भारतीय संविदा अधिनियम १८७२

भारतीय संविदा अधिनियम, १८७२ (Indian Contract Act, 1872) भारत का मुख्य संविदा कानून है। यह अधिनियम भारत में अंग्रेजी शासन के समय पारित हुआ था। यह 'इंग्लिश कॉमन ला' पर आधारित है।

यह अधिनियम संविदाओं के निर्माण, निष्‍पादन और प्रवर्तनीयता से संबंधित सामान्‍य सिद्धांतों तथा क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, जमानत और गिरवी, तथा अभिकरण (एजेंसी) जैसी विशेष प्रकार की संविदाओं से संबंधित नियम निर्धारित करता है। यद्यपि भागीदारी अधिनियम; माल बिक्री अधिनियम; परक्राम्‍य लिखत अधिनियम और कम्‍पनी अधिनियम, तकनीकी दृ‍ष्टि से संविदा कानून के भाग हैं, फिर भी इन्‍हें पृथक अधिनियमनों में शामिल किया गया है।

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार, संविदा कानून द्वारा प्रवर्तनीय करार है। कानून द्वारा प्रवर्तित न किए जा सकने वाले करार संविदाएं नहीं होते। ‘’करार’’ से अभिप्राय है एक दूसरे के प्रतिफल का ध्‍यान रखते हुए दिया जाने वाला आश्‍वासन। और आश्‍वासन त‍ब दिया जाता है जब कोई प्रस्‍ताव स्‍वीकारा जाता है। इसका निहितार्थ यह है कि करार एक स्‍वीकृत प्रस्‍ताव है। दूसरे शब्‍दों में, करार में ‘’पेशकश’’ और इसकी ‘’स्‍वीकृति’’ निहित होती है।

व्यापारिक सन्नियम में उन अधिनियमों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यवसाय एवं वाणिज्यिक क्रियाओं के नियमन एवं नियन्त्रण के लिए बनाये जाते हैं। व्यापारिक या व्यावसायिक सन्नियम के अन्तर्गत वे राजनियम आते हैं जो व्यापारियों, बैंकर्स तथा व्यवसायियों के साधारण व्यवहारों से सम्बन्धित हैं और जो सम्पित्त के अधिकारों एवं वाणिज्य में संलग्न व्यक्तियों से सम्बन्ध रखते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, व्यावसायिक सन्नियम की एक महत्वपूर्ण शाखा है, क्योंकि अधिकांश व्यापारिक व्यवहार चाहे वे साधारण व्यक्तियों द्वारा किये जायें या व्यवसायियों द्वारा किये जायें, 'अनुबन्धों’ पर ही आधारित होते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 25 अप्रैल, 1872 को पारित किया गया था और 1 सितम्बर 1872 से लागू हुआ था।

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम को दो भागों में बांटा जा सकता है। इसमें प्रथम भाग में धारा 1 से 75 तक है जो अनुबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों से सम्बिन्धत हैं और सभी प्रकार के अनुबन्धों पर लागू होती हैं। द्वितीय भाग में धारा 76 से 266 तक है जो विशिष्ट प्रकार के अनुबन्धों जैसे वस्तु विक्रय, क्षतिपूर्ति एवं गारण्टी, निक्षेप, गिरवी, एजेन्सी तथा साझेदारी से सम्बिन्धत हैं। 1930 में वस्तु विक्रय से सम्बिन्धत धाराओं को निरस्त करके पृथक से वस्तु विक्रय अधिनियम बनाया गया है। इसी प्रकार 1932 में साझेदारी अनुबन्धों से सम्बिन्धत धाराओं को इस अधिनियम में से निरस्त कर दिया गया और पृथक साझेदारी अधिनियम बनाया गया।

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