शंकर शेष | |
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जन्म | 2 अक्टूबर, 1933 बिलासपुर, छत्तीसगढ़ |
मौत | 28 अक्टूबर 1981 श्रीनगर (कश्मीर) |
पेशा | हिन्दी साहित्य |
भाषा | हिन्दी |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
काल | आधुनिक |
विधा | नाटक, एकांकी, उपन्यास |
विषय | समकालीन जीवन की समस्याएँ |
उल्लेखनीय कामs | एक और द्रोणाचार्य |
वेबसाइट | |
shankarshesh.com |
शंकर शेष (1933-1981) हिन्दी की साठोत्तरी पीढ़ी के सुप्रसिद्ध नाटककार थे। समकालीन जीवन की ज्वलंत समस्याओं से जूझते व्यक्ति की त्रासदी शंकर शेष के बहुसंख्यक नाटकों के केंद्र में रहती है। वे मोहन राकेश के बाद की पीढ़ी के महत्वपूर्ण नाटककार के रूप में मान्य हैं। फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित डॉ० शेष ने फिल्मों के लिए कहानियाँ भी लिखी हैं।
डॉ० शंकर शेष का जन्म मध्य प्रदेश के बिलासपुर में 2 अक्टूबर 1933 ई० को हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा-दीक्षा नागपुर एवं मुंबई में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से 1956 में उन्होंने बी०ए० (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और वहीं से 1964 में पी-एच०डी० की उपाधि भी पायी। 1976 ई० में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से एम०ए० (लिंगविस्टिक) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।[1]
डॉ० शेष 1956 ई० से ही रंगमंच से सम्बद्ध हुए और जीवनपर्यंत सम्बद्ध रहे। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, मुंबई के प्रमुख हिन्दी अधिकारी के पद पर नियुक्त रहते हुए नाट्य लेखन एवं अन्य सर्जनात्मक कार्य करते रहे।[2]
साठोत्तरी पीढ़ी के प्रयोगधर्मी नाटककार के रूप में डॉ० शंकर शेष की काफी ख्याति रही। उनके विभिन्न नाटकों एवं एकांकियों के समय-समय पर प्रदर्शन होते रहे। डॉ० शेष मराठी भाषा भी जानते थे और उन्होंने मराठी से कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया था।[1] नाटकों के अतिरिक्त वे फिल्मों के लिए कहानियाँ भी लिखते थे और इसके लिए पुरस्कृत भी हुए। 28 अक्टूबर 1981 ई० को श्रीनगर (कश्मीर) में उनका निधन हो गया।
डॉ० शंकर शेष बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उन्होंने आरंभ में कविताएँ भी लिखी थीं और नाटककार होने के साथ-साथ वे कथाकार भी थे; परंतु सर्वाधिक प्रसिद्धि उन्हें नाटकों के क्षेत्र में ही मिली और प्रायः लोग उन्हें नाटककार के रूप में ही जानने लगे। बाद में भी उन्होंने फिल्मों के लिए कहानियाँ भी लिखीं।
डॉ० शंकर शेष ने प्रायः 40 वर्ष की उम्र में नाटक लिखना शुरू किया और आगामी आठ-नौ वर्षों में करीब 20 नाटकों की रचना की। अपने नाटक 'एक और द्रोणाचार्य' से वे बहुत अधिक प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने अपने नाटकों एवं फिल्मों से पूरे देश में बहुत ख्याति पायी। फॉर्म और कथ्य की दृष्टि से उन्होंने अनेक प्रकार के नाटक लिखे हैं। 'मायावी सरोवर', 'शिल्पी', 'बिन बाती के दीप', 'पोस्टर', 'कोमल गांधार', 'रक्तबीज' आदि नाटकों से उनकी कला-क्षमता को पहचाना जा सकता है। खासकर 'पोस्टर' में अगर लोकधर्मिता है तो 'कोमल गांधार' में सुकुमार संवेदना और चरित्रों की आंतरिकता। एक भिन्न प्रकार की गूँज उनके हर नाटक में मिलेगी।[3]
'एक और द्रोणाचार्य' उनका सबसे लोकप्रिय नाटक था जिसकी 30 से अधिक प्रस्तुतियों के विवरण उपलब्ध हैं। कानपुर में अनुकृति सहित कई सांस्कृतिक संस्थाओं ने द्रोणाचार्य के करीब 50 प्रदर्शन किये, यद्यपि 50वां सफल मंचन अनुकृति रंगमंडल कानपुर द्वारा ही किया गया। यह नाटक अत्यधिक लोकप्रियता के बावजूद हमेशा विवादास्पद भी रहा। मार्क्सवादी आलोचक शंकर शेष के कथ्य से सहमत नहीं हैं और नया निर्देशक उनकी कृति को प्रायः संपादित किए बिना प्रस्तुत नहीं करना चाहता, क्योंकि उनकी दृष्टि में इस नाटक में भावुकता, रहस्य और फिल्मी लटकों का चमत्कार कुछ अधिक हो गया है।[3] फिर भी महाभारत के पात्र गुरु द्रोणाचार्य और आधुनिक महाविद्यालय के प्राध्यापक के कुछ हद तक समानान्तर चित्रण से समकालीन ज्वलंत समस्या को कलात्मक रूप से सामने रखने वाला यह नाटक एक सशक्त कृति के रूप में स्वीकृत है।[4]
'बन्धन अपने-अपने' शंकर शेष का पहला नाटक था और उसका मंचन वाराणसी की 'शिल्पी' संस्था द्वारा 1980 में हुआ था। 'बिन बाती के दीप', 'कोमल गांधार', 'रक्तबीज', 'मायावी सरोवर' आदि का मंचन भी प्रसिद्ध नाट्य निर्देशकों द्वारा होते रहा है।[4]
डॉ० शंकर शेष को उनके नाटक 'घरौंदा' और 'दूरियाँ' के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 'आशीर्वाद पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
फिल्म 'दूरियाँ' की कहानी के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।