पौलिष सिद्धांत (शाब्दिक अर्थ- "पौलिष मुनि का वैज्ञानिक ग्रंथ") कई भारतीय खगोलीय ग्रंथों (astronomical texts) को संदर्भित करता है, जिनमें से कम से कम एक किसी पश्चिमी स्रोत पर आधारित है।
यह अक्सर गलती से एक ही काम समझा जाता है और इसका श्रेय अलेक्जेंड्रिया के पॉल (c. 378 CE) को दे दिया जाता है।[1] हालांकि, इस धारणा को गणित के इतिहासकारों द्वारा खारिज कर दिया गया है। विशेष रूप से डेविड पिंग्री ने यह कहा है कि "... पाउलस अलेक्जेंड्रिनस की पौलिष सिद्धांत के लेखक के रूप में पहचान पूर्णतः गलत है"।[2] इसी तरह, भारतीय गणित-इतिहासकार के वी शर्म लिखते हैं कि यह एक ग्रीक स्रोत से है, जिसे केवल पौलिष नाम से जाना जाता है [3]
इस सिद्धांत का पुराना रूप तीसरी या चौथी शताब्दी से और नया रूप आठवीं शताब्दी का बताया जाता है।[4]
यह हमारे युग की पहली शताब्दियों के दौरान भारत को पश्चिमी खगोलीय ज्ञान (विशेषकर अलेक्जेंड्रियन स्कूल) के प्रसारण के उदाहरण के रूप में यवनजतका ("यूनानी/ग्रीक लोगों के कथन") का अनुसरण करता है।
पौलिष सिद्धांत का भारतीय खगोलशास्त्री वराहमिहिर के काम पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा था। इसे 5वीं शताब्दी में भारत में "पाँच खगोलीय ग्रंथों" में से एक के रूप में माना जाता था।