प्रकृति के अधिकार एक कानूनी और न्यायिक सिद्धांत है, जो कि मौलिक मानवाधिकारों की अवधारणा के समान पारिस्थितिक तंत्र और प्रजातियों से जुड़े निहित अधिकारों का वर्णन करता है। प्रकृति के अधिकार का सिद्धान्त मुख्य रूप से 20वीं सदी के क़ानूनों को चुनौती देता है, जो प्रकृति को मात्र संसाधन के रूप में देखते हैं और मानते हैं कि इस पर उनका हक है या वे इसका इस्तेमाल कर सकते हैं।
प्रकृति के अधिकारों हेतु समर्थन में दिया जाने वाला तर्क ये है कि जिस प्रकार मानव के अधिकारों हेतु कानून में जिस तेजी के साथ मान्यता प्राप्त हुई है, उसी प्रकार प्रकृति के अधिकारों को भी मानवों के नैतिकता और क़ानूनों में जगह मिलनी चाहिए। इस तर्क को दो पंक्तियों में इस प्रकार उल्लेख किया गया है: वही नैतिकता, जो मानव अधिकारों को सही ठहराती है, उसे प्रकृति के अधिकारों को भी सही ठहराती है, और मनुष्य का स्वयं का जीवन भी एक अच्छे पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर करता है।
प्रकृति के अधिकार से जुड़े क़ानूनों में 2000 के दशक के बाद से काफी विस्तार देखने को मिला है, जिसमें संवेधानिक, राष्ट्रीय और उपराष्ट्रीय, स्थानीय कानून एवं न्यायालय के आदेश शामिल हैं। 2021 के अनुसार इससे जुड़े कानून कुल 39 देशों में उपस्थित हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के दर्जन भर से ज्यादा शहरों में इसके लिए कानून मौजूद है। 2021 में कुल देशों की संख्या जिनमें यह अधिकार पहले से है या लागू होने वाला है, की संख्या 39 है।[1]