मेडागास्कर विधि धान उत्पादन की एक तकनीक है जिसके द्वारा पानी के बहुत कम प्रयोग से भी धान का बहुत अच्छा उत्पादन सम्भव होता है। इसे सघन धान प्रनाली (System of Rice Intensification-SRI या श्री पद्धति) के नाम से भी जाना जाता है। जहां पारंपरिक तकनीक में धान के पौधों को पानी से लबालब भरे खेतों में उगाया जाता है, वहीं मेडागास्कर तकनीक में पौधों की जड़ों में नमी बरकरार रखना ही पर्याप्त होता है, लेकिन सिंचाई के पुख्ता इंतजाम जरूरी हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर फसल की सिंचाई की जा सके। सामान्यत: जमीन पर दरारें उभरने पर ही दोबारा सिंचाई करनी होती है। इस तकनीक से धान की खेती में जहां भूमि, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है, वहीं उत्पादन 300 प्रतिशत तक ज्यादा मिलता है। इस पद्धति में प्रचलित किस्मों का ही उपयोग कर उत्पादकता बढाई जा सकती है।
अफ्रीकी देश मेडागास्कर में 1983 में फादर हेनरी डी लाउलेनी ने इस तकनीक का आविष्कार किया था।
इस तरीके में, पौधों को जल्दी सावधानीपूर्वक रोपा जाता है (परंपरागत खेती में २१ दिन के पौधों के मुकाबले ८ से १२ दिन के पौधों को)। इन्हें बगैर कीचड़युक्त परिस्थिति में रोपा जाता है। पौधों की रोपाई के बीच पर्याप्त जगह छोड़ी जाती है, यह जगह २०, २५, ३० या ५० सेमी तक हो सकती है। खेत को धान में बाली आने तक बारी-बारी से नम एवं सूखा रखा जाता है एवं पानी से नही भरा जाता (पौधों में धान के बढ़ने के दौर में खेत में 1 से ३ सेमी पानी) है। पौधों की कटाई करने से २५ दिन पहले खेत से पानी निकाल दिया जाता है एवं जैविक खाद जितना हो सके उतना प्रयोग किया जाता है। धान की रोपाई के १० दिन बाद मशीन से निराई (खरपतवार निकालना) शुरू करनी चाहिए; कम से कम दो बार निराई आवश्यक है; ज्यादा हो सके तो बेहतर है। माना जाता है कि यह जड़ वाले हिस्से में बेहतर बढ़ोतरी की परिस्थिति प्रदान करता है, लागत में कमी करता है, मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार लाता है एवं पानी के उपयोग को बेहतर बनाता है।
इस विधि को फ्रांसीसी पादरी फादर हेनरी डे लाउलानी द्वारा १९८० के दशक की शुरूआत में मेडागासकर में विकसित किया गया। वस्तुत: एसआरआई का विकास दो दशकों में हुआ है, जिसमें १५ वर्षों तक मेडागास्कर में जांच, प्रयोग एवं नियंत्रण एवं अगले छः वर्षों में तेजी से २१ देशों में प्रसार हुआ। अपहॉफ एवं उनके संगठन ने इसे २१वीं सदी में किसानों की जरूरतों का जवाब बताते हुए १९९७ से अन्य देशों में प्रसार शुरू किया।
भारत में व्यवहारिक तौर पर प्रयोग २००२-०३ में प्रारम्भ हुआ एवं इसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं गुजरात में "श्री पद्धति" को व्यवहार में लाया गया।