मुनि जिनविजय (१८८८-१९७६) भारत के एक रावणा राजपूत प्राच्यविद्याविद्, पुरातत्त्वविद्, भरतविद् थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक अमूल्य ग्रंथों का अध्ययन, संपादन तथा प्रकाशन किया। उन्होंने साहित्य तथा संस्कृति के प्रोत्साहन हेतु कई शोध संस्थानों का संस्थापन तथा संचालन किया। भारत सरकार ने आपको पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया।
मुनि जिनविजय के अनुसन्धान से हिन्दी भाषा और साहित्य को अपने पाँवों पर खड़े होने की भूमि मिली। उनके काम से भारतीय राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के कई नए पहलू उजागर हुए। उनके अनुसंधान का क्षेत्र प्राचीन साहित्य था।उनके कार्य का अधिकांश जैन धर्म और प्राकृत-अपभ्रंश से संबंधित था। मुनि जिनविजय द्वारा अन्वेषित और सम्पादित बहुत सारा साहित्य जैनेतर भी था। आगे चलकर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मुनि जिनविजय की अन्वेषित और संपादित जैन और जैनेतर कुछ रचनाओं के हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान की पहचान की। [1]
आपका जन्म भीलवाड़ा जिले (राजस्थान) के रूपाहेली नामक ग्राम में हुआ था। पिता बृद्धिसिंघ ने आपका नाम किसनसिंह रखा था[3]। १८९९ में पिता की मृत्यु के पश्चात आप स्थानकवासी साधुओं के साथ निवास करने लगे। १९०३ में आपने साधु वेश धारण किया परन्तु ज्ञान विकास अभाव के कारण आपने आपने सात वर्ष पश्चात यतिवेश त्याग दिया। १९१० में आपने श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय से दीक्षा ग्रहण की और आपका नाम जिनविजय रखा गया[4][5]।
मेहसाना में मुनिजी का आचार्य कान्तिविजय तथा उनको शिष्यों चतुर्विजय और पुण्यविजय से संपर्क हुआ। मुनिजी ने आचार्य कान्तिविजय इतिहासमाला का आरम्भ किया जिसमे कई गाढ़ ग्रंथों का प्रकाशन हुआ[6]। इसी समय मुनिजी का पुणे निविष्ट भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान के संस्थापकों से परिचय हुआ। पुणे जाकर मुनिजी प्राच्यविद्या प्रतिष्टान को देखकर अति प्रसन्न हुए। पुणे में आपने जैन साहित्य संशोदक नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। यहीं पर आपका लोकमान्य तिलक, रामकृष्ण भांडारकर तथा महात्मा गांधी से सम्पर्क हुआ। मुनिजी लोकमान्य तिलक की विचारधारा से बड़े प्रभावित हुए, १९२० में गांधीजी के निमंत्रण के कारण आप बम्बई (वर्त्तमान मुम्बई) गए।
गांधीजी से पुनः संपर्क स्थापित करने के पश्चात आपने महात्माजी के साथ अहमदाबाद के लिए प्रस्थान किया। अहमदाबाद में गांधीजी से निवेदन करके आप गुजरात विद्यापीठ के सदस्य बने तथा साधु वेश को त्याग दिया। गुजरात विद्यापीठ में मुनिजी ने गुजरात पुरातत्व मंदिर की स्थापना की तथा पुरातत्व मंदिर ग्रंथावली का प्रकाशन प्रारम्भ किया। विद्यापीठ में मुनिजी का जर्मनी से आए हुए कुछ विद्वानों से संपर्क हुआ। विद्वानों के निमंत्रण स्वीकार करके मुनिजी ने जर्मनी के लिए प्रस्थान किया। जर्मनी में मुनिजी का बॉन, हैम्बर्ग तथा लैपज़िग विश्वविद्यालयों के प्राच्यविद्या विद्वानों से परिचय हुआ।
जर्मनी से १९२९ दिसम्बर में लौटकर मुनिजी ने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में भाग लिया। लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। १९३० में मुनिजी बहादुर सिंह सिंघी के निमंत्रण पर कलकत्ता (वर्त्तमान कोलकाता) गए और वहाँ से शांतिनिकेतन गए। शांतिनिकेतन से लौटकर श्री सिंघी के निवेदन अनुसार सिंघी जैन विद्यापीठ तथा सिंघी जैन ग्रंथमाला की योजना बनायीं। मार्च १९३० में मुनिजी ने गांधीजी के दांडी कूच नमक सत्याग्रह में भाग लिया और नासिक जेल में भेजे गए। नासिक जेल में मुनिजी का कन्हैयालाल मुंशी से संपर्क हुआ। जेल से छुटकर मुन्शीजी की प्रेरणा से मुनिजी दिसंबर १९३० में शांतिनिकेतन गए और सिंघी जैन विद्यापीठ तथा सिंघी जैन ग्रंथमाला का कार्य प्रारम्भ किया। ग्रन्थमाला का प्रथम प्रबंध चिंतामणि प्रकाशित किया गया[7]।
