रमेशचन्द्र झा | |
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जन्म | 08 मई 1928 मोतिहारी, बिहार |
मौत | 07 अप्रैल 1994 मोतिहारी,बिहार |
पेशा | स्वतंत्रता सेनानी, कवि, कथाकार, पत्रकार |
भाषा | हिन्दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी, मैथिली, संस्कृत |
राष्ट्रीयता | भारत |
काल | 50's, 60's, 70's |
जीवनसाथी | सूर्यमुखी देवी |
बच्चे | विनायक झा, रीता झा |
रिश्तेदार | संजीव के झा (पौत्र) |
हस्ताक्षर | चित्र:R.C. Jha Signature.jpg |
रमेशचन्द्र झा[1](8 मई 1928 - 7 अप्रैल 1994) भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय क्रांतिकारी थे जिन्होंने बाद में साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। वे बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ साथ हिन्दी,मैथिली के कवि, उपन्यासकार और पत्रकार भी थे।
बिहार राज्य के चम्पारण जिले का फुलवरिया गाँव उनकी जन्मस्थली है। उनकी कविताओं, कहानियों और ग़ज़लों में जहाँ एक तरफ देशभक्ति और राष्ट्रीयता का स्वर है, वहीं दूसरी तरफ मानव मूल्यों और जीवन के संघर्षों की भी अभिव्यक्ति है। आम लोगों के जीवन का संघर्ष, उनके सपने और उनकी उम्मीदें रमेश चन्द्र झा कविताओं का मुख्य स्वर है।
"अपने और सपने : चम्पारन की साहित्य यात्रा" नाम के एक शोध-परक पुस्तक में उन्होंने चम्पारण की समृद्ध साहित्यिक विरासत को भी बखूबी सहेजा है। यह पुस्तक न केवल पूर्वजों के साहित्यिक कार्यों को उजागर करता है बल्कि आने वाले संभावी साहित्यिक पीढ़ी की भी चर्चा करती है।[2]
रमेशचंद्र झा का जन्म चंपारण, (बिहार) जिले के सुगौली स्थित फुलवरिया गाँव में 8 मई 1928 को हुआ था। इनके पिता लक्ष्मी नारायण झा जाने-माने देश-भक्त और स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेज़ी हुकूमत से जमकर लड़ाई की और इस वजह से कई बार गिरफ़्तार भी हुए। यहाँ तक की चम्पारण सत्याग्रह आन्दोलन के समय 15 अप्रैल 1917 को जिस दिन महात्मा गांधी चम्पारन आये, ठीक उसी दिन वे अंग्रेजो द्वारा गिरफ़्तार कर लिए गए।
अपने पिता और तात्कालिक परिवेश से प्रभावित होकर रमेश चन्द्र झा बचपन में ही बाग़ी बन गए और सिर्फ 14 साल की उम्र में उनपर अंग्रेज़ी पुलिस चौकी लूटने का संगीन आरोप लगा।
रमेश चन्द्र झा का समय असहयोग आन्दोलन के बाद और नमक सत्याग्रह के पहले का है, जो भारतीय स्वाधीनता के महासमर की आधारशिला भी कही जाती है। इन पर ऐसे ज्वलन्त समय का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका और केवल 14 वर्ष की उम्र में ही ये स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में कूद पड़े। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में इन्होंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। चंपारण के सुगौली स्थित पुलिस स्टेशन में इनके नाम पर कई मुकदमे दर्ज किये गए जिनमें थाना डकैती काण्ड सबसे ज्यादा चर्चित रहा। तब वे रक्सौल के हजारीमल उच्च विद्यालय के छात्र थे।[3] भारत छोड़ो आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए इन्हें 15 अगस्त 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा ताम्र-पत्र देकर पुरस्कृत किया गया था।
जेल और गिरफ़्तारी के दिनों में रमेश चन्द्र झा ने भारतीय साहित्य का अध्ययन किया और आज़ादी के बाद अन्य कांग्रेसियों की तरह राजनीति न चुनकर कवि और लेखक बनना पसंद किया। अपने एक काव्य संग्रह में उन्होंने लिखा है- "बहुत मजबूरियों के बाद भी जीता चला आया....शराबी सा समूची ज़िंदगी पीता चला आया / हज़ारों बार पनघट पर पलट दी उम्र की गागर....मगर अब वक़्त भी कितना गया बीता चला आया..." इसी तरह से वे एक जगह लिखते हैं- "जंगल झाड़ भरे खंडहर में सोया पाँव पसार / दलित ग़ुलाम देश का मारा हारा थका फ़रार"
