प्रेमकृष्ण खन्ना | |
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![]() प्रेमकृष्ण खन्ना (१८९४-१९९३) का चित्र | |
जन्म |
02 जनवरी 1894 लाहौर, ब्रिटिश भारत |
मौत |
3 अगस्त 1993 शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश, भारत | (उम्र 99 वर्ष)
राष्ट्रीयता | भारतीय |
पेशा | स्वतंत्रता सेनानी बाद में सांसद |
प्रसिद्धि का कारण | काकोरी काण्ड |
प्रेमकृष्ण खन्ना (२ फ़रवरी १८९४ - ३ अगस्त १९९३) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के एक प्रमुख सदस्य थे और शाहजहाँपुर के रेल विभाग में ठेकेदार (काण्ट्रेक्टर) थे।[1] काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर पिस्तौल के कारतूस इन्हीं के शस्त्र-लाइसेन्स पर खरीदे गये थे।
इन्हें ब्रिटिश सरकार ने माउजर पिस्तौल का लाइसेन्स दे रखा था। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' से इनकी घनिष्ठ मित्रता[2] थी। क्रान्तिकारी कार्यों के लिये वे इनका माउजर प्राय: माँग कर ले जाया करते थे। यही नहीं, आवश्यकता पडने पर कभी कभी इनके लाइसेन्स पर कारतूस भी खरीद लिया करते थे। काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर पिस्तौल के कारतूस इन्हीं के शस्त्र-लाइसेन्स पर खरीदे गये थे[3] जिसके पर्याप्त साक्ष्य मिल जाने के कारण इन्हें ५ वर्ष की कठोर कैद की सजा[4][5][6]भुगतनी पडी थी। २ वर्ष तक काकोरी-काण्ड का मुकदमा चला अत: कुल मिलाकर सन १९२५ से १९३२ तक ७ वर्ष कारागार में बिताये। छूटकर आये तो आजीवन अविवाहित रहकर देश-सेवा का व्रत ले लिया। ४० वर्षाँ तक कांग्रेस की कार्यकारिणी के सदस्य रहे। कांग्रेस के टिकट पर कई वर्ष (१९६२ से १९७१ तक) लोकसभा के सांसद[7] भी रहे। ३ अगस्त १९९३[8] को शाहजहाँपुर के जिला अस्पताल में उस समय प्राणान्त हुआ जब जीवन का शतक पूर्ण करने में मात्र ६ महीने शेष रह गये थे। बडे ही जीवट के व्यक्ति थे।
पश्चिमी पंजाब में, जो अब पाकिस्तान में चला गया, डॉ॰ हरनारायण खन्ना जी सिविल सर्जन हुआ करते थे उनके सुपुत्र रामकृष्ण खन्ना ब्रिटिश इण्डियन रेलवे मॅ चीफ डिवीजनल इंजीनियर थे जिनका मुख्यालय तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के एतिहासिक शहर शाहजहाँपुर में था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रायबहादुर की उपाधि प्रदान की थी। उनकी पत्नी की कोख से २ फ़रवरी १८९४ को एक शिशु ने जन्म लिया, नाम रखा गया प्रेमकृष्ण। उस समय रामकृष्ण खन्ना लाहौर में तैनात थे और पंजाब में रेलवे के विस्तार का काम देख रहे थे।
पुत्र प्रेमकृष्ण की रुचि बचपन से ही क्रान्तिकारियों की जीवनियाँ और विप्लवी आन्दोलनों के समाचार पढ़ने में अधिक थी विद्यालय की पढ़ाई में उसका मन प्राय: कम ही लगता था अत: जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने ब्रिटिश सरकार से अच्छे रसूख होने के कारण उसे रेलवे कान्स्ट्रक्शन कं० में काण्ट्रेक्टरी (ठेकेदारी) का काम दिलवा दिया जिससे उसकी आजीविका का स्थायी प्रबन्ध हो सके और उसका विवाह किसी अच्छे परिवार की सुशील कन्या से किया जा सके।
