दक्षिण एशियाई सिनेमा |
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मलयाली सिनेमा (इसे मौलीवूड, मलयालम सिनेमा, केरल सिनेमा, मलयालम फ़िल्म उद्योग के रूप में भी जाना जाता है।) केरल, भारत आधारित फ़िल्म उद्योग है जहाँ मुख्यतः मलयालम भाषा की फ़िल्में बनती हैं।
मलयाली फ़िल्मों की शुरूआत (१९२० से शुरूआत) तिरुवनन्तपुरम आधारित थी। यद्यपि फ़िल्म उद्योग का विकास और अलंकरण 1940 के दशक के अन्त से आरम्भ हुआ। उसके पश्चात फ़िल्म उद्योग चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) में स्थानांतरित हो गया, जो बाद में दक्षिण भारतीय सिनेमा का केन्द्र बन गया। १९८० के दशक के अन्त में मलयाली सिनेमा पुनः विस्थापित होकर केरल में स्थापित हो गया।[1]
भारत के समृद्ध भारत का चलचित्र इतिहास में केरल का गौरवपूर्ण स्थान है। केरल ने विश्वप्रसिद्ध अनेक फिल्मकारों को जन्म दिया है। 1906 में कोष़िक्कोड में केरल की प्रथम चलचित्र प्रदर्शनी आयोजित हुई थी। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशकों में चलचित्र प्रदर्शनियों के स्थान पर स्थायी सिनेमाघर बन गए। प्रारंभ में तमिल चित्रों की प्रदर्शन होती थीं। प्रथम मलयालम सिनेमा जे. सी. डानियल का 'विगत कुमारन' (1928) माना जाता है जो मूक चलचित्र था। इसी वर्ष मार्त्ताण्ड वर्मा नामक दूसरा चित्र भी सिनेमा हॉल पहुँच गया। 'बालन' (1938) सिनेमा प्रथम बोलता चलचित्र था। 1948 में आलप्पुष़ा में केरल का प्रथम स्टुडियो 'उदया' स्थापित हुआ। व्यापारिक दृष्टि से सफलता प्राप्त पहली मलयालम फिल्म 'जीवित नौका' (1951) थी। जब तिरुवनन्तपुरम में पी. सुब्रह्मण्यम का मेरीलैंड स्टुडियो स्थापित हुआ तब फिल्म उद्योग और अधिक विकसित हुआ। 'नीलक्कुयिल' (1954) फिल्म की प्रदर्शन से मलयालम फिल्म राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो गई।
1960 से मलयालम में फिल्मों का व्यापक स्तर पर निर्माण होने लगा। जहाँ पहले तिक्कुरुश्शि सुकुमारन नायर, कोट्टारक्करा श्रीधरन नायर धूम मचा रहे थे वहाँ सत्यन, प्रेमनज़ीर लोकप्रिय सितारे बने। फिर तो उमर, मधु, पी. जे. एन्टनी, अडूर भासि, बहादूर, शीला, अम्बिका आदि सितारों का ताँता बँध गया। 1961 में प्रथम रंगीन फिल्म 'कण्टमवच्चा कोट्टु' निकली। रामु कार्याट्टु की 'चेम्मीन' (1966) फिल्म ने मलयालम फिल्म के इतिहास में नया अध्याय खोला। वयलार रामवर्मा के गीतों के बोल देवराजन का संगीत और येशुदास का गाना तीनों ने मिलकर मलयाली जन रुचि को स्तरीय बनाया। फिल्मी गीत रचना, संगीत रचना एवं गायन तीनों क्षेत्रों में कलाकारों की संख्या बढ़ती चली गई। अडूर गोपाल कृष्णन के 'स्वयंवरं' (1974) फिल्म ने मलयालम फिल्म - जगत् में नवीन धारा उत्पन्न की। अरविंद का 'कांचन सीता' (1978), पी. ए. बक्कर का 'कबनी नदी चुवन्नप्पोल' (1976) आदि सिनेमा ने नई लहर जगाई। नव सिनिमा जगत के प्रतिभावानों में के. आर. मोहनन, पवित्रन, जोन एब्रहाम, के. पी. कुमारन आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
अस्सी के दशक में लोकप्रिय फिल्मों में नये सितारों एवं नये निर्देशकों का आगमन हुआ। मोहनलाल, मम्मूट्टि, गोपी, नेडुमुटि वेणु आदि अभिनेता इसी काल में धूम मचाने लगे। आज मलयालम फिल्म - उद्योग भारतीय फिल्म - उद्योग क्षेत्र के सर्वाधिक विकसित फिल्म - उद्योगों में एक माना जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर गिने जाने वाले फिल्म - जगत के व्यक्तित्वों की संख्या काफी बड़ी है। पी. जे. एन्टोनी, गोपी, बालन के. नायर, मम्मूट्टि, मोहनलाल, मुरली, सुरेशगोपी, बालचन्द्र मेनन आदि अभिनेताओं को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। मलयालम भाषी न होते हुए भी शारदा, मोनिशा, शोभना, मीरा जास्मिन आदि को मलयालम फिल्मों की अभिनेत्रियों के रूप में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। फाल्के अवार्ड से विभूषित एक मात्र मलयाली अडूर गोपालकृष्णन हैं। किन्तु आज के मलयालम फिल्म जगत में कलात्मक मूल्यों से युक्त आर्ट फिल्मों तथा कलात्मक मूल्यों से हीन बाज़ारू सिनेमा के बीच की विभाजक रेखा मिटती जा रही है।