डॉ॰ भगवान दास | |
---|---|
![]() | |
जन्म |
12 जनवरी 1869 बनारस, बनारस रियासत (वर्तमान: वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत) |
मौत |
18 सितम्बर 1958 | (उम्र 89 वर्ष)
बच्चे | श्री प्रकाश |
पुरस्कार | भारत रत्न |
भारतरत्न डाक्टर भगवानदास (१२ जनवरी १८६९ - १८ सितम्बर १९५८) भारत के प्रमुख शिक्षाशास्त्री, स्वतंत्रतासंग्रामसेनानी, दार्शनिक (थियोसोफी) एवं कई संस्थाओं के संस्थापक थे। सन् १९५५ में उन्हें भारतरत्न की सर्वोच्च उपाधि से विभूषित किया गया था।[1]
उन्होने डॉक्टर एनी बेसेन्ट के साथ व्यवसायी सहयोग किया, जो बाद मे सेन्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना का प्रमुख कारण बना। सेन्ट्रल हिन्दू कालेज, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मूल है। बाद मे उन्होंने काशी विद्यापीठ की स्थापना की और वहाँ वे प्रमुख अध्यापक भी थे। सन १९२१ के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वे अध्यक्ष थे। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत मे ३० से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है।
डॉक्टर भगवानदास का जन्म १२ जनवरी १८६९ ई. में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था। वे वाराणसी के समृद्ध साह परिवार के सदस्य थे। सन् १८८७ में उन्होंने १८ वर्ष की अवस्था में पाश्चात्य दर्शन में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की। १८९० से १८९८ तक उत्तर प्रदेश में विभिन्न जिलों में मजिस्ट्रेट के रूप में सरकारी नौकरी करते रहे। सन् १८९९ से १९१४ तक सेंट्रल हिंदू कालेज के संस्थापक-सदस्य और अवैतनिक मंत्री रहे। १९१४ में यही कालेज काशी विश्वविद्यालय के रूप में परिणत कर दिया गया। डॉ॰ भगवान्दास हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक-सदस्यों में से एक थे। सन् १९२१ मे काशी विद्यापीठ की स्थापना के समय से १९४० तक उसके कुलपति रहे। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण सन् १९२१ में इन्हें कार्य से मुक्त कर दिया गया। किंतु वर्ष के शेष महीनों में घर से अलग काशी विद्यापीठ में रहते हुए एकांतवास करके उन्होंने कारावास की अवधि पूरी की। १९३५ में उत्तरप्रदेश के सात शहरों से भारत की केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और एकांत रूप से दार्शनिक चिंतन एवं भारतीय विचारधारा की व्याख्या में संलग्न रहे। भारत के राष्ट्रपति ने सन् १९५५ में उन्हें भारतरत्न की सर्वोच्च उपाधि से विभूषित किया।
"अहं एतत् न' (मैं-यह-नहीं) ऐसा महावाक्य है कि यदि इसके तीनों शब्दों के अर्थ एक साथ लिए जाएं तो केवल एक एकाकार, एक रस, अखंड, निष्क्रिय, संवित् देख पड़ती है। "मै-यह-नहीं' इसमें कोई क्रिया विक्रिया नहीं है, कोई परिवर्त परिणमन नहीं है। केवल एक बात सदा के लिए कूटस्थवत् स्थिर है, अर्थात् केवल "मैं' है और "मैं' के सिवाय और कुछ नहीं है। अथच "मैं' अपने सिवाय कोई अन्य वस्तु, ऐसे ऐसे रूप रंग नाम आदि का अन्य पदार्थ नहीं हूँ। यदि इस वाक्य के दो खंड कीजिए, पहले "मै-यह' और फिर "यह-नहीं' तो इसी वाक्य में संसार की सब कुछ क्रिया, इसके संपूर्ण परिवर्त का तत्व, देख पड़ता है "मै-यह-हूँ', यह जीवन का, जनन का, शरीरत्याग का, स्वरूप है। क्रियामात्र का यही द्वंद स्वरूप है (लेना और देना, पकड़ना और छोड़ना, बढ़ना और घटना, हँसना और रोना, जीना और मरना, उपाधि का ग्रहण करना और उसमे अहंकार करना और फिर उसको छोड़कर उससे विमुख होना, पहले एक वस्तु में सुख मानना और फिर उसी वस्तु में पीछे दुख मानना)। अध्यारोप और अपवाद, प्रवृत्ति ओर निवृत्ति, इन दो शब्दों में संसार का, संसरण का तत्व सब कह दिया है। द्रष्टा और दृश्य, भोक्ता और भोग्य, विषय और विषयी, ज्ञाता और ज्ञेय, एष्टा और इष्य, कर्त्ता और कार्य, जीव और देह, चेतन और जड़, आत्मा और अनात्मा, "मैं' और "यह', दोनों इसमें मौजूद हैं। जिस जिस वस्तु का निषेध, प्रतिषेध, अपलाप, अथवा निराकरण, निरास किया जाता है, उसका पहले अध्युमगम, अध्यारोप, विधान, संभावन संकल्प, अध्यास कर लिया जाता है। पहले यह माना जाता है कि उसका संभव है और तब उसकी वास्तवता का निषेध होता है। इसी से असत् पदार्थ पर सत्ता का मिथ्या आरोप दीख पड़ता है।