प्रेमकृष्ण खन्ना के पिताजी रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना जब शाहजहाँपुर आ गये उन्होंने कचहरी रेलवे फाटक के समीप एक आलीशान कोठी बनवा दी जहाँ रहकर स्थायी रूप से ठेकेदारी का काम किया जा सके। चूँकि ठेकेदारी का काम जोखिम भरा होता है अत: उनके पिता ने सरकार से कहकर अपने पुत्र को उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये एक पिस्तौल रखने का लाइसेन्स भी दिलवा दिया। प्रेमकृष्ण ने उस लाइसेन्स पर अपने लिये एक माउजर पिस्तौल[9] खरीद लिया।
मैनपुरी षड्यन्त्र से पूर्व ही राम प्रसाद बिस्मिल ऐसे लोगों की खोज में रहते थे जिनके पास शस्त्र हों शस्त्र रखने का लाइसेन्स हो। क्योंकि क्रान्तिकारी कार्यों में शस्त्र और गोली बारूद की आवश्यकता रहती ही है अत: खोजते-खोजते उन्हें प्रेमकृष्ण खन्ना का पता मिल गया। उन्होंने "शाहजहाँपुर सेवा समिति" में खन्ना जी को भी सम्मिलित कर लिया। यह १९१७ की बात है। बिस्मिल के तेजस्वी व्यक्तित्व से खन्ना जी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनके आदर्शों और आदेशों के स्वत: स्फूर्त अनुयायी बन गये।
सन १९१८ में दिल्ली के कांग्रेस अधिवेशन में शाहजहाँपुर सेवा समिति के स्वयंसेवक भी सम्मिलित हुए। इनके ग्रुप लीडर राम प्रसाद 'बिस्मिल' थे। उस समय तक यू०पी० सरकार द्वारा १९१६ में जब्त "अमरीका की स्वतन्त्रता का इतिहास" की सामग्री संकलित करके एक अन्य पुस्तक तैयार की जा चुकी थी-"अमरीका कैसे स्वाधीन हुआ?" प्रेमकृष्ण खन्ना व शाहजहाँपुर के अन्य स्वयंसेवकों ने इस पुस्तक की सैकडों प्रतियाँ कांग्रेस अधिवेशन में चिल्ला-चिल्ला कर बेच डालीं। खुफिया पुलिस को इसकी भनक लगते ही बिस्मिल ने प्रत्युपन्नमति से ओवरकोट में छुपाकर बडी चतुराई से बिक्री से शेष बची लगभग २०० पुस्तकें हटा दीं वरना अन्य स्वयंसेवकों के साथ खन्नाजी भी वहीं गिरफ्तार हो जाते।
१९१८ की दिल्ली कांग्रेस में खन्ना जी की सक्रियता देखकर उन्हें "इन्द्रप्रस्थ सेवा समिति" का दायित्व सौंपा गया। इस समिति की देखरेख में १९१९ के अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में भव्य पण्डाल का निर्माण किया गया। इसकी सज्जा व्यवस्था "शाहजहाँपुर सेवा समिति" ने की थी, दोनों ही समितियों को वहाँ पुरस्कृत किया गया। "होम रूल सेवा समिति, दिल्ली" की ओर से १९२१ में जारी "असहयोग आन्दोलन" में खन्नाजी की सक्रिय भागीदारी देखकर उन्हें वार्ड कांग्रेस कमेटी (एरिया नं० ४) का मन्त्री बनाया गया उसके बाद उनकी दिल्ली प्रादेशिक कार्यकारिणी सदस्य के रूप में दिल्ली मॅ ही नियुक्ति कर दी गयी। उस समय उनके पिताजी ईस्ट इण्डियन रेलवे हावडा डिवीजन के चीफ इंजीनियर थे किन्तु परिवार के अन्य लोग शाहजहाँपुर में ही रहते थे। इस प्रकार दिल्ली[10] में रहते हुए और कांग्रेस में कार्य करते हुए भी उनका शाहजहाँपुर आना-जाना बराबर लगा रहा और बिस्मिल[11] आदि क्रान्तिकारियों से सम्पर्क बना रहा।
