तुकडोजी महाराज (1909 – 1968) भारत के महाराष्ट्र के एक सन्त थे। उनका मूल नाम माणिक बान्डोजी Ingale था। वे अमरावती जिले के यावली ग्राम में एक निर्धन परिवार में जन्मे थे। वे आडकोजी महाराज के शिष्य थे।
तुकडोजी महाराज एक महान व स्वयंसिद्ध संत थे। उनका प्रारंभिक जीवन आध्यात्मिक और योगाभ्यास जैसे साधनामार्गोंसे पूर्ण था। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवनका अधिकांश समय रामटेक, सालबर्डी, रामदिघी और गोंदोडा के बीहड़ जंगलों में बिताया था।
यद्यपि उन्होंने औपचारिक रूपसे बहुत ज्यादा शिक्षा नहीं ग्रहणकी थी, किंतु उनकी आध्यात्मिक भावना और उसकी संभाव्यता बहुत ही उच्च स्तरकी थी। उनके भक्ति गीतोंमें भक्ति और नैतिक मूल्योंकी बहुत ही ज्यादा व्यापकता है। उनकी खँजरी, एक पारंपरिक वाद्य यंत्र, बहुत ही अद्वितीय थी और उनके द्वारा उसे बजाया जाना अपने आपमें अनूठा था। हालांकि वह ब्रम्हचारी थे; परंतु उनका पूरा जीवन जाति, वर्ग, पंथ या धर्म से परे समाज की सेवा के लिए समर्पित था। वह पूर्णरूप से आध्यात्मिक जीवन में लीन थे। उनके द्वारा सूक्ष्मता से मनुष्यके स्वभाव का अवलोकन किया जाता था, ताकि उन्हें उत्थानके राह पर प्रवृत्त किया जा सके। उन्हे राष्ट्र संतका किताब भारत के राषट्रपती राजेंद्र प्रसाद दिया था साल 1955
तुकडोजी महाराज एक महान व स्वयंसिद्ध संत थे। उनका प्रारंभिक जीवन आध्यात्मिक और योगाभ्यास जैसे साधनामार्गोंसे पूर्ण था। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवनका अधिकांश समय रामटेक, सालबर्डी, रामदिघी और गोंदोडाके बीहड़ जंगलोंमें बिताया था।
यद्यपि उन्होंने औपचारिक रूपसे बहुत ज्यादा शिक्षा नहीं ग्रहणकी थी, किंतु उनकी आध्यात्मिक भावना और उसकी संभाव्यता बहुत ही उच्च स्तरकी थी। उनके भक्ति गीतोंमें भक्ति और नैतिक मूल्योंकी बहुत ही ज्यादा व्यापकता है। उनकी खँजड़ी, एक पारंपरिक वाद्य यंत्र, बहुत ही अद्वितीय थी और उनकेद्वारा उसे बजाया जाना अपने आपमें अनूठा था। हालांकि वह अविवाहित थे; परंतु उनका पूरा जीवन जाति, वर्ग, पंथ या धर्मसे परे समाजकी सेवाके लिए समर्पित था। वह पूर्णरूपसे आध्यात्मिक जीवनमें लीन थे। उनकेद्वारा सूक्ष्मतासे मनुष्यके स्वभावका अवलोकन किया जाता था, ताकि उन्हें उत्थानके राहपर प्रवृत्त किया जा सके।
उनके पास स्वानुभूत दृष्टि थी और उन्होंने अपने पूरे जीवनमें हृदय की पवित्रता और किसीके लिए भी मनमें द्वेषभाव न रखनेका पाठ पढ़ाया। अपने प्रारंभिक जीवनमें वह प्रायः भक्तिपूर्ण गीतोंको गाते थे, हालांकि बीतते समयके साथ-साथ उन्होंने समाजको यह बतलाया कि भगवान केवल मन्दिर, चर्च या मस्जिदमें नहीं रहता; अपितु वह तो हर जगह व्याप्त है। उसकी (भगवानकी) शक्ति असीम है। उन्होंने अपने अनुयायियोंको आत्मबोधके पथपर चलनेकी सलाह दी। उन्होंने दृढ़तापूर्वक पुरोहिताईका विरोध किया और आंतरिक मूल्यों एवं सार्वभौमिक सत्यका प्रसार किया।[1]
