येल्लप्रगड सुब्बाराव | |
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भारतीय वैज्ञानिक | |
जन्म |
12 जनवरी 1895 भीमावरम, आंध्रप्रदेश, भारत |
मृत्यु |
9 अगस्त 1948 | (उम्र 53 वर्ष)
राष्ट्रीयता | भारतीय |
क्षेत्र | चिकित्सा विज्ञान |
संस्थान | लेडेरले प्रयोगशालाएँ, अमेरिकन सायनामीड का एक भाग (१९९४ में व्येथ द्वारा अधिग्रहित, अब फाइजर के पास) |
शिक्षा | हार्वर्ड विश्वविद्यालय |
प्रसिद्धि |
पेशी गतिविधियों में फोस्फोक्रिएतिनीन और एडीनोसिन ट्राइफॉस्फेट (ए.टी.पी.) की खोज के लिए |
येल्लप्रगड सुब्बाराव (तेलुगु: యెల్లప్రగడ సుబ్బారావు) (12 जनवरी 1895–9 अगस्त 1948) एक भारतीय वैज्ञानिक थे जिन्होंने कैंसर के उपचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपने कैरियर का अधिकतर भाग इन्होने अमेरिका में बिताया था लेकिन इसके बावजूद भी ये वहाँ एक विदेशी ही बने रहे और ग्रीन कार्ड नहीं लिया, हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका के कुछ सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सा अनुसंधानों का इन्होने नेतृत्व किया था। एडीनोसिन ट्राइफॉस्फेट (ए.टी.पी.) के अलगाव के बावजूद इन्हें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पद नहीं दिया गया।[1].
येल्लप्रगड सुब्बाराव का जन्म एक तेलुगु नियोगी ब्राह्मण परिवार में भीमावरम, मद्रास प्रेसिडेन्सी (अब पश्चिम गोदावरी जिला, आंध्र प्रदेश) में हुआ था। राजमुंदरी में अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान इन्हें काफी कष्टदायक समय की से गुज़ारना पड़ा (घनिष्ठ सम्बन्धियों की रोगों से अकाल मृत्यु के कारण)। अंततः इन्होने अपनी मेट्रिक की परीक्षा तीसरे प्रयास में हिन्दू हाई स्कूल से पास की। ये काफी लम्बे समय से दस्त से पीड़ित थे और यह रोग काफी उपचारों के बाद नियन्त्रण में आया। उस समय के प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ॰ अचंता लक्ष्मीपति ने इनका इलाज किया जिससे ये ठीक हो गए थे। इन्होने प्रेसिडेंसी कॉलेज से इंटरमिडीएट परीक्षा उत्तीर्ण की और मद्रास मेडिकल कॉलेज में प्रवेश किया, जहां पर इनकी शिक्षा का खर्च मित्रों और कस्तूरी सूर्यनारायण मूर्ति (जिनकी बेटी के साथ आगे चलकर इनकी शादी हुई) द्वारा उठाया गया। महात्मा गाँधी के ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के आवाहन के सम्मान में इन्होने खादी की शल्य पोषाक पहनना शुरू कर दिया और इसके कारण इन्हें अपने शल्यचिकित्सा के प्रोफेसर एम्. सी. ब्रेडफिल्ड की नाराज़गी का सामना करना पड़ा। हालांकि इन्होने अपने लिखित परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किये थे, परन्तु इस प्रकरण के कारण इन्हें एक पूर्ण एम्.बी.बी.एस. की डिग्री की बजाय एल.एम.एस. प्रमाणपत्र से संतोष करना पड़ा।[2]
सुब्बाराव ने मद्रास मेडिकल सेवा में प्रवेश करने की कोशिश की परन्तु इन्हें इसमें कोई सफलता हाथ नहीं लगी। इन्होंने फ़िर डॉ॰ लक्ष्मीपति आयुर्वेदिक कॉलेज, मद्रास में शरीररचना-विज्ञान के व्याख्याता के रूप में एक नौकरी ली। ये आयुर्वेदिक दवाईयों की चिकित्सा शक्तियों से इतने मोहित हुए की ये आयुर्वेद को आधुनिक स्तर पर पह्चान दिलाने के लिए अनुसन्धान में जुट गए।[3]
एक अमेरिकी चिकित्सक, जो की रॉकफेलर छात्रवृत्ति पर भारतीय दौरा कर रहे थे, उनके साथ एक संयोग मुलाकात से इनका मन बदल गया। मल्लादी सत्यालिंगा नायकर दानसंस्था के समर्थन के वादे और इनके ससुर द्वारा दी गयी वित्तय मदद से सुब्बाराव अमरीका के लिए निकल पड़े। ये २६ अक्टूबर १९२२ को बोस्टन पहुंचे।[4]
