तिब्बत की स्वतंत्रता का आन्दोलन तिब्बत को स्वतन्त्र करने और चीन से उसे राजनैतिक रूप से अलग करने का राजनैतिक आन्दोलन है। इस आन्दोलन को मुख्य रूप से भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में रहने वाले तिब्बती मूल के लोग चलाते हैं।
1912 से लेकर 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना तक किसी भी चीनी सरकार ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र पर नियंत्रण नहीं किया। तेरहवें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। दलाई लामा की सरकार ने 1951 तक तिब्बत की भूमि पर शासन किया था। करीब 40 सालों के बाद चीन के लोगों ने तिब्बत पर आक्रमण किया। चीन का यह आक्रमण तब हुआ जब वहां 14वें दलाई लामा के चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। तिब्बत को इस लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा। तिब्बती लोग तथा अन्य टिप्पणीकार चीन द्वारा किये गए इस कृत्य को ‘सांस्कृतिक नरसंहार’ के रूप में वर्णित करते हैं। कुछ वर्षों बाद १९५९ में तिब्बत के लोगों ने चीनी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। ये अपनी संप्रभुता की मांग करने लगे। हालांकि विद्रोहियों को इसमें सफलता नहीं मिली। दलाई लामा को लगा कि वह बुरी तरह से चीनी चंगुल में फंस जाएंगे, इसी दौरान उन्होंने भारत का रुख किया। दलाई लामा के साथ १९५९ में भारी संख्या में तिब्बती भी भारत आए थे।
10 मार्च 1959 को तिब्बत की राजधानी ल्हासा में विद्रोह हुआ, जो नाकाम रहा और इसके बाद दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। तभी से तिब्बती 10 मार्च को अपने राष्ट्रीय दिवस के तौर पर मनाते आ रहे हैं।
२००८ में ल्हासा में बौद्ध भिक्षुओं के नेतृत्व में चीन विरोधी प्रदर्शन हुए, जिन्हें पेइचिंग की सरकार ने बलपूर्वक दबाने की कोशिश की। अलग अलग देशों में स्थित और तिब्बत में स्वशासन की मांग करने वाले में कई समूहों का कहना है कि इस कार्रवाई में 200 लोग मारे गए थे।
1959 के विद्रोह के पश्चात् चीन सरकार लगातार तिब्बत पर अपनी पकड़ मज़बूत करती रही है।तिब्बत में आज भी भाषण, धर्म या प्रेस की स्वतंत्रता नहीं है और चीन की मनमानी जारी है। जबरन गर्भपात, तिब्बती महिलाओं की नसबंदी और कम आय वाले चीनी नागरिकों के स्थानान्तरण से तिब्बती संस्कृति के अस्तित्व को खतरा है।
१४वें दलाई लामा भारत के धर्मशाला के उपनगर मैक्लॉयडगंज से तिब्बत की निर्वासित सरकार का नेतृत्व करते हैं।