तुकडोजी ने सामूहिक प्रार्थना पर बल दिया जिसमें जाति-धर्मसे परे सभी लोग भाग ले सकें। संपूर्ण विश्वमें उनकी प्रार्थना पद्धति वस्तुतः अद्वितीय और अतुलनीय थी। उनका दावा था कि उनकी सामूहिक प्रार्थना पद्धति समाजको आपसमें भाईचारे और प्रेमकी शृंखला में बाँध सकने में सक्षम है।
परम पूजनीय राष्ट्रसंत तुकडोजीका जन्म ३० अप्रैल १९०९ को महाराष्ट्र राज्य (भारत) के अमरावती जनपदके यावली नामक एक दूरदराजके गाँवके एक बहुत ही गरीब परिवारमें हुआ था। इन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा यावली और वरखेडमें पूरी की। अपने प्रारंभिक जीवनमें ही उनका संपर्क बहुत सारे महान संतोंके साथ हो गया था। समर्थ आडकोजी महाराजने उनके ऊपर अपने स्नेहकी वर्षाकी और उन्हें योग शक्तियोंसे विभूषित किया। संत तुकडोजी महाराजके कार्य
१९३५ में तुकडोजीने सालबर्डीकी पहाड़ियोंपर महारूद्र यज्ञका आयोजन किया। जिसमें तीन लाखसे अधिक लोगोंने भाग लिया। इस यज्ञके बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और वे पूरे मध्य प्रदेशमें सम्माननीय हो गए। १९३६ में महात्मा गाँधीद्वारा सेवाग्राम आश्रममें उन्हें निमंत्रित किया गया, जहाँ वह लगभग एक महीने रहे। उसके बाद तुकडोजीने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यक्रमोंद्वारा समाजमें जन जागृतिका काम प्रारंभ कर दिया, जो १९४२ के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्रामके रूपमें परिलक्षित हुआ। राष्ट्रसंत तुकडोजीके ही आह्वानका परिणाम था – आष्टि-चिमुर स्वतंत्रता संग्राम। इसके चलते अंग्रेजोंद्वारा उन्हें चंद्रपुरमें गिरफ्तार कर नागपुर और फिर रायपुरके जेलमें १०० दिनों (२८ अगस्त से ०२ दिसंबर १९४२ तक) के लिए डाल दिया गया।
कारागृह (जेल) से छूटनेके बाद तुकडोजीने सामाजिक सुधार आंदोलन चलाकर अंधविश्वास, अस्पृश्यता, मिथ्या धर्म, गोवध एवं अन्य सामाजिक बुराइयोंके खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने नागपुरसे १२० किमी दूर मोझरी नामक गाँवमें गुरूकुंज आश्रम की स्थापना की, जहाँ उनके अनुयायियोंकी सक्रिय सहभागितासे संरचनात्मक कार्यक्रमोंको चलाया जाता था। आश्रमके प्रवेश द्वारपर ही उनके सिद्धांत इस प्रकार अंकित हैं – “इस मन्दिरका द्वार सबके लिए खुला है”, “हर धर्म और पंथके व्यक्तिका यहाँ स्वागत है”, “देश और विदेशके हर व्यक्तिका यहाँ स्वागत है” स्वतंत्रता प्राप्तिके बाद तुकडोजीने अपना पूरा ध्यान ग्रामीण पुर्ननिर्माण कार्योंकी ओर लगाया और रचनात्मक काम करने वालोंके लिए कई प्रकारके शिविरोंको आयोजित किया। उनके क्रियाकलाप अत्यधिक प्रभावकारी और राष्ट्रीय हित से जुड़े हुए थे। तत्कालीन भारतके राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसादने गुरूकुंज आश्रके एक विशाल समारोह में उनके ऊपर अपना स्नेह समर्पित करते हुए आदरके साथ “राष्ट्रसंत” के सम्मानसे प्रतिष्ठित किया। उस समयसे उन्हें लोग अत्यधिक आदरके साथ “राष्ट्रसंत” के उपनामसे बुलाने लगे।
