पशुप्रजनन (Animal breeding) के व्यापक अर्थ के अंतर्गत पशुओं के उत्पादन, उनके पालनपोषण तथा देखभाल संबंधी सभी प्रकार के कार्य आते हैं, किंतु सीमित अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्राय: पशुओं की आनुवंशिकता (heredity) में ऐसे सुधार करने से है जिससे मनुष्य की आवश्यकता तथा इच्छानुकूल उन्नत प्रकार के पशु उपलब्ध हो सकें।
पशुओं का सुधार दो प्रकार से किया जा सकता है :
प्रथम उनके वातावरण में सुधार करने से तथा दूसरा उनकी आनुवंशिकता में सुधार करने से। इन दोनों में से किसी एक में ही सुधार करने से यथोचित प्रगति नहीं हो सकती।
वातावरण में सुधार करने से पशुसंख्या (population) में परिवर्तन प्राय: बहुत शीघ्र होता है, किंतु वह परिवर्तन स्थायी नहीं होता और तभी तक रहता है जब तक नई परिस्थिति बनी रहती है। किंतु किसी पशुसमुदाय की आनुवंशकिता में सुधार द्वारा परिवर्तन प्राय: मंद गति से होता है, किंतु वह स्थायी होता है।
प्रारंभ में पशुप्रजनक (animal breeders) पशुओं के ऐसे समूह को, जिन्हें वे अन्य पशुओं से श्रेष्ठ समझते थे, अलग कर लेते थे। फिर उनमें जो उत्तम होते थे उनका चयन कर लेते थे। इस प्रकार के चयन से समूह में कुछ ऐसे भी पशु निकल आते थे जिनमें पशुप्रजनन के मनोवांछित गुण विद्यमान होते थे। अब उनमें से जो जानवर प्रजनक (पालक) को पसंद आते थे उन्हें दूसरी पीढ़ी के जनक (parents) के रूप में चुन लेते थे और यही विधि पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाई जाती थी। पशुपालक इस भाँति अवांछित तत्वों को निकालता जाता और वांछित गुणोंवाले पशुओं की वृद्धि पर जोर देता जाता था।
किसी भी पशुप्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत तीन बातें आवश्यक होती हैं :
किसी भी प्रजनन-कार्यक्रम के अंतर्गत पहला कदम यह निर्धारित करना होता है कि प्रजनक का लक्ष्य क्या है क्या वह बाजार में बेचने के लिए पशुओं के उत्पादन में वृद्धि करना चाहता है, अथवा वानस्पतिक साधनों को पशूत्पादित वस्तुओं में बदलना चाहता है, अथवा किसी विशेष जलवायु के अनुकूल पशु तैयार करना चाहता है इत्यादि। एक ही फार्म में दो विभिन्न उद्देश्यों के लिए एक ही जाति के दो विभिन्न प्रकार के पशुओं का पालन लाभदायक हो सकता है, जैसे कुछ घोड़ों का गाड़ी खींचने के लिए तो कुछ का सवारी के लिए, कुछ पशुओं का पालन मांस उत्पादन के लिए तो कुछ का दुग्ध उत्पादन के लिए। ऐसा भी हो सकता है कि एक ही प्रकार के पशु में विभिन्न गुणों का सम्मिश्रण हो, जिससे एक ही पशु से दो विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
प्रत्येक पशु के गुणों का आंकना प्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत दूसरा कदम है।
वरण प्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत तीसरा कदम है, जिसमें इस बात का आगणन (estimate) किया जाता है कि उपलब्ध जानवरों में से प्रत्येक में किस हद तक वांछित गुणों को उत्पन्न करने तथा उनके उपयोग करने, या त्यागने, की आनुवंशिकता विद्यमान है। इन गुणों के अनुसार पशुओं को अलग करना वरण या चयन कहलाता है। वरण तीन प्रकार का होता हैं :
जानवरों को पूर्णत: उनके व्यक्तिगत गुणदोषों के आधार पर प्रजनन के लिए चुनना समूह वरण, पूर्वजों और सगोत्र बंधुओं के गुणदोषों के आधार पर उनका चयन वंशावली (Pedigree) अथवा कुल वरण (Family selection) तथा संतति के गुणदोष के आधार पर किसी जानवर के प्रजननात्मक गुणों का मूल्यांकन करना संतति परीक्षण (Progeny test) कहलाता है। यदि इन तीनों प्रकार के वरणों की आपस में तुलना करें, तो इनमें से प्रत्येक के अपने अपने गुणदोष हैं।
