राजसमन्द झील | |
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Rajsamand Lake | |
स्थान | राजसमन्द ज़िला, राजस्थान |
निर्देशांक | 25°04′N 73°53′E / 25.07°N 73.88°Eनिर्देशांक: 25°04′N 73°53′E / 25.07°N 73.88°E |
प्रकार | कृत्रिम जलाशय |
जलसम्भर | 196 वर्ग मील (510 कि॰मी2) |
द्रोणी देश | भारत |
अधिकतम लम्बाई | 6.4 किलोमीटर (4.0 मील) |
अधिकतम चौड़ाई | 2.82 किलोमीटर (1.75 मील) |
औसत गहराई | 18 मीटर (59 फीट) |
राजसमन्द झील (Rajsamand Lake), जो राजसमुद्र झील (Rajsamudra Lake) भी कहलाती है, भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द नगर के समीप स्थित एक कृत्रिम झील है। इसका निर्माण सन् (1662-1676) में मेवाड़ के राणा राज सिंह प्रथम ने करवाया था। यह 2.82 किलोमीटर (1.75 मील) चौड़ी, 6.4 किलोमीटर (4.0 मील) लम्बी और 18 मीटर (59 फीट) गहरी है। इसे गोमती नदी, केलवा नदी और ताली नदी पर बनवाया गया था और इसका जलसम्भर क्षेत्र 510 वर्ग किलोमीटर (200 वर्ग मील) है।[1][2]
स्रोत:[3]
राज सिंह द्वारा इतने बड़े पैमाने पर झील का निर्माण कराने के एक से अधिक कारण हो सकते हैं। कहा जाता है कि जैसलमेर की यात्रा के दौरान नदी में पानी की मात्रा अधिक होने के कारण राज सिंह को 3 दिनों के लिए रुकना पड़ा, इसलिए उन्होंने नदी को रोककर उसके चारों ओर एक तालाब बनाने का विचार किया।
राज सिंह तेज-तर्रार होने के लिए जाने जाते थे और अपने जीवन काल में उन्होंने अपने एक पुत्र, पत्नी, एक ब्राह्मण और एक चारण की हत्या की थी।
उनकी रानियों में से एक, कुँवर सरदार सिंह की माँ चाहती थीं कि उनका बेटा बड़े कुँवर सुल्तान सिंह के बजाय सिंहासन पर बैठे, जिसके लिए उन्होंने महाराणा के मन में संदेह पैदा किया। इस प्रकार, राज सिंह ने अपने कुँवर सुल्तान सिंह को प्राणदण्ड दिया। इसके बाद, उसी रानी ने अब अपने बेटे को सिंहासन पर चढ़ाने के लिए राज सिंह को मारने की साजिश रची, लेकिन राज सिंह को जहर देने वाला ब्राह्मण रसोइया पकड़ा गया और पूरी साजिश का खुलासा हो गया। इस प्रकार, राज सिंह के आदेश पर षड्यंत्रकारी रानी और ब्राह्मण रसोइया दोनों को मार डाला गया। साजिश से अनजान कुँवर सरदार सिंह ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।
एक अन्य घटना में, उदयभान, एक चारण, जो एक तज़ीमी सरदार था, राज दरबार में पहुंचा और पाया कि महाराणा राज सिंह परंपरानुसार उसका अभिवादन करने के लिए नहीं उठा था। इसे अपना अनादर समझते हुए, उदयभान ने दरबार में महाराणा का जोर से उपहास किया, जबकि मुगल साम्राज्य और मेवाड़ के बीच एक संधि को अंतिम रूप देते हुए राज सिंह की एक मुगल उमराव के साथ बैठक चल रही थी। अपमान से क्रोधित होकर, राज सिंह ने अपना आपा खो दिया और उदयभान पर प्रहार कर दिया, जिससे उदयभान की मृत्यु हो गई।
बाद में, राज सिंह ने इन हत्याओं के निवारण के लिए अपने पुरोहितों से परामर्श किया, जिस पर उन्हें जनकल्याण हेतु एक बड़ा तालाब या झील बनाने का सुझाव दिया गया।
झील का निर्माण 1662 ईस्वी में शुरू हुआ और 1676 ईस्वी में पूरा हुआ। यह राजस्थान का सबसे पुराना ज्ञात अकाल राहत कार्य है। निर्माण की कुल लागत 1,50,78,784 रुपये के रूप में उल्लेख किया गया है।[4][5]
इसका मुहूर्त 01-जनवरी, 1662 ई. को किया गया था, जिसकी शुरुआत नदी के तल को सुखाने के कठिन कार्य से हुई थी। इस कार्य में 60,000 से अधिक कुशल श्रमिकों को लगाया गया था। उस समय उपलब्ध सभी प्रकार की जल निकासी तकनीकों को नियोजित किया गया था। 3 वर्षों के प्रयास के बाद, 17 अप्रैल 1665 को नींव रखी गई। मुख्य बांध 26 जून 1670 को बनकर तैयार हुआ। झील के विभिन्न किनारों पर अन्य बांधों के निर्माण में अधिक समय लगा। लाहौर, सूरत और गुजरात के जहाज निर्माताओं को एक बड़ी नाव बनाने के लिए नियुक्त किया गया था।[6]
जनवरी 1676 में अभिषेक समारोह आयोजित किया गया था। शासकों, ठाकुरों, चारणों, विद्वानों और अन्य धार्मिक गुरुओं को निमंत्रण भेजे गए । मत्स्य पुराण के अनुसार, समारोहों के पूजा के लिए छब्बीस ब्राह्मण पुजारियों को नियुक्त किया गया । मुख्य देवता वरुण थे। राणा ने अपनी कुलदेवी और अन्य विभिन्न देवताओं की पुजा की।[7][8]
15 जनवरी, 1676 को महाराणा राज सिंह ने झील की परिक्रमा आरंभ की, जो 6 दिन की पैदल यात्रा के बाद पूरी हुई। परिक्रमा के दौरान दान-पुण्य भी किया गया।[8]
20 जनवरी, 1676 को नामकरण समारोह आयोजित किया गया और विभिन्न दान पुण्य के कार्य किए गए। शासक राणा राज सिंह को सोने से तौला गया और राशि दान में प्रदान की गयी। पांच अन्य व्यक्तियों ने इस प्रकार दान किया। मुख्य रानी सदाकुमारी, पुरोहित गरीब दास, कविराजा बारहट केसरी सिंह, सोलम्बर के राव केसरी सिंह, और टोडा की रानी के वज़न को चाँदी से तौल कर राशि दान में दी गयी।[8][7]
इस अवसर पर चारणों को बड़ी संख्या में प्रदान किए गए भूमि-अनुदानों को पुष्टीकृत और आदृत किया गया।[7] मौके पर मौजूद 46,000 ब्राह्मणों में उपहार बांटे गए।[8]
इसका निर्माण महाराणा राजसिह ने सन् 1662 में कराया था। यह झील उदयपुर से 64 किमी दूर राजसमन्द जिले में है। इस झील के किनारे सुन्दर घाट और नौ चौकी है, जहाँ संगमरमर के शिलालेख पर मेवाङ का इतिहास संस्कृत में अंकित है।
In other words, the virtues of the king are just those commemorated and advertised by the Charan. The stress on gift-giving is entirely in tune with the conclusions we draw from our analysis of the ceremony referred to from seventeenth-century Mewar, where it eclipses the Brahmanic content of the ritual. We may add that Charans are among those most favoured with gifts on that occasion, and a large number of older grants to them are confirmed and honoured. No grants to Brahmins are noted in that context