पांडुरंग वामन काणे | |
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जन्म |
07 मई 1880 रत्नागिरि जिला, महाराष्ट्र |
मौत |
अप्रैल 18, 1972[1] | (उम्र 91 वर्ष)
पुरस्कार | भारतरत्न (1963) |
पांडुरंग वामन काणे (७ मई १८८०, दापोली, रत्नागिरि - १८, अप्रैल १९७२) संस्कृत के एक विद्वान् एवं प्राच्यविद्याविशारद थे। उन्हें १९६३ में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
काणे ने अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान संस्कृत में नैपुण्य एवं विशेषता के लिए सात स्वर्णपदक प्राप्त किए और संस्कृत में एम.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। पश्चात् बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.एम. की उपाधि प्राप्त की। इसी विश्वविद्यालय ने आगे चलकर आपको साहित्य में सम्मानित डाक्टर (डी. लिट्.) की उपाधि दी। भारत सरकार की ओर से आपको 'महामहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित किया गया। उत्तररामचरित (1913 ई.), कादम्बरी (2 भाग, 1911 तथा 1918), हर्षचरित (2 भाग, 1918 तथा 1921), हिंदुओं के रीतिरिवाज तथा आधुनिक विधि (3 भाग, 1944), संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास (1951) तथा धर्मशास्त्र का इतिहास (4 भाग, 1930-1953 ई.) इत्यादि आपकी अंग्रेजी में लिखित कृतियाँ हैं।
डॉ॰ काणे अपने लंबे जीवनकाल में समय-समय पर उच्च न्यायालय, बंबई में अभिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली में वरिष्ठ अधिवक्ता, एलफ़िंस्टन कालेज, बंबई में संस्कृत विभाग के प्राचार्य, बंबई विश्वविद्यालय के उपकुलपति, रायल एशियाटिक सोसाइटी (बंबई शाखा) के फ़ेलो तथा उपाध्यक्ष, लंदन स्कूल ऑव ओरयिंटल ऐंड अफ्ऱीकन स्टडीज़ के फ़ेलो, रार्ष्टीय शोध प्राध्यापक तथा सन् 1953 से 1959 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। पेरिस, इस्तंबूल तथा कैंब्रिज में आयोजित प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में आपने भारत का प्रतिनिधित्व किया। भंडारकर ओरयंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से भी आप काफी समय तक संबद्ध रहे।
साहित्य अकादमी ने सन् १९५६ ई. में धर्मशास्त्र का इतिहास पर पाँच हजार रुपए का साहित्य अकादमी पुरस्कार (संस्कृत) प्रदान कर आपके सम्मानित किया[2] और 1963 ई. में भारत सरकार ने आपको 'भारतरत्न' उपाधि से अलंकृत किया। 18 अप्रैल 1972 को 92 वर्ष की आयु में डॉ॰ काणे का देहांत हो गया।