जब कुछ चुरे हुए लक्षण बहुत ही वंशानुगत होते हैं, तब औसत संतान में माँ वाप की भाँति ही ये लक्षण प्रकट होते हैं, किंतु लक्षण जब न्यून वंशानुगत होते है ता औसत संतान में उस कुल के, जिससे माँ बाप चुने गए थे, अल्प मात्रा में गुण प्रकट होंगे। समूह वरण द्वारा उन्नति वरण की तीव्रता और जनक के कुल के औसत ह्रास पर निर्भर करती है। समूह वरण द्वारा प्राणी में प्रथम अधिक स्पष्ट परिवर्तन होता है, किंतु बाद में गति धीमी पड़ जाती है और प्रभाव काफी नहीं होता।
"समूह वरण" द्वारा जितना लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है उतना परिवार वरण द्वारा नहीं, किंतु इससे दूसरी पीढ़ी की संतान में जनक की औसत विलक्षणता से, नीचे ह्रास नहीं होता। परिवार वरण विशेषत: उन गुणों के लिए जो थोड़ी मात्रा में आनुवंशिक हैं, अथवा जो व्यक्तिगत जानवरों में अलग-अलग निर्धारित नहीं किए जा सकते, अथवा जो कभी मादा में या कभी नर में पाए जाते हैं, अथवा दीर्घजीविता के निर्धारण के लिए जोकि जब तक कोई प्राणी विशेष प्रौढ़ या वृद्ध नहीं होता, स्पष्ट नहीं होती उपयोगी होता है।
सही परिवार वरण के लिए
(1) परिवार की संख्या बड़ी हो
(2) परिवार के सदस्यों में बिलकुल निकट का संबध हो और
(3) तुलना किए जानेवाले परिवारों में से प्रत्येक परिवार एक जैसी स्थिति तथा वातावरण में पले हों।
घोड़ों,बकरी ,भेड़ों तथा अन्य मवेशियों में, जिनमें एक ही माँ बाप से उत्पन्न संतति बहुत कम होती हैं, परिवार वरण अधिक महत्व का नहीं होता।
पशु जब बच्चा ही रहता है तभी उसके गुणों को देखना होता है और तभी संतति वरण लाभदायक होता है। किंतु बच्चे निम्न कोटि की आनुवंशिकता के होते हैं, अथवा इनमें किसी एक ही लिंग की विशेषता होती है। सही सही संतति परीक्षण के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं :
(1) इसमें सभी संतानें, या कम से कम जिन चुने गए नमूने भी, समाविष्ट किए जायें,
(2) दूसरे, जनक से जिन गुणों का संतानों ने प्राप्त किया हो उनको बाद कर दिया जाय, या उनका उचित यथार्थता के साथ मूल्यांकन हो और
(3) जिनकी तुलना की जा रही हो, वे सभी संतति एक ही प्रकार के वातावरण में पली हों।
विस्तृत लेख के लिये देखें - कृत्रिम वीर्यसेचन
नर का शुक्र लेकर बिना प्राकृतिक संभोग के मादा की योनि या गर्भाशय में स्थापित करने का कार्य बहुत वर्षों से प्रयोगशालाओं में, विशेषत: अश्वप्रजनन में, नपुंसकता का सामना करने के लिए होता रहा है। किंतु इसका विस्तृत प्रयोग अन्य फार्म जानवरों पर पहले पहल रूसी कार्यकर्ताओं द्वारा 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में (1920 ई) विकसित किया गया, अन्य देशों में भी यह विशेषत: दुग्धशालाओं के मवेशियों के लिए, अपनाया गया।
कृत्रिम वीर्यसेचन के लिए नर को किसी कठपुतली (dummy) मादा के साथ मैथुन कराकर, या नर के लिंग का घर्षण कर, वीर्य को स्खलित कराकर इकट्ठा कर लिया जाता है। अब वीर्य को उचित विलयन और अंडे के पीतक (yolk) के साथ मिलाकर तनूकृत कर लिया जाता है, जिससे केवल एक बार के ही स्खलित वीर्य से अनेक मादाओं को गर्भित कराया जा सके। इस तनूकृत वीर्य को निम्न ताप पर रखकर अनेक दिनों तक गर्भाशय के योग्य रखा जा सकता है। कृत्रिम गर्भाशय से उत्पन्न संतान प्राकृतिक मैथुन द्वारा उत्पन्न संतान की ही भाँति होती है।