इसी महाचेतना में सब संसार की सृष्टि, स्थिति और लय है। 'अहम्' अर्थात 'मैं' आत्मा का स्वरूप है। 'एतन्' अर्थात् 'यह' अनात्मा का स्वरूप है। इन दोनों का संबंध निषेध रूप है। 'मैं यह नहीं हूं' इस भावना, इस धारणा, इस संवित् को यदि क्रमदृष्टि से देखिए तो इसमें तीन बातें अवश्य मिलती हैं। पहले तो 'मैं' के सामने 'यह' पदार्थ आता है। इस क्षण में ज्ञान होता है। इसके पीछे 'मैं' और 'यह' के संयोग वियोग का संभंव होता है। यही इच्छा है। तीसरे क्षण में संयोग वियोग होता है। यह क्रिया है। संयोग वियोग दोहरा क्षण में संयोग वियोग होता है। यह क्रिया है। संयोग वियोग दोहरा शब्द इसलिए कहा जाता है कि पहले संयोग होकर पीछे वियोग होता है। पहले राग, पीछे द्वेष, पहले प्रवृत्ति पीछे निवृत्ति, पहले लेना पीछे देना, पहले जन्म पीछे मरण, पुन: जन्म पुन: मरण, यही संसरण क्रिया है।
जैसा भगवान्दासजी प्रतिपादित करते थे, प्रति क्षण में प्रत्येक जीव इसी ज्ञान, इच्छा, क्रिया के फेरे में फिरा करता है। पहले ज्ञान, तब इच्छा, तब क्रिया। और क्रिया के बाद फिर ज्ञान, फिर इच्छा, फिर क्रिया। यह अनंत चक्र सर्वदा चल रहा है। अहम्-आत्मा-पुरुष अथवा प्रत्यगात्मा में जो इन तीन पदार्थो का बीज है उसको सत्-चित् और आनंद के नाम से कहते हैं। अर्थात् ज्ञान चिदात्मक, क्रिया सदात्मक और इच्छा आनंदात्मक। तथा अनात्मा अर्थात् मूल प्रकृति में ये ही तीन पदार्थ सत्वज्ञानात्मक, रजस् क्रियात्मक और तमस् इच्छात्मक कहलाते हैं। ये ही तीन प्रत्येक परमाणु और प्रत्येक ब्रह्मांड में सदा विद्यमान हैं।
मनोविज्ञान में डॉ॰ भगवानदास का नाम आवेगों अथवा रागद्वेष के पारम्परिक वर्गीकरण के लिए स्मरण किया जाता है। सुखद वस्तुओं के लिए आकर्षण और दु:खद वस्तुओं के लिए विकर्षण जब चेतन प्राणियों के संबंध में प्रयुक्त होते हैं, तब ये ही राग अथवा प्रेम और द्वेष का रूप ले लेते हैं। आलंबन के प्रति महत्ता, समानता तथा हीनता की भावना के अनुसार यही राग या प्रेम क्रमश: श्रद्धा, स्नेह तथा दया का रूप ले लेता है और इसी प्रकार द्वेष आलंबनभेद से भय, क्रोध तथा घृणा का रूप ले लेता है। अपने बड़े के प्रति श्रद्धा या भय होता है, बराबर के प्रति स्नेह तथा क्रोध होता है और छोटे के प्रति दया अथवा घृणा होती है। ये ही छह आवेग अतिरंजित होने अथवा अनुपयुक्त विषयों के साथ संलग्न होने पर मनोविकार बन जाते हैं और अंतिम रूप में अनेक प्रकार के उन्मादों का रूप ले लेते हैं।
परमात्मा के स्वभाव से, प्रकृति से, उत्पन्न तीन गुण, सत्व, रजस्, ही ज्ञान, क्रिया और इच्छा के मूलतत्व या बीज हैं। डाक्टर साहब के विचारानुसार इनकी प्रधानता से, तीन प्रकार के, तीन प्रकृति के, मनुष्य होते हैं :
ये हुए चार वर्ण। किसी देश के किसी भी सभ्य समाज में ये वर्ण अवश्य पाए जाते हैं, पद उतने विवेक से और उस काम-दाम-आराम के, धर्म-कर्म-जीविका के, विभाजन के साथ नहीं, जैसा भारतवर्ष में, प्राचीन स्मृतियों ने इनके लिए आदेश किया है।
जैसे समाज के जीवन में चार मुख्य पेशे हैं वैसे ही प्रत्येक मनुष्य के जीवन में चार "आश्रम' हैं: (१) ब्रह्मचर्य, विद्या सीखने का, (२) गृहस्थ का, (३) वानप्रस्थ का; (४) संन्यासी का।
मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष वा ब्रह्मानंद। पहले तीन आश्रमों में अधिकतर धर्म-अर्थ-काम और चौथे में विशेष रूप से मोक्ष को साधना चाहिए।
तीन (अथवा चार) ऋणों को लेकर मनुष्य पैदा होता है।
इन चार ऋणों के निर्मोचन निर्यातन का उपाय भी चार आश्रमों के धर्म कर्मो का उचित निर्वाह ही है। विद्यासंग्रहण और संतति के उत्पादन, पालन, पोषण से पितरों का ऋण चुकता है। यथा, वायु देवता से हमारा श्वास प्रश्वास चलता है, हवा को हम गंदा करते हैं; उत्तम सुगंधित पदार्थो के धूप-दीप से, होम हवन से, हवा पुन: स्वच्छ करनी चाहिए। जंगल काट काटकर हम लकड़ी को जलाने में, मकान और सामान के काम में, खर्च कर डालते हैं। नए लखरॉव, बाग, उद्यान लगाकर फिर नए पेड़ तैयार कर देना चाहिए। वरुण देव के जल का प्रति दिन हम लोग व्यय करते रहते हैं; नए तालाब, कुएँ, नहर आदि बनाकर, उसकी पूर्ति करनी चाहिए। ये सब यज्ञ हैं। परोपकारार्थ जो भी काम किया जाय वह सब यज्ञ हैं। परमात्मा का ऋण, मुक्ति प्राप्त करने से, सब में एक ही आत्मा को व्याप्त देखने से, चुकता है। क्रम से, चार आश्रमों में चार ऋण अदा होते हैं।
ऐसी ही तीन या चार एषणाएँ, आकांक्षाएँ, वासनाएँ मनुष्य की, स्वाभाविक, होती हैं।
ये चार एषणाएँ भी चार पुरुषार्थोकी रूपांतर ही हैं और चारों आश्रमों के धर्म कर्म से उचित रीति से पूरी होती हैं।
डॉ॰ भगवान्दास "कर्मण वर्ण, जन्म अभिकर्मण' सिद्धान्त के प्रतिपादक थे। उनके मत से बिना कर्मण वर्णसिद्धान्त को माने इस समय, वर्तमान अवस्था में, किसी भी दूसरे उपाय से हिंदू समाज का कल्याण नहीं हो सकता।
चारों वर्णो के लिए चार मुख्य धर्म अर्थात् कर्तव्य और चार वृत्तियाँ, जीविका और चार तोषण, राधन, प्रोत्साहन, हैं।
डॉ॰ भगवान्दास ने तटस्थ रूप से धर्मो का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उनके मत से सभी धर्मो के उसूल एक हैं। सभी धर्मो में यह माना गया है कि परमात्मा सबके हृदय में आत्मा रूप से मौजूद है। सब भूतों, सब प्राणियों के भीतर में बैठा है। सबके आगे, सबके पीछे, "मैं' ही है। सभी धर्मो में तीन अंग हैं, ज्ञान, भक्ति और कर्म। उसूली "अकायद' यानी ज्ञानकांड और, "हकीकत' की बातें तो सब मजहबों में एक हैं ही, "इबादत्त" यानी भक्तिकांड ओर "तरीकत" की बातें भी एक ही हैं और "मामिलात यानी कर्मकांड या "शरियत की ऊपरी, सतही बातें भी एक या एक सी हैं। यह बात सभी मजहबवाले मानते हैं कि खुदा है और वह एक है, वाहिद है, अद्वितीय है। यह भी सब मानते हैं कि पुण्य का फल सुख और पाप का फल दु:ख होता है। व्रत, उपवास, तीर्थयात्रा, धर्मार्थ दान ये भी सब मजहबों में हैं। सभी धर्मो' में तीन अंग हैं, ज्ञान, भक्ति और कर्म। उसूली "अकायद" यानी ज्ञानकांड और, "हकीकत' की बातें तो सब मजहबों में एक हैं ही, "इबादत्त' यानी भक्तिकांड और "तरीकत' की बातें भी एक ही हैं और "मामिलात' यानी कर्मकांड या "शरियत' की ऊपरी, सतही बातें भी एक या एक सी हैं। सभी धर्मो में धर्म के चार मूल माने गए हैं : त्रुटि, स्मृति, सदाचार और हृदयाभ्यनुज्ञा। खुदा को ला-मकान और निराकार कहते हुए भी सभी उसके लिए खास खास मकान बनाते हैं, मंदिर, मस्जिद और चर्च आदि के नाम से।
डॉ॰ भगवान्दास ने सभी धर्मो के अनुयायियों की नासमझी में भी समता दिखाई है। मेरा मजहब सबसे अच्छा है, दूसरे मजहबवालों को जबरदस्ती से अपने मजहब में लाना चाहिए, यह अहंकार सबमें देखा जाता है। यह नहीं समझते कि खास तरीके खास खास देशकाल अवस्था के लिए बताए गए हैं। अंत में डॉ॰ भगवान्दास ने इस बात पर बल दिया है कि आदमी की रूह इन सबों में बड़ी है। आदमियों ने ही मजहब की शक्ल समय-समय पर बदल डाली है।