भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988 (No. 49 of 1988)) भारतीय संसद द्वारा पारित केंद्रीय कानून है जो सरकारी तंत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भ्रष्टाचार को कम करने के उद्देश्य से बनाया गया है।
2013 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम को संशोधन के लिये संसद में पेश किया गया था, लेकिन सहमति न बन पाने पर इसे स्थायी समिति और प्रवर समिति के पास भेजा गया। साथ ही समीक्षा के लिये इसे विधि आयोग के पास भी भेजा गया। समिति ने 2016 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसके बाद 2017 में इसे पुनः संसद में लाया गया। पारित होने के बाद इसे भ्रष्टाचार निरोधक संशोधन विधेयक-2018 कहा गया। संशोधित विधेयक में रिश्वत देने वाले को भी इसके दायरे लाया गया है। इसमें भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने और ईमानदार कर्मचारियों को संरक्षण देने का प्रावधान है। लोकसेवकों पर भ्रष्टाचार का मामला चलाने से पहले केन्द्र के मामले में लोकपाल से तथा राज्यों के मामले में लोकायुक्तों से अनुमति लेनी होगी। रिश्वत देने वाले को अपना पक्ष रखने के लिये 7 दिन का समय दिया जाएगा, जिसे 15 दिन तक बढ़ाया जा सकता है। जाँच के दौरान यह भी देखा जाएगा कि रिश्वत किन परिस्थितियों में दी गई है।
भ्रष्टाचार निरोधक संशोधन विधेयक-2018 की मुख्य विशेषताएँ
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- रिश्वत एक विशिष्ट और प्रत्यक्ष अपराध है।
- रिश्वत लेने वाले को 3 से 7 साल की कैद के साथ-साथ जुर्माना भी भरना पड़ेगा।
- रिश्वत देने वालों को 7 साल तक की कैद और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- इसमें उन लोगों की सुरक्षा के लिए एक प्रावधान है जिन्हें 7 दिनों के भीतर मामले की सूचना कानून प्रवर्तन एजेंसियों को दिए जाने की स्थिति में रिश्वत देने के लिए मजबूर किया गया है।
- इस विधेयक द्वारा आपराधिक कदाचार को फिर से परिभाषित किया गया है। अब केवल 'संपत्ति के दुरुपयोग' और 'आय से अधिक सम्पत्ति' इसके अन्तर्गत आयेंगे।
- यह केंद्रीय जांच ब्यूरो जैसी जांच एजेंसियों के लिए उनके खिलाफ जांच करने से पहले एक सक्षम प्राधिकारी से पूर्व अनुमोदन लेने के लिए अनिवार्य बनाकर अभियोजन से सेवानिवृत्त लोगों सहित सरकारी कर्मचारियों के लिए एक ‘ढाल’ का प्रस्ताव करता है।
- हालांकि, इसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति को अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए किसी भी अनुचित लाभ को स्वीकार करने या स्वीकार करने का प्रयास करने के आरोप में मौके पर ही गिरफ्तारी से जुड़े मामलों के लिए ऐसी अनुमति आवश्यक नहीं होगी।
- लोक सेवक के खिलाफ भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में, "अनुचित लाभ" का कारक स्थापित करना होगा।
- रिश्वत के आदान-प्रदान और भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों में सुनवाई दो साल के भीतर पूरी की जानी चाहिए। इसके अलावा, उचित देरी के बाद भी, परीक्षण चार साल से अधिक नहीं हो सकता।
- इसमें रिश्वत देने वाले वाणिज्यिक संगठनों को सजा या अभियोजन के लिए उत्तरदायी होना शामिल है। हालांकि, धर्मार्थ संस्थानों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है।
- यह भ्रष्टाचार के आरोपी लोक सेवक की संपत्ति की कुर्की और जब्ती के लिए शक्तियां और प्रक्रियाएं प्रदान करता है।
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- सूचना का अधिकार अधिनियम
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम
- कम्पनी अधिनियम, 1956
- दहेज प्रतिबंध अधिनियम
- मानवाधिकार की रक्षा अधिनियम, 1993
- घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005
- बाल-विवाह निषेध अधिनियम, 2006
- अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956
- गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971
- अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निषेध) अधिनियम, 1995
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986
- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
- हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
- भारतीय इसाई विवाह अधिनियम, 1872
- बंधुआ मजदूर प्रथा (समापन) अधिनियम, 1976
- संविदा श्रम (नियमन एवं समापन) अधिनियम, 1970
- कारखाना अधिनियम, 1948
- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947
- असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008
- महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी अधिनियम, 2005
- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948
- माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम, 2007
- सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम १८८२
- जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, २०१९
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