साँचा:हसनपुर | |
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मेवाड़ के महाराणा | |
![]() महाराणा राज सिंहजी प्रथम | |
मेवाड़ के महाराणा | |
शासनावधि | 1652–1680 |
पूर्ववर्ती | जगत सिंह प्रथम |
उत्तरवर्ती | महाराणा जय सिंहजी |
जन्म | 24 सितम्बर 1629 |
निधन | 22 अक्टूबर 1680 | (उम्र 51 वर्ष)
जीवनसंगी | रानी हाड़ीजी खुमान कँवरजी पुत्री महाराव राजा छत्रसाल सिंहजी बूंदी
रानी राठौड़जी आनंद कँवरजी पुत्री राव कल्याणदास जी ईडर रानी परमारजी रामरस कँवरजी पुत्री राव इंद्रभान सिंहजी बिजोलिया रानी चौहानजी जग कँवरजी पुत्री राव रामचंद्र प्रथम बेदला रानी सोलंकीनीजी आस कँवरजी पुत्री राना राज दयालदासजी लूनावाड़ा रानी झालीजी रूप कँवरजी पुत्री ठाकोर राज विजयसिहजी अभयसिहजी लाखतर प्रपौत्री महाराना श्रीराज चंद्रसिहजी हालवद रानी राठौड़जी चारुमत कँवरजी पुत्री राजा रूप सिंहजी किशनगढ़ रानी भटियानीजी चंँद्र कँवरजी पुत्री महारावल सबल सिंहजी जैसलमेर |
संतान | पुत्र :
महाराणा जय सिंहजी महाराज भीम सिंहजी (बनेड़ा) कुंवर बहादुर सिंहजी (भूनास) कुंवर गज सिंहजी कुंवर सरदार सिंहजी कुंवर तख्त सिंहजी कुंवर इंद्र सिंहजी कुंवर सूरतान सिंहजी कुंवर सूरत सिंहजी पुत्री : बाईजी लाल अजब कँवरजी महाराजा बांधवेश भाव सिंह जूदेव जी रीवा से विवाह |
घराना | राणावत सिसोदिया (सूर्यवंशी) |
पिता | जगत सिंह प्रथम |
माता | रानी राठौड़जी (मेड़तणीजी) कर्म कँवरजी पुत्री राव राज सिंहजी |
मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक (1326–1948 ईस्वी) | ||
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राणा हम्मीर सिंह | (1326–1364) | |
राणा क्षेत्र सिंह | (1364–1382) | |
राणा लखा | (1382–1421) | |
राणा मोकल | (1421–1433) | |
राणा कुम्भ | (1433–1468) | |
उदयसिंह प्रथम | (1468–1473) | |
राणा रायमल | (1473–1508) | |
राणा सांगा | (1508–1527) | |
रतन सिंह द्वितीय | (1528–1531) | |
राणा विक्रमादित्य सिंह | (1531–1536) | |
बनवीर सिंह | (1536–1540) | |
उदयसिंह द्वितीय | (1540–1572) | |
महाराणा प्रताप | (1572–1597) | |
अमर सिंह प्रथम | (1597–1620) | |
करण सिंह द्वितीय | (1620–1628) | |
जगत सिंह प्रथम | (1628–1652) | |
राज सिंह प्रथम | (1652–1680) | |
जय सिंह | (1680–1698) | |
अमर सिंह द्वितीय | (1698–1710) | |
संग्राम सिंह द्वितीय | (1710–1734) | |
जगत सिंह द्वितीय | (1734–1751) | |
प्रताप सिंह द्वितीय | (1751–1754) | |
राज सिंह द्वितीय | (1754–1762) | |
अरी सिंह द्वितीय | (1762–1772) | |
हम्मीर सिंह द्वितीय | (1772–1778) | |
भीम सिंह | (1778–1828) | |
जवान सिंह | (1828–1838) | |
सरदार सिंह | (1838–1842) | |
स्वरूप सिंह | (1842–1861) | |
शम्भू सिंह | (1861–1874) | |
उदयपुर के सज्जन सिंह | (1874–1884) | |
फतेह सिंह | (1884–1930) | |
भूपाल सिंह | (1930–1948) | |
नाममात्र के शासक (महाराणा) | ||
भूपाल सिंह | (1948–1955) | |
भागवत सिंह | (1955–1984) | |
महाराणा राज सिंहजी प्रथम (24 सितम्बर 1629 – 22 अक्टूबर 1680) मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक (राज्यकाल 1652 – 1680) थे। वे जगत सिंह प्रथम के पुत्र थे। उन्होने मुगल सम्राट औरंगजेब का अनेकों बार विरोध किया।