कृत्रिम वीर्यसेचन से प्रत्येक पशुपालन को साँड़ रखने की आवश्यकता नहीं होती और इस प्रकार वह साँड़ रखने की कठिनाई और खर्चे से बच जाता है। प्राकृतिक ढंग से गर्भाधान कराने की अपेक्षा कृत्रिम वीर्यसेचन कराने का व्यय अधिक या कम पड़ सकता है। कृत्रिम वीर्यसेचन कराने का कार्य एक ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा, जो कि प्रजनन की त्रुटियों को पहचानता और उनका उपचार करता हो, किया जाता है। इससे ढोर सा प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य अच्छा रहता है। कृत्रिम वीर्यसेचन का व्यय कम पड़े, इसके लिए पशुपालकों का कृत्रिम वीर्यसेचन संस्थाओं के साथ सहयोग करना आवश्यक है।
माँ-बाप बननेवाले विशेष नरों और मादाओं का वरण कर लेने के पश्चात् दूसरा कदम यह निश्चित करना होता है कि किस मादा के साथ किस नर का संगम कराया जाय। यदि पशुपालक की कोई निश्चित नीति नहीं है, तो जनक और जननी बननेवाले पूरे समूह के अंतर्गत ही किसी मादा के साथ किसी भी नर का संगम कराया जाता है। यदि जोड़े का चुनाव उनके परस्पर संबंध के आधार पर होता है तो सगमंपद्धति अंत:प्रजनन (inbreeding) से लेकर जनक के पूरे समूह के संभावित वहि:प्रजनन (outbreeding) तक हो सकती है। संगम की ये पद्धतियाँ मिलाई जा सकती हैं, या उनमें हेर फेर किया जा सकता है और चयन के विभिन्न तरीकों के साथ व्यवहार में लाया जा सकता है। इस प्रकार अनेक प्रकार की प्रजनन योजनाओं को संभव किय जा सकता है।
संगम की पद्धतियाँ स्वयं किसी पितृ जीन (gene) को बहुश: घटमान या अधिक विरल नहीं बनाती, किंतु ये पितृ जीन के विभिन्न संयोजनों के अनुपात में अवश्य ही परिवर्तन ला देती हैं और जनसंख्या की परिवर्तिता (variability) को बदल दे सकती है, जिससे चयन यदि संगम की अनियमित विधि से होता है, तो अधिक प्रभावकारी हो सकता है।
निकट के संबंधियों में संगम अंत:प्रजनन कहलाता है। इस पारिभाषिक शब्द का प्रयोग उनके लिए किया जाता है जिनमें युग्म के नर और नारी का परस्पर संबध कम से कम चचेरे या मौसेरे का हो। समीपवर्ती अंत:प्रजनन का परिणाम स्पष्ट और शीघ्रता से होता है। मध्यम अंत:प्रजनन अनेक पीढ़ियों तक किया जाए तो प्रभावकारी हो सकता है।
अंत:प्रजनन का प्रमुख प्रभाव समयुग्मजता (homozygosis, अर्थात् प्रत्येक संतान में एक ही गुण को पहुँचाने की योग्यता) की वृद्धि करना और नस्ल को स्पष्ट और असंबधित परिवारों में विभक्त करना होता है। अंत:प्रजनन ज्यों ज्यों आगे बढ़ता चलता है प्रत्येक परिवार अपने ही अंतर्गत अधिक समयुग्मक और अन्य परिवारों से भिन्न हो जाता है। यह परिवारों के बीच प्रभावकारी चयन की संभावना की वृद्धि करता है। समयुग्मजता में वृद्धि अधिक व्यष्टियों में उत्तरोत्तर गुणों को उत्पन्न करती है। चूँकि प्रभावी की अपेक्षा अप्रभावी गुण प्राय: बहुत कम पसंद किया जाता है, इससे व्यष्टि के गुणों में प्राय: कुछ औसत ह्रास पाया जाता है, क्योंकि यह अवांछित अप्रभावी गुणों को प्रकाश में लाता है।
जब अंत: किंतु असंबधित व्यष्टियों का संकरण कराया जाता है तब मूल पशुधन की अपेक्षा संतान में प्राय: अधिक जीवनशक्ति प्रदर्शित होती है। इस प्रकार अंत: प्रजनन से साधारणत: तत्काल घाटा होता है, किंतु कालांतर में चुने गए अंत: प्रजात वंशक्रम (inbredlines) का परस्पर अंतरासंगम (intercross) कराया जाता है, तब लाभ अवश्य होता है।
किसी स्पीशीज़ की किन्हीं विशेष त्रुटियों को दूर करने या वर्णसंकरता के ओज और किसी वांछित गुणों का समावेश कराने के लिए ऐसे जोड़े चुने जाते हैं जिनमें यथासंभव आपस में किसी प्रकार का संबध न रहा हो। विभिन्न नस्लों, या एक ही स्पीशीज की विभिन्न जातियों, की वर्णसंकरता से उत्पन्न संतान प्राय: असाधारण तीव्रता से वृद्धि और उच्च कोटि की जीवनशक्ति का प्रदर्शन करती है। जब इस प्रथम पीढ़ी के वर्णसंकरों का परस्पर प्रजनन कराया जाता है, तब वर्णसंकरता के ओज का प्राय: ह्रास हो जाता है। बहि:प्रजनन का सबसे अच्छा उदाहरण खच्चर (mule) है।