सन् १९२१ के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में रामप्रसाद'बिस्मिल' ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और अन्ततोगत्वा गान्धी जी से पूर्ण स्वराज के लिये असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने। इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गये। समूचे देश में असहयोग आन्दोलन शुरू करने में शाहजहाँपुर के स्वयंसेवकों की अहम् भूमिका थी। खन्ना जी भी उस अधिवेशन में सम्मिलित हुए किन्तु वहाँ जो कुछ हुआ उसे देखकर उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। उसके बाद सन् १९२२ में जब चौरीचौरा काण्ड के पश्चात् किसी से परामर्श किये बिना गान्धी जी ने डिक्टेटरशिप दिखाते हुए असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो १९२२ की गया कांग्रेस में खन्नाजी ने व उनके साथियों ने बिस्मिल के साथ कन्धे से कन्धा भिडाकर गान्धी जी का ऐसा विरोध किया कि कांग्रेस में फिर दो विचारधारायें बन गयीं - एक उदारवादी या लिबरल और दूसरी विद्रोही या रिबेलियन। गान्धी जी विद्रोही विचारधारा के नवयुवकों को कांग्रेस की आम सभाओं में विरोध करने के कारण हमेशा हुल्लड़बाज कहा करते थे।
फरवरी १९२२ चौरीचौरा काण्ड से घबराकर गान्धीजी ने जब असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो खन्नाजी भी राम प्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी से अलग हो गये और पूरे देश में "रिवोलूशनरी पार्टी ऑफ इण्डिया" का संगठन खडा करने में तन-मन-धन से जुट गये। शाहजहाँपुर से बहुत बडी संख्या में नवयुवक पार्टी से जुडे। इतना ही नहीं, यू०पी० में बरेली से दामोदर स्वरूप सेठ, बनारस से मन्मथनाथ गुप्त, राजेन्द्र नाथ लाहिडी व चन्द्रशेखर आजाद भी दल में शामिल हो गये। शाहजहाँपुर से अशफाक उल्ला खाँ व ठाकुर रोशन सिंह इनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करने के लिये आगे आये। पार्टी के लिये शस्त्र जुटाने और कारतूस आदि उपलब्ध कराने में खन्नाजी ने जी-जान से सहयोग किया।
२६ सितम्बर १९२५ को खन्नाजी के घर की तलाशी पुलिस सब-इन्स्पेक्टर फसाहत हुसैन द्वारा[12] ली गयी जिसमें एक लाइसेन्सी माउजर पिस्तौल तथा कारतूस बरामद हुए। पुलिस ने असलाह और लाइसेन्स सभी अपने कब्जे में ले लिये। मुखबिर बनारसीलाल की सूचना पर सी०आई०डी० इन्स्पेक्टर मि० हार्टन ने कानपुर के शस्त्र विक्रेता मेसर्स विश्वास एण्ड कम्पनी के रजिस्टर की जाँच की। रजिस्टर से पता चला कि १४ फ़रवरी १९२४ से ५ जनवरी १९२५ के बीच प्रेमकृष्ण खन्ना ने १५० कारतूस खरीदे। रजिस्टर पर ७ अगस्त १९२४ की एक प्रविष्टि की फारेन्सिक जाँच करने पर यह पाया गया कि प्रेमकृष्ण खन्ना के हस्ताक्षर राम प्रसाद 'बिस्मिल' की हस्तलिपि में थे। मुकदमें में खन्नाजी को काकोरी षड्यन्त्र में बिस्मिल का सहयोग करने के लिये ५ वर्ष की कडी सजा का आदेश न्यायालय द्वारा दिया गया।
पुलिस ने यह प्रमाणित करने की चेष्ठा की कि रामप्रसाद जी खन्ना जी की इसी पिस्तौल से निशाना लगाना सीखते थेऔर इन्हीं के नाम से लाये गये कारतूस रेल डकैती में प्रयोग किये गये। पुलिस ने इन्हें पथभ्रष्ठ करने की बहुत चेष्ठा की परन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुई। पिता के क्रोध की रंचमात्र भी परवाह किये बिना ये अपने मार्ग पर डटे रहे। चूँकि बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में समस्त देशवासियों से देशहित में केवल एक पार्टी (कांग्रेस) के लिये काम करने का सन्देश दिया था जेल से रिहायी के बाद आपने कांग्रेस आन्दोलन में पूरे तौर से योग दिया। किसान संगठन और सामाजिक विसंगतियाँ दूर करने के लिये वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। कांग्रेस के टिकट पर दो बार संसद-सदस्य भी रहे और कांग्रेस पार्टी को क्रान्तिकारियों के लक्ष्य पर चलाने के लिये सतत प्रयत्नशील रहे[13]।
