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नोआखाली नरसंहार | |
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स्थान | नोआखली क्षेत्र, बंगाल, भारत (विभाजन से पूर्व) |
लक्ष्य | बंगाली हिन्दू |
तिथि | अक्टूबर-नवम्बर 1946 |
मृत्यु | 285[1], दुसरी सूत्रानुसार
5000[2] |
नोआखली नरसंहार ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतन्त्रता से एक वर्ष पूर्व अक्टूबर-नवम्बर 1946 में बंगाल के चाटगाँव डिवीजन (अब बांग्लादेश में) के नोआखली जनपद में मुसलमानों द्वारा किया गया भयंकर नरसंहार, सामूहिक बलात्कार, अपहरण, हिन्दुओं का बलपूर्वक पधर्मान्तरण और हिन्दू सम्पत्तियों की लूट और आगजनी की एक शृंखला थी।
इससे नोआखली जिले के रामगंज, बेगमगंज, रायपुर, लक्ष्मीपुर, छगलनैया और संदीप थाना क्षेत्र और टिप्परा जिले के हाजीगंज, फरीदगंज, चाँदपुर, लक्षम और चौड्डाग्राम थाना क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्रों, कुल क्षेत्रफल 2,000 वर्ग मील से अधिक प्रभावित हुए।[3]
मुसलमान जहां भी जाते है वहीं पर दंगे फसाद करते है दूसरे धर्म के लोगों के साथ। फ्रांस में देख लो, ब्रिटेन में देख लो। ये लोग वहीं ताबे आते है जहां राजशाही हो या कम्यूनिस्ट देेश। जैसे नार्थ कोरिया, चीन आदि। आपस में लड़ना इनके लिए कोई नई बात नहीं है। जहां इनकी आबादी 30-40 प्रतिशत हो जाती है वहीं पर ये उत्पात मचाते है। इनकी कुरान के अनुसार किसी की जमीन पर कब्जा नहीं करना चाहिए परन्तु ये हमेशा सड़क किनारे मजारें खड़े कर देते है। कोई भी मुस्लिम कुरान के अनुसार तो चलता ही नहीं है।
नोआखली दंगों अचानक शुरू नहीं हुआ। यहां के लोगों ने कलकत्ता दंगों का अवसर लिया। उस समय की घटनाओं को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि नोआखाली क्षेत्र में हिंदू जमींदारों का प्रभुत्व था। शक्ति का दुर्प्रयोग, दुर्व्यवहार होता था। मुसलमान आम किसान से दूरी पर थे। और पीर हुसैनी ने उस मौके का फायदा उठाया। वह कृषक प्रजा पार्टी के नेता थे। उन्हों ने क्षेत्र में एक पीर के रूप में मश्हूर था। वह कृषक प्रजा पार्टी से वोट करते थे। उन्होंने 1937 में प्रांतीय परिषद भी जीती। हालाँकि, 1946 के दंगों के बाद, वह मुस्लिम लीग से हार गए। अनुयायियों के एक बड़े समूह के साथ पीर साहब की स्थिति जमींदारों के विरुद्ध थी। दूसरी ओर, जमींदार चित्तरंजन चौधरी मुसलमानों के उदय को स्वीकार नहीं कर सके। मनोवैज्ञानिक संघर्ष बढ़ता जा रहा है। सामाजिक दूरी बनाई जाती है। पीर साहब ने कलकत्ता दंगों का पूरा फायदा उठाया।पहला हमला लक्षीपुर रामगंज करपारा के जमींदार राजेंद्र लाल चौधरी के घर पर हुआ था। इससे पहले इलाके में अफवाह फैलाई गई थी। भारत सेवाश्रम संघ के त्र्यंबकानंद नाम के एक पुजारी जमींदार बाड़ी में पूजा करने आए थे। संत त्र्यंबकानंद के चलने में एक बड़ा पुजारी हुवा करता था। उस भावना के इर्द-गिर्द फैली अफवाहें इस बार जमींदार की पूजा में भेड़ की जगह मुस्लिम बालकों की बलि दी जाएगी। पूजास्थल को मुसलमानों के खून से रंगा जाएगा। इसी वजह से भारत सेवाश्रम संघ के साधु आए हैं. स्थानीय संतों को हटा दिया गया है। अफवाह से पूरे इलाके में सनसनी फैल गई। स्थानीय पीर सरवर हुसैनी ने जमींदार राजेंद्र लाल चौधरी को बैठक का प्रस्ताव भेजा। वह हर चीज के लिए स्पष्टीकरण चाहता है। जमींदार ने बात करने में एंकार किया। पीर साहब चुप नहीं बैठे थे।उन्हों ने एक रैली की और जमींदार के खिलाफ कार्रवाई की घोषणा की। एक मिथक है - पीर हुसैनी ने भी जमींदार का सिर काटने का बयान दिया था। खैर, हंगामा शुरू होता है; हिंदू जमींदारों के खिलाफ अम मुस्लिमों की संघर्ष।[4]
कई रिपोर्टों के माध्यम से यह बताया जाता है कि 3,50,000 से अधिक हिन्दुओं को इस्लाम कबूलने के लिये मजबूर किया गया था।[5] जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार करने से मना किया, उन्हें मार दिया गया था। कई हजार लोग अपने घर और गाँवों को छोड़ कर बांग्लादेश से सटे भारतीय राज्यों में स्वयं व स्वयं के परिवार जनों के प्राणों की रक्षा के लिये भाग गये थे तथा तब से वहीं निवास कर रहे हैं।
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