राजनगर (कांकरोली / राजसमंद) में राजा महाराणा राज सिंह जी का जन्म 24 सितंबर 1629 को हुआ। उनके पिता महाराणा जगत सिंह जी और माता रानी मेड़तणीजी कर्म कँवरजी थीं। मात्र 23 वर्ष की छोटी उम्र में उनका राज्याभिषेक हुआ था। वे न केवल एक कलाप्रेमी, जन जन के चहेते, वीर और दानी पुरुष थे बल्कि वे धर्मनिष्ठ, प्रजापालक और बहुत कुशल शासन संचालन भी थे।
उनके राज्यकाल के समय लोगों को उनकी दानवीरता के बारे में जानने का मौका मिला। उन्होने कई बार सोने चांदी, अनमोल धातुएं, रत्नादि के तुलादान करवाये और योग्य लोगों को सम्मानित किया। राजसमंद झील के किनारे नौचोकी पर बड़े-बड़े पचास प्रस्तर पट्टों पर उत्कीर्ण राज प्रशस्ति शिलालेख बनवाये जो आज भी नौचोकी पर देखे जा सकते हैं। इनके अलावा उन्होनें अनेक बाग बगीचे, फव्वारे, मंदिर, बावडियां, राजप्रासाद, द्धार और सरोवर आदि भी बनवाये जिनमें से कुछ कालान्तर में नष्ट हो गये। उनका सबसे बड़ा कार्य राजसमंद झील पर पाल बांधना और कलापूर्ण नौचोकी का निर्माण कहा जा सकता है। किशनगढ़ के राजा रूप सिंह की पुत्री चारुमती पर औरंगजेब की नजर पड़ गई औरंगजेब उसे विवाह करना चाहता था चारुमती ये जान गई और उसने महाराणा राजसिंह को पत्र लिखा और महाराणा राजसिंह को पत्र प्राप्त हुआ और उन्होने चारुमती से विवाह कर लिया
वे एक महान ईश्वर भक्त भी थे। द्वारिकाधीश जी और श्रीनाथ जी के मेवाड़ में आगमन के समय स्वयं पालकी को उन्होने कांधा दिया और स्वागत किया था। उन्होने बहुत से लोगों को अपने शासन काल में आश्रय दिया, उन्हे दूसरे आक्रमणकारियों से बचाया व सम्मानपूर्वक जीने का अवसर दिया। उन्होने एक राजपूत राजकुमारी चारूमति के सतीत्व की भी रक्षा की।
उन्होने ओरंगजेब को भी जजिया कर हटाने और निरपराध भोली जनता को परेशान ना करने के बारे में पत्र भेज डाला। कहा जाता है कि उस समय ओरंगजेब की शक्ति अपने चरम पर थी, पर प्रजापालक राजा राजसिहजी ने इस बात की कोई परवाह नहीं की।
राणा राज सिंह स्थापत्य कला के बहुत प्रेमी थे। कुशल शिल्पकार, कवि, साहित्यकार और दस्तकार उनके शासन के दौरान हमेशा उचित सम्मान पाते रहे। वीर योद्धाओं व योग्य सामंतो को वे खुद सम्मानित करते थे।
उन्होंने 1676 में कांकरोली में प्रसिद्ध राजसमंद झील का भी निर्माण किया, जहाँ भारत की स्वतंत्रता से पहले समुद्री विमान उतरते थे। उन्होंने राज प्रशस्ति काव्य का निर्माण का आदेश दिया, जिसे बाद में झील के स्तंभों पर उकेरा गया।[1] इस झील को राजसमुद्र के नाम से भी जाना जाता है।[2]
झील ने किसानों को पर्याप्त पानी उपलब्ध कराया जिससे उत्पादकता में वृद्धि हुई और अकाल प्रभावित क्षेत्रों को भी राहत मिली। माना जाता है कि राज सिंह को अपने बेटे, पत्नी, एक ब्राह्मण और एक चारण की हत्या से मुक्त होने के लिए एक बड़ा तालाब या झील निर्माण करवाने का सुझाव दिया गया था।[3]
महाराणा राज सिंह जी के समय जोधपुर के मंडोर से चार भाई अमेट क्षेत्र के पास आये थे जिसमे दो भाई वहा पर ही बस गए जिसमे से एक का नाम गोविंध् सिंह इन्दा एवं दूसरे का नाम रतन सिंह परिहार था
महाराणा राज सिंह जी ने उन दोनो को जागिरि दी एवं उन दोनो के नाम पर एक गाँव विकसित किया गोविंध् सिंह जी के नाम पर गोविंदहगढ ( गुगली) और रतन सिंह के नाम पर रतन गढ़ ( ऐडाणा) |
महाराणा राज सिंह जी के मंत्री मंडल मे रतन सिंह जी का विशेष योगदान रहा है जिससे उन्हे एवं गोविंध् सिंह जी को महाराव की उपाधि मिली आज भी इन गाँव के लोग अपने नाम के आगे राव लागाते है एवं पीछे परिहार लागाते है
महाराणा राज सिंह जी जब औरंगजेब के साथ लड़े तब उनके साथ महाराव रतन सिंह जी भी थे |