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मोइनुद्दीन चिश्ती | |
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धर्म | इस्लाम |
पाठशाला | हनफ़ी, मतुरीदी |
आदेश | चिश्ती तरीक़ा |
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
जन्म |
1 फरवरी 1143 CE सीस्तान या इस्फ़हान प्रांत [1] |
निधन |
15 मार्च 1236 CE अजमेर, राजस्थान, भारत |
शांतचित्त स्थान | अजमेर शरीफ़ दरगाह |
धार्मिक जीवनकाल | |
गुरु | ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी,[2] Najīb al-Dīn Nakhshabī[2] |
शिष्य | Muḥammad Mubārak al-ʿAlavī al-Kirmānī,[3] Ḥāmid b. Faḍlallāh Jamālī,[3] ʿAbd al-Ḥaqq Muḥaddith Dihlavī,[3] Ḥamīd al-Dīn Ṣūfī Nāgawrī,[4] Fakhr al-Dīn Chishtī,[4] and virtually all subsequent mystics of the Chishtiyya order |
हजरत ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की मज़ार अजमेर शहर में है। यह माना जाता है कि मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ५३७ हिज़री संवत् अर्थात ११४३ ई॰ पूर्व पर्शिया के सिस्तान क्षेत्र में हुआ।[7] अन्य खाते के अनुसार उनका जन्म ईरान के इस्फ़हान नगर में हुआ। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के खादिम पूर्वजों के वंसज है। ख़्वाजा नवाब के नाम से भी जाना जाता है। ग़रीब नवाज़ इन्हें लोगों द्वारा दिया गया लक़ब है।[8]
चिश्तिया तरीका अबू इसहाक़ शामी ने ईरान के शहर "चश्त" में शुरू किया था, इस लिए इस तरीक़े को "चश्तिया" या चिश्तिया [9] तरीका नाम पड गया। लेकिन वह भारत उपखन्ड तक नहीं पहुन्चा था। मोईनुद्दीन चिश्ती ने इस सूफ़ी तरीक़े को भारत उप महाद्वीप या उपखन्ड में स्थापित और प्रचार किया। यह तत्व या तरीक़ा आध्यात्मिक था, भारत भी एक आध्यात्म्कि देश होने के नाते, इस तरीक़े को समझा, अपनाया। मज़हब रूप से यह तरीका बहुत ही शान्तिपूर्वक और धार्मिक विग्नान से भरा होने के कारण भारतीय समाज में इन्के सिश्यगण अधिक हुवे। इन्की चर्चा दूर दूर तक फैली और लोग दूर दूर से इसके दरबार में हाजिर होते, और मज़हबी ग्यान पाते।
अजमेर में जब वे मज़हबी प्रचार करता तो चिश्ती तरीके से। इस तरीके में अल्लाह गान पद्य रूप में गायन के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया जाता था। मतलब ये कि, क़व्वाली, समाख्वानी, और उपन्यासों द्वारा लोगों को अल्लाह के बारे में बताना और मुक्ति मार्ग दर्शन करवाना।
इस तरह स्थानीय लोगों में सूफिज्म और इस्लाम का प्रचार प्रसार किया गया।
६३३ हिज़री के आते ही उन्हें पता था कि यह उनका आखरी वर्ष है, जब वे अजमेर के जुम्मा मस्जिद में अपने प्रशंसको के साथ बैठे थे, तो उनहोंने शेख अली संगल (र अ) से कहा कि वे हज़रत बख्तियार काकी (र अ) को पत्र लिखकर उन्हें आने के लिये कहें। ख्वाजा साहेब के बाद क़ुरान-ए-पाक, उनका गालिचा और उनके चप्पल काकी (र अ) को दिया गया और कहा "यह विशवास मुहम्म्द (स अ व्) का है, जो मुझे मेरे पीर-ओ-मुर्शिद से मिला हैं, मैं आप पर विशवास करके आप को दे रहा हुँ और उसके बाद उनका हाथ लिया और नभ की ओर देखा और कहा "मैंने तुम्हें अल्लाह पर न्यास्त किया है और तुम्हें यह मौका दिया है उस आदर और सम्मान प्राप्त करने के लिए।" उस के बाद ५ और ६ रजब को ख्वाजा साहेब अपने कमरे के अंदर गए और क़ुरान-ए-पाक पढने लगे, रात भर उनकी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन सुबह को आवाज़ सुनाई नहीं दी। जब कमरा खोल कर देखा गया, तब वे स्वर्ग चले गये थे, उनके माथे पर सिर्फ यह पंक्ति चमक रही थी "वे अल्लाह के मित्र थे और इस संसार को अल्लाह का प्रेम पाने के लिए छोड दिया।" उसी रात को काकी (र अ) को मुहम्मद (स अ व्) स्वपन में आए थे और कहा "ख्वाजा साहब अल्लाह के मित्र हैं और मैं उनहें लेने के लिये आया हुँ। उनकी जनाज़े की नमाज़ उन के बड़े पुत्र ख्वाजा फ़क्रुद्दीन (र अ) ने पढाई। हर साल हज़रत के यहाँ उनका उर्स बड़े पैमाने पर होता है।
हुसैन इब्न अली के पाशस्त में इन्हों ने यह कविता लिखी, जो दुनियां भर में मशहूर हुई।
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
शाह हैं हुसैन, बादशाह हैं हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीनपनाह अस्त हुसैन
धर्म हैं हुसैन, धर्मरक्षक हैं हुसैन
सरदाद न दाद दस्त दर दस्त ए यज़ीद
अपना सर पेश किया, मगर हाथ नहीं पेश किया आगे यज़ीद के
हक़्क़ाक़-ए बिना-ए ला इलाह अस्त हुसैन
सत्य है कि हुसैन ने शहादा की बुनियाद रखी