प्रबन्धचिन्तामणि संस्कृत में रचित प्रबन्धों (अर्ध-ऐतिहासिक जीवनी आख्यानों) का एक संग्रह ग्रन्थ है। इसे 1304 ई०वर्तमान गुजरात के वाघेला साम्राज्य के जैन विद्वान मेरुतुंग ने इसका संकलन किया था। [1]
प्रबन्धचिन्तामणी को पाँच प्रकाशों (भागों) में विभाजित किया गया है: [2]
इतिहास ग्रन्थ के रूप में, प्रबंध-चिंतामणि समकालीन ऐतिहासिक साहित्य, जैसे कि मुस्लिम इतिहास, से कमतर है। [3] मेरुतुंग का कहना है कि उन्होंने यह ग्रन्थ "अक्सर सुनी जाने वाली प्राचीन कहानियों को प्रतिस्थापित करने के लिए लिखी थी जो अब बुद्धिमानों को प्रसन्न नहीं करतीं"। उनकी किताब में बड़ी संख्या में रोचक कथाएँ सम्मिलित हैं, लेकिन इनमें से कई कथाएँ काल्पनिक हैं। [4]
मेरुतुंग ने 1304 ई. (1361 विक्रम संवत् ) मे इस ग्रन्थ को पूरा कर दिया था। ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करते समय मेरुतुंग ने अपने समसामयिक काल के 'इतिहास' को अधिक महत्व नहीं दिया है, जिसका उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान रहा होगा। उनके ग्रन्थ में 940 ई० से 1250 ई० तक के ऐतिहासिक आख्यान हैं, जिसके लिए उन्हें मौखिक परंपरा और पहले के ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ा। [4] इस कारण उनका यह ग्रन्थ अविश्वसनीय उपाख्यानों का संग्रह बनकर रह गया है। [3]
गुजरात की कई समकालीन या लगभग-समकालीन कृतियों में ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करते समय किसी तारीख का उल्लेख नहीं किया गया है। मेरुतुंग ने शायद महसूस किया कि इतिहास लिखने में यथार्थ तिथियों (सटीक तारीखों) का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है, और उन्होंने अपने प्रबंध-चिंतामणि में कई तारीखें प्रदान की हैं। हालाँकि, इनमें से अधिकांश तारीखें कुछ महीनों या एक साल तक गलत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले के अभिलेखों से मेरुतुंग को ऐतिहासिक घटनाओं के वर्षों का ज्ञान था, और उसने अपने ग्रन्थ को और अधिक विश्वसनीय बनाने के लिए सटीक तारीखें गढ़ीं और लिख दीं। [3] [5] इस ग्रन्थ में कालभ्रमवाद (एनाक्रोमिज्म) के कुछ उदाहरण भी मिलते हैं; उदाहरण के लिए, वराहमिहिर (छठी शताब्दी ई.पू.) को नंद राजा (चौथी शताब्दी ई.पू.) का समकालीन बताया गया है।
चूँकि प्रबन्धचिन्तामणि की रचना गुजरात में हुआ, इसलिए यह ग्रन्थ पड़ोसी राज्य मालवा के प्रतिद्वंद्वी शासकों की तुलना में गुजरात के शासकों को अधिक सकारात्मक रूप से चित्रित करता है। [1]
1888 में शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथ ने प्रबंध-चिंतामणि का संपादन और प्रकाशन किया। 1901 में, जॉर्ज बुहलर के सुझाव पर चार्ल्स हेनरी टॉनी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। दुर्गाशंकर शास्त्री ने दीनानाथ के संस्करण को संशोधित किया, और इसे 1932 में प्रकाशित किया। मुनि जिनविजय ने 1933 में एक और संस्करण प्रकाशित किया, और इसका हिंदी भाषा में अनुवाद भी किया। [3]