रमेश चंद्र झा न सिर्फ़ एक राष्ट्रवादी कवि थे, बल्कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण कई बार जेल भी गए । वे उस समय हज़ारीमल हाई स्कूल, रक्सौल के छात्र थे और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पुलिस थानों में डकैती के कई मामलों में शामिल थे। अपने स्कूली दिनों में उन्होंने छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया जिसके कारण उन्हें बाद में स्कूल से निकाल दिया गया। एस. आर बक्शी और रितु चतुर्वेदी ने अपनी शोध आधारित पुस्तक में लिखा है कि "अपने फुलवरिया गांव में बड़ी मुश्किल से गोकुल ठाकुर ने रमेश चंद्र झा और रमाकांत झा को सुगांव जाकर सामान हटाने का आदेश दिया और सामूहिक जुर्माना लगाने की शर्त भी रखी। चूंकि रमेश की उम्र बहुत ही कम थे, इसलिए उनके गिरफ्तार होने की ज्यादा संभावना नहीं थी। लेकिन दोनों को ही गिरफ्तार कर लिया गया और भारतीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 38(v) के तहत दो साल की सजा दी गई..."[4]प्रख्यात साहित्यकार कन्हैयालाल प्रभाकर मिश्र ने एक पुस्तक की प्रस्तावना में रमेश चंद्र झा के बारे में लिखा है, "रमेश चंद्र झा और उनके परिवार का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बर्बादी के सामने ठहाके लगाने जैसा है। वे उन लोगों में से हैं जिन्होंने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए खुद हथकड़ियाँ लगाईं। उन्होंने एक खूंखार भगोड़े का जीवन भी जिया और वे उन लोगों में से हैं जिन्हें स्वतंत्रता नहीं मिली बल्कि उन्होंने इसे अर्जित किया।"
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे हिंदी, भोजपुरी और मैथिली की प्रायः सभी विधाओं पर लगातार लिखते रहे। देशभर के लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों से इनकी पुस्तकों का प्रकाशन हुआ और कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता की। [5]
रामवृक्ष बेनीपुरी ने इनके काव्य संग्रह "मुरलिका" की भूमिका में लिखा है, "दिनकर के साथ बिहार में कवियों की जो नयी पौध जगी, उसका अजीब हस्र हुआ। आँखे खोजती हैं इसके बाद आने वाली पौध कहाँ हैं ? कभी कभी कुछ नए अंकुर ज़मीन की मोटी परत को छेदकर झांकते हुए से दिखाई पड़ते हैं। रमेश एक ऐसा ही अंकुर है। और वह मेरे घर का है, अपना है। अपनापन और पक्षपात सुनता हूँ साथ-साथ चलते हैं किन्तु तो भी अपनापन तो तोड़ा नहीं जा सकता और ममत्व की ज़ंजीर जो तोड़ा नहीं जा सकता। पक्षपात ही सही लेकिन बेधड़क कहूँगा कि रमेश की चीजें मुझे बहुत पसंद आती रही हैं।"
इनके एक और समकालीन हरिवंश राय बच्चन प्रयाग से लिखे गए एक पत्र में लिखते हैं, "श्री रमेशचंद्र झा कि रचनाओं से मेरा परिचय “हुंकार” नामी पटना के साप्ताहिक से हुआ। राची कवि सम्मेलन में उसने मिलने और उनके मुख से उनकी कविताओं को सुनने का सुयोग प्राप्त हुआ। उनकी रचनाओं का अर्थ मेरे मन में और गहराया. श्री झा जी ने जहां तक मुझे मालूम है अभी तक गीत ही लिखे हैं। इन गीतों में उन्होंने अपने मन कि विभिन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है। अपने मन की भावनाओं के केवल कला का झीना पाटम्वर पहना कर जिनसे उनका रूप और निखर उठे न कि छिप जाए आधुनिक हिंदी काव्य साहित्य की नई परंपरा है। उसके लिए बड़े साहस और संयम कि आवश्यकता है। अपने प्रति बड़ी ईमानदारी उस परंपरा का प्राण है। झा जी के गीतों में ह्रृदय बोलता है और कला गाती है।."