१९३८ में मुनिजी ने कन्हैयालाल मुंशी के आग्रह पर भारतीय विद्या भवन की योजना बनाई तथा इसके संचालन कार्य में संलग्न हो गए। सिंघी जैन ग्रंथमाला का सम्पादन कार्य निर्विघ्न रूप से मुनिजी के निर्देशन में ही रहा। आपके मार्गदर्शन में कई अध्येताओं ने पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की[8]।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात बढ़ती हुई खाद्य समस्या से मुनिजी में स्वावलंबन की धारणा उत्पन्न हुई। इसी लक्ष्य से आपने १९५० में चित्तौड़गढ़ के समीप चंदेरिया ग्राम में ज़मीन लेकर आश्रम स्थापित किया। मुनिजी ने इस भूखंड में खेती बाड़ी प्रारम्भ कर दी। विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन का जब चंदेरिया में आगमन हुआ तो मुनिजी ने अपनी भूमि विनोबाजी को समर्पित कर दी।[9]
१९५० में ही राजस्थान के प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के संग्रह तथा प्रकाशन हेतु राजस्थान पुरातत्व मंदिर (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान) की स्थापना की गयी। मुनिजी को इस संस्था का सम्मान्य (ऑनरेरी) निर्देशक नियुक्त किया गया। प्रतिष्टान में मुनिजी ने हज़ारों प्राचीन ग्रंथों का संग्रह किया तथा अनेक ग्रंथों का संपादन और प्रकाशन किया। १९६७ में आपने संस्था निर्देशक का पद त्याग दिया।
चित्तौड़ दुर्ग के सम्मुख मुनिजी ने सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र सूरि स्मारक मंदिर की स्थापना की। मंदिर की समीप भामाशाह की स्मृति में मुनिजी द्वारा स्थापित भामाशाह भारती भवन है।
मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित ग्रंथों की सूची विशाल है। सिंघी जैन ग्रंथमाला के कुछ प्रकाशन हैं: जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पुरातन प्रबंध संग्रह, प्रबंध चितामणि, विविध तीर्थ कल्प (जिनप्रभ सूरि कृत), कुवलयमाला, धर्मोपदेशमाला, खरतरगच्छपट्टावलि (जिनपाल कृत) तथा खरतरगच्छबृहदगुर्वावलि। १९३५ में डॉ॰ दशरथ शर्मा ने पट्टावलियों के ऐतिहासिक महत्व का विवेचन किया था[10]।
जिनविजय मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ के अनुसार मुनिजी ने राजस्थान पुरातत्व मंदिर के निर्देशक रूप में ८६ ग्रन्थ प्रकाशित किये थे। मुनिजी ने स्वयं जिन ग्रंथों का संपादन किया उनकी सूची निम्नलिखित है[11]:
यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो पुस्तकालय संग्रह में मुनि जिनविजय सम्पादित पुस्तकों की सूची[1]
मुनिजी के पूर्वजो ने 1857 ई के स्वात्र्युद्ध के समय अजमेर मेरवाङा जिले में अंग्रेजों के विरुद्ध आचरण किया। अतः प्रतिशोध के रूप में अंग्रेजी सरकार द्वारा इनकी जमीन, जायदाद, जागीर जब्त कर ली ग्ई और इनके परिवार के अनेक लोगों को मार भी डाला गया। इनके दादा अपनें दो पुत्रों इन्दरसिह और विरदीसिह के साथ किसी तरह बच निकले और उन्होंने लगभग सारी जिन्दगी अज्ञातवास में इधर-उधर घूमते फिरते ही व्यतीत की। वे भटकते भटकते रूपाहेली पहुंचे वहां के ठाकुर से सहानुभूति प्राप्त करके वहां अपने पुत्रो को रख गए। वृद्धिसिह सिरोही राज्य में जंगलात विभाग के अधिकारी बनें। वहीं उनका विवाह हुआ। तत्पश्चात वे रूपाहेली लौट आये। ।