मेघदूतम् महाकवि कालिदास द्वारा रचित विख्यात दूतकाव्य है। इसमें एक यक्ष की कथा है जिसे कुबेर अलकापुरी से निष्कासित कर देता है। निष्कासित यक्ष रामगिरि पर्वत पर निवास करता है। वर्षा ऋतु में उसे अपनी प्रेमिका की याद सताने लगती है। कामार्त यक्ष सोचता है कि किसी भी तरह से उसका अल्कापुरी लौटना संभव नहीं है, इसलिए वह प्रेमिका तक अपना संदेश दूत के माध्यम से भेजने का निश्चय करता है। अकेलेपन का जीवन गुजार रहे यक्ष को कोई संदेशवाहक भी नहीं मिलता है, इसलिए उसने मेघ के माध्यम से अपना संदेश विरहाकुल प्रेमिका तक भेजने की बात सोची। इस प्रकार आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर उमड़ते मेघों ने कालिदास की कल्पना के साथ मिलकर एक अनन्य कृति की रचना कर दी।[1]
मेघदूत की लोकप्रियता भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है। जहाँ एक ओर प्रसिद्ध टीकाकारों ने इस पर टीकाएँ लिखी हैं, वहीं अनेक संस्कृत कवियों ने इससे प्रेरित होकर अथवा इसको आधार बनाकर कई दूतकाव्य लिखे। भावना और कल्पना का जो उदात्त प्रसार मेघदूत में उपलब्ध है, वह भारतीय साहित्य में अन्यत्र विरल है। नागार्जुन ने मेघदूत के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में इसे हिन्दी वाङ्मय का अनुपम अंश बताया है।[2]
मेघदूतम् काव्य दो खंडों में विभक्त है। पूर्वमेघ में यक्ष बादल को रामगिरि से अलकापुरी तक के रास्ते का विवरण देता है और उत्तरमेघ में यक्ष का यह प्रसिद्ध विरहदग्ध संदेश है जिसमें कालिदास ने प्रेमीहृदय की भावना को उड़ेल दिया है। कुछ विद्वानों ने इस कृति को कवि की व्यक्तिव्यंजक (आत्मपरक) रचना माना है। "मेघदूत" में लगभग ११५ पद्य हैं, यद्यपि अलग अलग संस्करणों में इन पद्यों की संख्या हेर-फेर से कुछ अधिक भी मिलती है। डॉ॰ एस. के. दे के मतानुसार मूल "मेघदूत" में इससे भी कम १११ पद्य हैं, शेष बाद के प्रक्षेप जान पड़ते हैं।
अधिकांश विचारकों का मानना है कि कालिदास ने अपने जीवन की किसी विरह व्यथा कथा को मेघदूत में संदेश बनाकर निबद्ध किया है। हिंदी कवि नागार्जुन के अनुसार-
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका प्रथम दिवस आषाढ़ मास का देख गगन में श्याम घन-घटा विधुर यक्ष का मन जब उचटा खड़े-खड़े जब हाथ जोड़कर चित्रकूट के सुभग शिखर पर उस बेचारे ने भेजा था जिनके द्वारा ही संदेशा उन पुष्करावर्त मेघों का साथी बनकर उड़ने वाले कालिदास! सच-सच बतलाना पर पीड़ा से पूर-पूर हो थक-थक कर और चूर-चूर हो अमल-धवल गिरि के शिखरों पर प्रियवर! तुम कब तक सोये थे? रोया यक्ष या तुम रोये थे? कालिदास! सच-सच बतलाना.
महाभारत के "नलोपाख्यान" नामक आख्यान में नल तथा दमयंती द्वारा इसको दूत बनाकर परस्पर संदश प्रेषण की जो कथा आई है, वह भी दूतकाव्य की परंपरा का ही अनुसरण है। कवि जिनसे (९वीं शती ईसवी) "मेघदूत" की तरह ही मंदाक्रांता छंद में तीर्थकर पार्श्वनाथ के जीवन से संबद्ध चार सर्गों का एक काव्य "पार्श्वाभ्युदय" लिखा जिसमें मेघ के दौत्य के रूप में मेघदूत के शताधिक पद्य समाविष्ट हैं। १५वीं शताब्दी में "नेमिनाथ" और "राजमती" वाले प्रसंग को लेकर "विक्रम" कवि ने "नेमिदूत" काव्य लिखा, जिसमें मेघूदत" के १२५ पद्यों के अंतिम चरणों को समस्या बनाकर कवि ने नेमिनाथ द्वारा परित्यक्त राजमती के विरह का वर्णन किया है। इसी काल में एक अन्य जैन कवि "चरित्रसुंदर गणि ने शांतरसपरक जैन काव्य "शीलदूत" की रचना की। इन दो कृतियों के अतिरिक्त विमलकीर्ति का "चंद्रदूत", अज्ञात कवि का "चेतोदूत" और मेघविजय उपाध्याय का "मेघदूत समस्या" इस परंपरा के अन्य जैन काव्य हैं।
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
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