राजनयिक क्षेत्र में ऐसे कथनों का प्रयोग किया जाता है जिनके फलस्वरूप कटु वातावरण में सरसता आ सके और उत्तेजनात्मक बात भी नम्रता का रूप धारण कर सके। ऐसे कथनों को न्यूनोक्ति (न्यून + उक्ति ; understatement) कहते हैं।
इस प्रकार के न्यूनोक्तियों की सूची पर्याप्त लम्बी है। केवल उदाहरण के लिए कुछ का उल्लेख किया जा सकता है।
न्यूनोक्तियाँ राजकीय आचरण की दृष्टि से उल्लेखनीय स्थान रखतीं हैं। ये कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी शिष्टतापूर्ण एवं सौम्य वातावरण बनाते हैं तथा जन-साधारण में अनावश्यक उत्तेजना व्याप्त नहीं होने देते। शिष्ट शब्दों में शान्तिपूर्वक एक राजनयज्ञ अपनी सरकार के अमैत्रीपूर्ण विचारों का प्रदर्शन कर देता है। ये न्यूनोक्तियाँ वातावरण को उत्तेजनापूर्ण होने से रोकतीं हैं। यदि इन शब्दों पर शिष्टता का शहद न लगाया जाये तो ये इतने कटु हो जायेंगे कि अन्य राज्य इनको निगल भी न सके और शीघ्र युद्ध की घोषणा कर दे। प्रो॰ निकल्सन के मतानुसार इस परम्परागत संचार व्यवस्था का लाभ यह है कि इसके द्वारा जो नरम वातावरण तैयार होता है उसमें एक राज्य बिना उत्तेजना के भी गम्भीर चेतावनी दे देता है।
न्यूनोक्तियाँ की हानि यह है कि वास्तव से संकटपूर्ण स्थितियों में भी इस प्रकार की उक्तियां सर्वसाधारण को प्रवचना में डाल देती हैं। जनता यह समझने लगती है कि देश के सामने कोई गम्भीर संकट नहीं है तथा दूसरे राज्यों के उनके राज्य के सम्बन्ध स्नेहपूर्ण और मैत्रीपूर्ण है। जनतन्त्र में जनता की यह असावधानी खतरनाक बन जाती है। जिस प्रकार किसी बात का अनुचित प्रयोग संकट उत्पन्न कर देता है उसी प्रकार किसी बड़े संकट के समय कथन की नम्रता जनता को आवश्यकता से अधिक नम्र और निश्चित बना देती है। जनता यह नहीं जान पाती कि उसके राज्य के सम्बन्ध में किस देश के साथ कब बिगड़ रहे हैं और कब सुधर रहे हैं। शब्दों को तोड़-मरोड़ कर कहने से उनके अर्थ के बारे में भी दुविधा उत्पन्न हो जाती है। कहा कुछ जाता है और वास्तव में उसका अर्थ कुछ और समझ लिया जाता है। असावधानी के कारण अनेक अर्थों का अनर्थ हो जाता है। प्रो॰ निकल्सन ने इस सम्बन्ध में एक रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है। इंग्लैण्ड के एक महावाणिज्य दूत ने पर राष्ट्र विभाग को यह सूचना भेजी कि ‘मुझे बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि मेरे अधीनस्थ एक उप-वाणिज्य दूत अपने स्वास्थ्य की उतनी चिन्ता नहीं करता जितनी करने के लिये डाक्टर उसे सलाह देते हैं'। वास्तव में सम्बन्धित उप-वाणिज्य दूत सन्निपात अवस्था की अन्तिम सीमा पर था।
राजनयज्ञों की भाषा में न्यूनोक्तियों का आधिक्य होने के कारण ही इसे छल और धोखे का कार्य माना जाने लगा। जिसे हम आम व्यवहार में असत्य भाषण कहते हैं। उसे राजनयिक व्यवहार में शिष्टता और सौजन्यता कहा जाता है। लोकप्रिय कहावत के अनुसार एक राजनयज्ञ सम्भावित कार्य के लिए कहता है 'अवश्य हो जायेगा' और असम्भव के कार्य के लिये कहता है 'हो जायेगा'; किन्तु वह 'कभी नहीं होगा', शब्दों का प्रयोग नहीं करता, यदि करता है तो वह राजनयज्ञ नहीं है। यह शिष्टता और संक्षिप्त व्यवहार आजकल अपना महत्व खोते जा रहे हैं।
जनता द्वारा विदेश नीति के संचालन में अधिकाधिक रुचि लेने के कारण यह आवश्यक हो गया है कि राजनयज्ञों के शब्दों और कार्यों में सम्बन्ध रहे। जन साधारण को यह विश्वास होना चाहिये कि उनके विदेश मन्त्री या राजनयज्ञ जो कुछ वास्तव में कह रहे हैं वही उनका अर्थ है तथा वही वे वास्तव में करेंगे। आजकल शीत युद्ध की स्थिति में प्रचार कार्यों का महत्व बढ़ने के कारण, प्रत्येक राज्य विदेशी सरकार के प्रति आम रूप से अशिष्ट भाषा का प्रयोग करता है। छोटी सी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है। बार-बार एक देश के कार्यों को अमैत्रीपूर्ण घोषित करते हुए भी युद्ध की घोषणा नहीं की जाती। सोवियत संघ ने नाटो, सिएटो और सैटो आदि के विरुद्ध यह बात कही थी कि इनकी सदस्यता को वह अमैत्रीपूर्ण कार्य मानेगा। इतने पर भी उसने किसी राज्य के प्रति युद्ध की घोषणा नहीं की वरन् इसके विपरीत पाकिस्तान आदि राज्यों को हथियार भी भेजे। स्पष्ट है कि आजकल न्यूनोक्ति की प्रथा को छोड़ा जा रहा है और अतिशयोक्ति पूर्ण कथनों की प्रकृति बढ़ती जा रही है। इस परिवर्तन के औचित्य के सम्बन्ध में विचारक एक मत नहीं हैं। न्यूनोक्तियों की परम्परा के पक्षधरों का कहना है कि अशिष्ट, कटु एवं उत्तेजनापूर्ण भाषा का प्रयोग यथासम्भव रोका जाना चाहिये तथा इसके स्थान पर समाचारपत्रों एवं अन्य संचार के साधनों द्वारा जनता को संक्षिप्त कथनों के अर्थ से परिचित कराया जाये ताकि इसकी बुराईयों को दूर किया जा सके।