अपने अनुभवों और अंतदृष्टिके आधारपर राष्ट्रसंतने “ग्रामगीता” की रचना की, जिसमें उन्होंने वर्तमानकालिक स्थितियोंका निरूपण करते हुए ग्रामीण भारतके विकासके लिए एक सर्वथा नूतन विचारका प्रतिपादन किया। १९५५ में उन्हें जापान में होने वाले विश्व धर्म संसद और विश्व शांति सम्मेलनके लिए निमंत्रित किया गया। राष्ट्रसंत तुकडोजीद्वारा खँजड़ी के स्वर के साथ दोनों ही सम्मेलनों का उद्घाटन सम्मेलन कक्ष में उपस्थित हजारों श्रोताओं की अत्यधिक प्रशंसा के साथ हुआ।
१९५६ में राष्ट्रसंत तुकडोजी द्वारा भारत साधु समाज का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न संपद्रायों, पंथों और धार्मिक संस्थाओंके प्रमुखोंकी सक्रिय सहभागिता देखनेको मिली। यह स्वतंत्र भारतका पहला संत संगठन था, और इसके प्रथम अध्यक्ष तुकडोजी महाराज थे। १९५६ से १९६० की वर्षावधिके दौरान उन्हें विभिन्न सम्मेलनोंको संबोधित या संचालित करनेके लिए निमंत्रित किया गया। उनमेंसे कुछ सम्मेलन हैं – भारत सेवक समाज सम्मेलन, हरिजन सम्मेलन, विदर्भ साक्षरता सम्मेलन, अखिल भारतीय वेदान्त सम्मेलन, आयुर्वेद सम्मेलन इत्यादि। वह विश्व हिंदू परिषदके संस्थापक उपाध्यक्षोंमेंसे एक थे। उनकेद्वारा राष्ट्रीय विषयके कई सारे मोर्चों जैसे- बंगालका भीषण अकाल (१९४५), चीनसे युद्ध (१९६२) और पाकिस्तान आक्रमण (१९६५) पर अपनी भूमिकाका निर्वाह तत्परतासे किया गया। कोयना भूकंप त्रासदी (१९६२) के समय राष्ट्रसंतने प्रभावित लोगोंकी त्वरित सहायताके लिए अपना मिशन चलाया और बहुत सारे संरचनात्मक राहत कार्योंको आयोजित किया।
उनका साहित्यिक योगदान बहुत अधिक और उच्च श्रेणी का है। उन्होंने हिंदी और मराठी दोनों ही भाषाओंमें तीन हजार भजन, दो हजार अभंग, पाँच हजार ओवीसके अलावा धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षापर छह सौ से अधिक लेख लिखे। राष्ट्रसंत तुकडोजी एक स्वयं द्वारा जगमगाता तारा और एक गतिशील नेता थे। वह कई सारी कलाओं और कौशलोंके ज्ञाता थे। आध्यात्मिक क्षेत्रमें वह एक महान योगीके रूपमें जाने जाते थे, तो सांस्कृतिक क्षेत्रमें उनकी प्रसिद्धि एक ओजस्वी वक्ता और संगीतज्ञके रूपमें थी। उनका व्यक्तित्व अतुलनीय और अद्वितीय था। उनके व्यक्तित्व के बहुत सारे पहलू थे एवं उनकी शिक्षाएं आने वाली पीढ़ियोंके नित्य एवं उपयोगी हैं। अंतिम समय
अंतिम दिनोंमें राष्ट्रसंत तुकोडजीको कैंसर हो गया था। उस घातक बीमारीका इलाज करनेके हरसंभव उपाय किये गये;परंतु कोई प्रयास सफल न हुआ। अंतमें, ११ अक्टूबर १९६८ को सायं ४.५८ बजे गुरूकुंज आश्रममें राष्ट्रसंत अपने नश्वर शरीरका त्यागकर ब्रह्मलीन हो गये। उनकी महासमाधि गुरूकुंज आश्रमके ठीक सामने स्थित है, जो सभी लोगोंको कर्तव्य और निस्वार्थ भक्तिके मार्गपर चलनेकी प्रेरणा प्रदान करती है। कल्याणकारी चहुंमुखी विकासके लिए परम पूजनीय राष्ट्रसंत तुकोडजी महाराजकी शिक्षाका अनुपालन कर हमें अपने जीवन और चरित्रका निर्माण करना चाहिए।