कवि | स्वामी विवेकानन्द |
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प्रथम प्रकाशन | 1898 |
देश | भारत |
भाषा | अंग्रेजी |
ऑनलाइन पढ़ें | विकीस्रोत पर |
टू द फोर्थ ऑफ़ जुलाई (अंग्रेज़ी: To the Fourth of July, हिन्दी: चार जुलाई के लिए) एक अंग्रेजी कविता है जो भारतीय साधु और समाज सुधारक स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित है। विवेकानन्द ने यह कविता 4 जुलाई 1898 को अमेरिकी स्वतंत्रता की वर्षगाँठ पर रचित की।[1][2]
इस कविता में विवेकानन्द ने स्वतंत्रता की प्रशंसा और महिमा का गुणगान किया हौ और स्वतंत्रता के लिए अपनी प्रभावशाली लालसा को भावुक कथन के रूप में कविता के माध्यम से वर्णित किया। प्रसंगवश विवेकानन्द स्वयं का निधन 4 जुलाई 1902 को हुआ।[3][4]
सन् 1893 में विवेकानन्द विश्व धर्म महासभा में भारत और हिन्दू धर्म को निरूपित करने संयुक्त राज्य अमेरिका गये। संसद में अपरिहार्य सफलता प्राप्त करने के पश्चात 1893 से 1897 तक उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैण्ड में वेदान्त दर्शन पर व्याख्यानों की एक शृंखला (अनुक्रम) प्रस्तुत किया। वो 1897 में भारत वापस आये तथा 1897 और 1899 के बीच विभिन्न राज्यों की व्यापक यात्रा की।
सन् 1898 वो कश्मीर गये, जहाँ वो डल झील में हाउसबोट (तैरनेवाला घर) पर रुके। कुछ अमेरीकी और अग्रेज शिष्यों (अनुयायियों) के संग जब अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान 4 जुलाई 1898 को संयुक्त राज्य अमेरिका की स्वतंत्रता की वर्षगाँठ को मनाने के भाग के रूप में यह कविता लिखी और इसे उस दिन के नाश्ते के समय जोर से पढ़ने का आग्रह किया।[5][6][7]
अंग्रेजी भाषा | लिप्यंतरण | हिन्दी अनुवाद |
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To The Fourth of July (excerpt) Behold, the dark clouds melt away, |
टू द फॉर्थ ऑफ़ जुलाई (एक्सर्प्ट) बिहोल्ड, द डार्क क्लाउड्स मेल्ट अवे, |
चतुर्थ जुलाई के लिए (अंश) देखते हुये काले बादल पिघल के दूर चले जायेंगे, |
कविता में अमेरिका की स्वतंत्रता की महिमा का गुणगान किया गया है।[3] विवेकानन्द ने कविता में दो भिन्न शब्दों— "freedom" (हिन्दी अनुवाद: स्वतंत्रता) और "liberty" (हिन्दी अनुवाद: स्वाधीनता) का उपयोग किया है। The poem reflects poet's powerful urge for liberty and it has been described as a passionate utterance of his powerful longing for freedom.[2][8] लेखक कारेबनु कूपर की विचारों के अनुसार, विवेकानन्द ने इस कविता में चार जुलाई को सम्बोधित किया है, लेकिन कविता के अनुसार "कंक्रीट का मिश्रण और सारांश, राष्ट्रीय घटनाएं और सनातन अवधारणाओं को प्रतिवचन करते हैं।"[6]
इस कविता में विवेकानन्द उन काले बादलों की ओर ध्यान आकृष्ठ करते हैं जो पिघल कर दूर चले जाते हैं और एक नये दिन का— एक स्वाधीनता के दिन का शुभारम्भ होता है। वो एक नये उज्ज्वल दिन के शुभारम्भ का विवरण भी देते हैं।[7] कविता की अंतिम पंक्ति में वो पृथ्वी के सभी देश, सभी आदमी और सभी महिलाओं के लिए "स्वतंत्रता" के लिए प्रार्थना करते हैं।[1]