अपने घनिष्ठ मित्र और क्रान्तिकारी आन्दोलन के सूत्रधार पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' के विचारों से प्रेरणा प्राप्त कर खन्ना जी ने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया और अपने जनपदीय कार्यक्षेत्र में आधा दर्जन प्रकल्प[14] खडे कर दिये जिनके नाम इस प्रकार हैं:
उपरोक्त प्रकल्पों के क्रियान्वयन में खन्नाजी को जिन महान विभूतियों से शुभ कामनायें, सहयोग व आशीर्वाद मिला उनमें भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री व इन्दिरा गान्धी उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री चन्द्रभानु गुप्त तथा सम्पूर्णानन्द एवं राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमन्त्री मोहनलाल सुखाडिया के नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त दो अन्य परियोजनाओं का प्रारूप भी वे अपने जीवन काल में कर गये थे-(१) काकोरी शहीद डिग्री कालेज जलालाबाद (शाहजहाँपुर) तथा (२) शहीदे-आजम पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' स्मृति भवन एवं क्रान्तिकारी संग्रहालय (शाहजहाँपुर)।
इसके लिये उन्होंने उस समय (सन १९९१ में) १६ लाख रुपये नकद, बहादुरगंज शाहजहाँपुर का तलौआ का मैदान, जिस पर बिस्मिल स्मृति भवन व क्रान्तिकारी संग्रहालय बनाने की उनकी योजना शामिल थी; रजिस्टर्ड वसीयतनामे के तहत अपनी समस्त चल अचल सम्पत्ति ट्रस्ट के नाम कर दी थी।
स्मृति भवन व संग्रहालय तो नहीं बना, हाँ जलालाबाद में उनके नाम पर "प्रेम किशन खन्ना राजकीय डिग्री कालेज" अवश्य बन गया। शाहजहाँपुर में खिरनी बाग स्थित राम प्रसाद 'बिस्मिल' का जन्म स्थान[15] आज भी किसी व्यक्ति के पास है। उसे न तो उत्तर प्रदेश सरकार और न ही भारत सरकार कोई प्रयास करके राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर सकी। जब दिल्ली के बल्लीमारान मोहल्ले में मिर्जा गालिब की हवेली का पुनरुद्धार व शानदार कायाकल्प केन्द्र सरकार कर सकती है तो बिस्मिल सरीखे क्रान्तिपुरुष का क्यों नहीं?
उन्होंने केवल कांग्रेस के लिये ही नहीं अपितु स्वतन्त्रता सेनानियों के कल्याण के लिये भी बडा काम किया। दो-दो बार उत्तर प्रदेश विधान सभा तथा केन्द्रीय लोक सभा के सदस्य तो रहे ही उ०प्र० स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी संगठन एवं उ०प्र० स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी कल्याण परिषद के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वे मृत्यु पर्यन्त निभाते रहे। ३ अगस्त १९९३ को शाहजहाँपुर के जिला अस्पताल में उनका निधन उस समय हुआ जब वे अपने जीवन का शतक[16] ठोकने ही वाले थे। यदि ६ महीने और जिन्दा रह जाते तो २ फ़रवरी १९९४ को पूर्णायु का सौभाग्य प्राप्त करते।