लोग अपने को दुर्योधन का वंशज]]। जिनको षाठी कहा जाता है ये दोनों समुदाय शताब्दियों से विश्व समुदाय से कटे हुए हैं जिसके कारण इनकी अद्वितीय संस्कृति और परम्पराएँ बची हुई हैं। दोनों समुदायों के बीच विवाह सम्बन्ध भी यदा-कदा ही होते हैं। जौनसारी समुदाय में बहुपतित्व की परम्परा है।
जौनसार बावर क्षेत्र एक आदिवासी घाटी है। यह १००२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर फैली हुई है। इसमें ४०० गाँव हैं।[4]
यह ७७.४५' और ७८.७'२०" पूर्व की ओर और ३०.३१' and ३१.३'३" उत्तर की दिशा में स्थित है।[3] between 77.45' and 78.7'20" East to 30.31' and 31.3'3" North.
इसकी पूर्वी दिशा में यमुना नदी है और पश्चिमी दिशा में टोसं नदी है। इसके उत्तरी भाग में उत्तरकाशी जिला और हिमाचल प्रदेश के कुछ भाग हैं। देहरादून तहसील इसके दक्षिण कोने में स्थित है।[3]
इस क्षेत्र में रोजगार का ज़रिया कृषि और पशु-पालन है। यह विशेष रूप से उत्तरी क्षेत्र में आम है क्योंकि कृषि क्षेत्र का मुश्किल से १० प्रतिशत क्षेत्र सिंचित होता है। यहाँ की अर्थ व्यवस्था में दूध, ऊन और मांस जैसे जानवरों के उत्पादों अत्यावश्यक स्थान प्राप्त है।[5]
१८२९ में जौनसार बावर को चकराता तहसील में सम्मिलित किया गया। इससे पूर यह पंजाब सिर्मूर राज्य का भाग था। अंग्रेज़ों ने इस पर देहरादून के बाद १८१४ में अपना झंडा लेहराया और इस कार्य में गोर्खों ने उनकी सहायता की। [6]
१८६६ में यहाँ पर ब्रिटिश भारतीय सेना के कंटोनमेंट की स्थापना से पहले यहाँ के पूरे क्षेत्र को जौनसार बावर कहा जाता था, और यही नाम इस क्षेत्र के लिए जन-मानस द्वारा २०वीं शदाब्दी के प्रारंभ तक प्रयुक्त रहा।[7]
जहाँ पश्चिमी हिन्दी पड़ोस के पहाड़ी क्षेत्रों में लोकप्रिय रही है, 'जौनसारी' भाषा जो केन्द्रीय पहाड़ी भाषाओं में लोकप्रिय रही थी, इस क्षेत्र को अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती थी। [8].
पारम्परिक रूप से जौनसार बावर क्षेत्र अपने सुरक्षित और समृद्ध जंगल के क्षेत्र के लिए जाना जाता है। इसके ऊँचे पहाड़ी क्षेत्र में देवदार के वृक्ष, फ़र वृक्ष आदि मौजूद हैं जिनसे अंग्रेज़ों के काल से इमारती लकड़ी मिलती रही है। उस समय पेड़ की लकड़ी ढलान से गिरकर यमुना के रास्ते दिल्ली पहुँचा करती थी। [9]
स्थानीय जौनसार बावर क़बीले की संस्कृति अन्य पहाड़ी क्षेत्रों से भिन्न है जो गढ़वाल, कुमाऊँ और हिमाचल प्रदेश में हैं। [10] इसी का एक रिवाज बहुविवाह और बहुपति प्रथाएँ हैं जो यहाँ देखी जाती हैं। यहाँ के अमीर आदिवासी कई पत्नियाँ रखते हैं जबकि उनके गरीब साथी अपनी पत्नी को अपने भाईयों के साथ साझा करते हैं, यहाँ कि इस प्रथा को बहुपति प्रथा कहा जाता है यह प्रथा परिवार को एक डोर में बंधे रखती है जिससे परिवार में सदस्यों कि सख्या बढ़ती रहती है जो कि आपसी प्रेम का एक उदाहरण है ॥[11] इस बात को कई बार महाभारत में वर्णित पाँच पांडवों के द्रौपदी से विवाह से जोड़कर देखा जाता है, जिससे कि जौनसारी लोग अपने वंश को जोड़कर देखते हैं।[12][5][13] मानव-शास्त्र के अध्ययनों से पता चलता है कि इन प्रथाओं के स्थान पर एक संगमन ही प्रचलित हो रहा है।[14][15]
