पुरोहित

पुरोहित एक उपाधि है,जिसका अर्थ होता है प्रजा का हित करने वाले , और यह उपाधि उन्हें दी गई जो राजा और राजकुमारो को शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देते थे। राजपुरोहित की अनुपस्थिति में राजा का आदेश अम्ल में नहीं लाया जाता था। यहां पुरोहित को राजपुरोहित कहा जाता था, क्योंकि वह राजा का पुरोहित होता था। वैदिक काल में पुरोहित का बड़ा अधिकार था। राजा के बाद राजपुरोहित का ही महत्त्व होता था, और वह मंत्रियों से ऊपर गिने जाते थे यहां तक कि राजा इनके समान में राजशिहासन के दाई तरफ एव 12मोल ऊंचा आसन बनवाता था । राजपुरोहित राजा का उपदेशक, पथप्रदर्शक, दार्शनिक और विश्वासी मित्र होता था।

इसी प्रकार किसी तीर्थ क्षेत्र में भी कर्मकांड तथा अनुष्ठान कराने के लिए पुरोहित होते है, जिन्हें '''तीर्थपुरोहित''' कहा जाता है। राजा के भी तीर्थ पुरोहित होते थे, जिन्हें राज तीर्थपुरोहित कहा जाता था। तथा उनका विशेष महत्त्व होता था।[1]

'''तीर्थ पुरोहित''' का पद कुल परम्परागत चलता है। अतः विशेष कुलों के तीर्थपुरोहित भी नियत रहते हैं। उस कुल का जो तीर्थपुरोहित जो होगा वही उस कुल का सभी अनुष्ठान करवाएगा। किसी कारण वश वह कृत्य नही करा पाता, फिर भी वह अपना भाग लेगा, चाहे कृत्य कोई दूसरा ब्राह्मण ही क्यों न कराए।