04-05 मार्च 2016 को सुगौली संधि के दो सौ साल पूरे होने के अवसर पर बिहार की सामाजिक संस्था "भोर" और प्रेस क्लब द्वारा आयोजित सुगौली संधि समारोह में रमेशचन्द्र झा द्वारा लिखित "स्वाधीनता समर में : सुगौली" पुस्तक का पुनर्प्रकाशन और विमोचन किया गया। [6]
On 4 March 2016 वरिष्ठ पत्रकार और स्टार न्यूज़ के राजनीतिक सलाहकार अरविन्द मोहन द्वारा प्रसिद्द साहित्यकार एवं वर्धा अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय को रमेशचन्द्र झा स्मृति सम्मान से पुरस्कृत किया गया। [7]
रमेश चन्द्र झा के समकालीन कथाकारों और कवियों ने उन पर अलग अलग विचार प्रकट किये हैं,[8]जिनमें से कुछ इस तरह हैं:-
श्री रमेशचंद्र झा कि रचनाओं से मेरा परिचय “हुंकार” नामी पटना के साप्ताहिक से हुआ। राची कवि सम्मेलन में उसने मिलने और उनके मुख से उनकी कविताओं को सुनने का सुयोग प्राप्त हुआ। उनकी रचनाओं का अर्थ मेरे मन में और गहराया. श्री झा जी ने जहां तक मुझे मालूम है अभी तक गीत ही लिखे हैं। इन गीतों में उन्होंने अपने मन कि विभिन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है। अपने मन की भावनाओं के केवल कला का झीना पाटम्वर पहना कर जिनसे उनका रूप और निखर उठे न कि छिप जाए आधुनिक हिंदी काव्य साहित्य की नई परंपरा है। उसके लिए बड़े साहस और संयम कि आवश्यकता है। अपने प्रति बड़ी ईमानदारी उस परंपरा का प्राण है। झा जी के गीतों में ह्रृदय बोलता है और कला गाती है।
सतत साधना और निरंतर सृजन की प्रेरणा कोई रमेशचन्द्र झा जी से ले और उनसे ही पूछे कि आनेवाली पीढ़ियों का कोई दायित्व भी है ? झा जी ने चम्पारण का जो साहित्यिक इतिहास तैयार किया है, वह बड़े महत्व का काम है। साथ ही उत्तरदायित्व का भी है। यदि प्रत्येक जिले के अधिकारी व्यक्ति ऐसा काम उठावें तो समस्त प्रान्त का साहित्यिक इतिहास अनायास तैयार हो जाये. मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप जो भी काम उठावें वह सब तरह से सफल हो।
बिहार की साहित्यिक तरुणाई का एक ताज़ा फूल रमेशचन्द्र झा, जिसमें सौन्दर्य और सुरभि दोनों का वास ! दुनिया उसे दिखाई देती है और दिखाई दिया उसके दिल में उतरता है और दिमाग में खलबली मचाता है। ..उसने देखा, महसूस किया और सोचा...मस्ती में हुआ तो छंद गूंजे और मस्तिष्क में हुआ तो गद्द की लड़ियाँ बिखर गईं- यहीं उसका साहित्य है। ..तो बिना मीन, मेष, मिथून वह उनमें है कि पड़ाव जिन्हें बढ़ावा दिया करते हैं और मंज़िल जिनका इंतज़ार किया करती है।
रमेश जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से देश का कोना कोना भली-भांती परिचित है। ..इनके लिए तो यही कहना अधिक समीचीन होगा कि अपनी उपमा वे स्वयं ही हैं। ..हिन्दी साहित्य को कई अभूतपूर्व ग्रन्थ उन्होंने दिए हैं। ..साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा हो जिसमें रमेश जी ने नहीं लिखा होगा। ..बिना किसी शोर-शराबे के उन्होंने लगातार लिखकर साहित्य-साधना के क्षेत्र में एक सर्वथा नया कीर्तिमान स्थापित किया है। ..!
निठल्ले बैठे सोचते रहने वाले न समझें पर कविवर रमेश चन्द्र झा जानते हैं कि गिर्दाबों से कैसे बच निकला जा सकता है। ..एक भाव को अनेक भावों के उलझाव, विरोध की भरमार और अमर वल्लरियों की हुंकार से कैसे सही सलामात उबारा जा सकता है। ..उन्होंने समकालीन साहित्य और उसके प्रतिनिधी रचनाकारों पर इतना अधिक लिखा है कि नई पीढ़ी उन्हें प्रेरणा का अक्षय श्रोत मानती है। ..!
दिनकर के साथ बिहार में कवियों की जो नयी पौध जगी, उसका अजीब हस्र हुआ। ..आखें खोजती हैं इसके बाद आने वाली पौध कहाँ है। ..कभी कभी कुछ नए अंकुर ज़मीन की मोती पर्त को छेद कर झांकते हुए से दिखाई पड़ते हैं। .. रमेश भी एक अंकुर है। ..और वह मेरे घर का है, अपना है। ..अपनापन और पक्षपात, सुनता हूँ साथ-साथ चलते हैं किन्तु तो भी अपनापन तो छोड़ा नहीं जा सकता, ममत्व की ज़ंजीर को तोड़ा नहीं जा सकता ! पक्षपात ही सही बेधड़क कहूंगा कि रमेश की चीज़ें मुझे बहुत पसंद आती रही हैं। ..
श्री रमेश चन्द्र झा की हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें प्रमुख कृतियाँ हैं -
काव्य-संग्रह
ऐतिहासिक उपन्यास
राष्ट्रीय साहित्य
सामाजिक-राजनीतिक उपन्यास
बाल साहित्य
आत्मकथात्मक उपन्यास
शोध कार्य
भोजपुरी उपन्यास
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मान (मदद). Book by Ritu Chaturvedi & R. S. Bakshi. अभिगमन तिथि 16 Dec 2024.