इनकी संस्कृति में एक मुख्य पहलू खेल और नृत्य हैं जिनमें लोक नृत्य 'बारदा नाटी'और "हारूल" है जो सभी समारोहों में प्रदर्शित होता है।[16] जौनसारियों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व 'माघ मेला' है जिसमें जानवरों की बली की रस्म होती है, जो 'मारोज' के वध का जश्न है। लोक मान्यता के अनुसार मारोज एक राक्षस था जो इस घाटी का कई सालों तक पीछा करता रहा। [4]
पर्वों के समय लोग थलका या लोहिया पहनते हैं, जो एक लम्बा कोट होता है। नृत्य करने वाले लड़के और लड़कियाँ रंगीन पौशाक पहनती हैं।[10]
क्षेत्र के जौनसारी आदिवासी १०० से अधिक पौधों को विभिन्न रोगों के इलाज के लिए प्रयोग में लाते है जो कई प्रजातीय वनस्पतिशास्त्र के अध्ययनों का विषय बना रहा है।[17][18]
पारंपरिक रूप से बहुत गरीबी के कारण, जो मरु भूमि और प्रतिकूल मौसमी वातावरण के कारण उत्पन्न होते थे, बंधुआ मज़दूरी आम बात थी। पर ।१९७६ के बंधुआ मज़दूरी निवारण अधिनियम' के पश्चात परिस्थिति सुधरी है, जब २०,००० से अधिक बंधुआ मज़दूरों की इस क्षेत्र में होने की सूचना प्राप्त हुई। पर यह प्रथा कभी क्षेत्र से अलग नहीं हुई और २००५ में जौनसार बावर में फिर से बँधुआ मज़दूरी के समाचार आए।[19] विशेष रूप से कोलता, दास और बाजगी जैसे पिछड़े समाज के लोगों में।[20]
यह इसके बावजूद है कि स्थानीय लिखित जानकारी न होने के कारण सरकार ने इस क्षेत्र के लिए एक अलग अधिनियम बनाया, 'जौनसार बावर ज़मीनदारी भूमि सुधार अधिनियम १९५६ (यू पी अधिनियम XI, १९५६)', जिसे १९६१ में क्रियांवित किया गया था।[21]
जौनसार बावर में हुण वास्तुशिल्प में बनी एक मन्दिर जो १,७०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है - जौनसार बावर के मुख्य आकर्षणों में से एक है। यहाँ के गाँव प्राकृतिक सौंदर्य के प्रतीक हैं और दून घाटी और गढ़वाल हिमालय जिन पर से यमुना और टोंस नदियाँ गुज़रती हैं, अति सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करते हैं। इस गाँव पहुँचने का सबसे ठीक समय मई और जून है। यहाँ का निकटतम हवाई अड्डा जॉली ग्रान्ट है और निकटतम रेलवे स्टेशन देहरादून है। साथ ही साथ जौनसार बावर मे कथियान मुंडाली नामक एक भुगयाल भी स्थित है
अन्य दर्शनीय स्थलों में एक गाँव लखमण्डल है जो यमुना के किनारे है। [22] इससे हिमालय का दृश्य, ५वीं शताब्दी का शिव मन्दिर और कई प्राकृतिक गुफाएँ देखी जा सकती हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि पांडवों ने उनका प्रयोग किया था।
यात्रियों के लिए मूल सुविधाएँ मौजूद हैं। सर्दी के मौसम में गर्म कपड़ों की सलाह दी जाती है और मूल चिकित्सा सावधानियाँ बताई गई हैं। देहरादून और मसूरी से बसें और टैक्सियाँ उपलब्ध हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के डॉ० ज्योति गुप्त के कार्य पर आधारित फ़िल्म रास्ते बन्द हैं साब जौनसार बावर पर आधारित थी। इसे मंजिरा दत्त ने बनाया था, और इसे सर्वश्रेष्ठ मानशास्त्र फ़िल्म की श्रेणी में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार १९८८ में दिया गया था।[23].