हार्वर्ड मेडिकल स्कूल से डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात ये हार्वर्ड में ही एक कनिष्ठ संकाय सदस्य के तरह जुड़ गए। साइरस फिस्के के साथ इन्होने शरीर के तरल पदार्थो एवं उत्तको में फॉस्फोरस की मात्रा का आंकलन करने की विधि विकसित की।[5] पेशी गतिविधियों में फोस्फोक्रिएतिनीन और एडीनोसिन ट्राइफॉस्फेट (ए.टी.पी.) की खोज कर इन्होने १९३० में जैवरसायन विज्ञान की पाठयपुस्तको में अपना दर्जित किया। उसी वर्षा इन्होने अपनी पीएचडी की डिग्री भी प्राप्त की।[6]
हार्वर्ड में एक नियमित संकाय न मिलने के कारण ये लेडेरले प्रयोगशाला, जो की उस समय अमेरिकेन सायनामीड का एक भाग था (१९९४ में व्येथ द्वारा अधिग्रहित, अब फाइजर के पास), उसमें शामिल हो गए। लेडेरले में इन्होंने फोलिक एसिड (विटामिन बी ९) का संश्लेषण करने की विधि खोजी, यह कार्य लूसी विल्स के फोलिक एसिड का एनीमिया के खिलाफ सुरक्षात्मक घटक के रूप में होने के कार्य पर आधारित था।[7] अपने फोलिक एसिड पर किये हुए कार्य को आगे लेजाते हुए इन्होंने फोलिक एसिड का नेदनिक रूप में प्रयोग करते हुए दुनिया के सबसे पहले कीमोथेरेपी एजेंट (कैंसर विरोधी दावा) मिथोत्रेक्सेट का संश्लेषण किया, जो की आज भी व्यापक प्रोग में है।[8][9] इन्होने डाइएथिलकार्बामज़ेपिन (हेतराजान) की खोज भी की, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हत्तीरोग (फ़ाइलेरिया) में प्रयोग किया गया था।[10] सुब्बाराव की देख रेख में कार्य करते हुए बेंजामिन डुग्गर ने दुनिया के पहले टेट्रासाइक्लिन एंटीबायोटिक औरोमाइसिन की १९४५ में खोज की। यह खोज उस समय के सबसे वितरित वैज्ञानिक प्रयोग का प्रतिफल था। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में वापस लौट रहे अमेरिकी सेनिको को निर्देश दिया गया था की वे जहाँ भी थे वहाँ की मिट्टी के नमूने एकत्र करें और उसे लेडेरले की प्रयोगशाला में प्राकृतिक मिट्टी कवक द्वारा उत्पादित संभव विरोधी बैक्टीरियल एजेंट की जांच के लिए लेकर आएँ।[11]
सुब्बाराव की स्मृति दूसरों की उपलब्धियों और इनके अपने स्वयं के हितों को बढ़ावा देने में विफलता के कारण छिप गयी। एक पेटेंट वकील यह देख कर चकित रह गए थे की इन्होंने अपने कार्य से अपना नाम जोड़ने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया था जो की वैज्ञानिक दुनियाभर में नियमित रूप से करते हैं। इन्होंने कभी भी प्रेस को साक्षात्कार के लिए अनुमति नहीं दी और न ही वाहवाही बांटने के लिए अकादमियों का दौरा किया और न ही ये कभी व्याखान दौरे पर गए।
इनके सहयोगी, जॉर्ज हित्चिंग्स, जिन्हें १९८८ में एलीयान गेरट्रुद के साथ चिकित्सा का साझा नोबेल पुरस्कार मिला था, का कहना था - "सुब्बाराव द्वारा अलग किये गए न्यूक्लेयोटाइडस कुछ साल बाद अन्य कर्मचारियों द्वारा फिर से खोजे जाने पड़े क्योंकि फिस्के की जाहिर तौर पर ईर्ष्या के कारण सुब्बाराव के योगदान को दिन की रोशनी नहीं देखने दी।"[3]
इनके सम्मान में अमेरिकी सायनामिड द्वारा एक फफूंद सुब्बरोमाइसिस स्प्लेनडेंस नामित किया गया था।[12]
अप्रैल १९५० के अरगोसी पत्रिका में लिखते हुए डोरोन के. ऐंट्रिम ने लिखा था- "आपने शायद कभी नहीं डॉ॰ येल्लाप्रगदा सुब्बाराव के बारें में सुना होगा, शायद क्योंकि वह रहते थे ताकि तुम आज जीवित रहो और अच्छा जीवन जियो। क्योंकि वह रहते थे, अब आप एक लम्बा जीवन जी सकते हैं।"[13]
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