शक्ति (Power) शब्द का प्रयोग मानवनियंत्रित ऊर्जा को जो यांत्रिक कार्य करने के लिए प्राप्य हो, सूचित करने के लिए किया जाता है। शक्ति के मुख्य स्रोत (source) हैं : मनुष्यों एवं जानवरों की पेशीय ऊर्जा (muscular energy), नदी एवं वायु की गतिज ऊर्जा, उच्च सतहों पर स्थित जलाशय की स्थितिज (potential) ऊर्जा, लहरों एवं ज्वारभाटा की ऊर्जा, पृथ्वी एवं सूर्य की ऊष्मा ऊर्जा, ईंधन को जलाने से प्राप्त ऊष्मा ऊर्जा आदि। पालतू जानवरों की शक्ति का उपयोग मानवीय सभ्यता का प्रथम कदम था। बाद में क्रमश: विभिन्न प्रकार की शक्तियों को उपयोग में लाने के लिए प्रयास किए जाते रहे। अभी भी अधिक से अधिक शक्तियों को नियंत्रित करने में वैज्ञानिक व्यस्त हैं एवं प्रयत्न जारी है।
ऊपर लिखे गए शक्तिस्रोतों में वायु, लहर, एवं सूर्य द्वारा प्राप्त शक्तियाँ आंतरायिक (intermittent) होती हैं और यही इन सब का सबसे बड़ा अवगुण है, क्योंकि शक्ति की माँग यदि संतत (continuous) हो, तो इस प्रकार की शक्तियों को उपयोग में लाने के लिए इनके संग्रह की व्यवस्था करनी होगी। शक्ति संयंत्र (plant) के आकार एवं कीमत को ध्यान में रखते हुए, बड़े पैमाने (large scale) पर शक्तिजनन की अवस्था में वायु, लहर तथा सूर्य द्वारा प्राप्त शक्ति का उपयोग लाभप्रद नहीं होता है। कुछ स्थानों में बड़े पैमाने पर शक्तिजनन के लिए ज्वारभाटा की शक्ति का उपयोग किया जा सकता है, किंतु इस प्रकार के संयंत्र के निर्माण में व्यय अत्यधिक होता है।
वैज्ञानिकों द्वारा "शक्ति" शब्द का प्रयोग ऊर्जासंचरण की दर के लिए किया जाता है। सामान्य व्यवहार में शक्ति की ईकाई वाट होती है।
ऊर्जा के प्राकृतिक स्रोतों को उपयोग में लाने के लिए अधिष्ठापन (installation) द्वारा संबंधित उपकरण तीन वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं :
प्राय: मूल चालक उन स्थानों में, जहाँ ऊर्जा के प्राकृतिक स्रोत प्रचुर मात्रा में प्राप्य हों, स्थापित किया जाता है, जैसे जलप्रपात के निकट या कोयले की खानों के क्षेत्र में। जलप्रपात या प्राकृतिक जल के स्रोत, जैसे नदी, झील आदि के निकट द्रवचालित (hydraulic) शक्ति संयंत्र की, जिसें जल की ऊर्जा जल टरबाइन द्वारा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित की जाती है, स्थापना की जाती है। दामोदर घाटी योजना के अंतर्गत इस प्रकार के संयंत्र की स्थापना, बिहार राज्य के धनवाद जिले में माइथान एवं पंचेत और हजारीबाग जिला में तिलैया नामक स्थानों पर की गई है। इस प्रकार के संयंत्र भारत में विभिन्न स्थानों पर स्थापित किए गए हैं, जैसे भाखरा नंगल, हीराकुंड, तुंगभद्रा, रिहंद आदि। कोयले की खानवाले क्षेत्रों में कोयले द्वारा प्राप्त ऊष्मा ऊर्जा को, ऊष्मीय शक्तिसंयंत्र में भाप टरबाइन, या भाप इंजन द्वारा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। इसके लिए कोयले को जलाकर वाष्पित्र (boiler) में भाप तैयार की जाती है और इस भाप का उपयोग मूल चालक, जैसे भाप टरबाइन या भाप इंजन को चलाने के लिए किया जाता है। इस तरह के ऊष्मीय शक्तिसंयंत्र बोकारो (बिहार राज्य) एवं दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में हैं। उपर्युक्त प्रकार के द्रवचालित एवं ऊष्मीय शक्तिसंयंत्र द्वारा प्राप्त ऊर्जा विपुल परिमाण में बहुत दूरी पर स्थित कल कारखानों आदि में संचारित की जाती है। इस तरह के शक्तिसंचरण की अवस्था में शक्तिवितरण के तरीके एवं उपकरण अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि मूल चालक से उन स्थानों की दूरी, जहाँ यंत्रों द्वारा ऊर्जा का उपयोग होता है, वितरण की दक्षता पर निर्भर करती है।
कुछ कारखानों में मूल चालक द्वारा प्राप्त ऊर्जा निकटवर्ती यंत्रों में ही संचारित की जाती है। इस अवस्था में तेल द्वारा चालित मूल चालक, जैसे तेल इंजन, का प्रयोग अधिक होता है। इसमें संचरणयंत्र का अधिक महत्व रहता है, क्योंकि संचरण की दक्षता पूरे संयंत्र की दक्षता को प्रभावित करती है। कभी-कभी मूल चालक को यंत्र से इस तरह जोड़ दिया जाता है कि संचरण उपकरण सुगमतापूर्वक मूल चालक, या यंत्र से अलग नहीं किया जा सकता। इस वर्ग में रेल इंजन आदि आते हैं।
शक्तिसंचरण के विभिन्न विधियाँ हैं :
शक्तिप्रेषण की वैद्युत युक्ति पर निरंतर अनुसंधान हो रहे हैं। सतत परिवर्ती वैद्युत दंति का आविष्कार बहुत पहले हो चुका है। अवरोध को अंतरास्थापित करके बल के ह्रास की प्राप्ति की युक्तियाँ वस्तुत: परिवर्ती प्रेषण नहीं कही जा सकती हैं। शक्तिप्रेषण की वैद्युत युक्तियों का उपयोग वैद्युत रेलगाड़ियों में अधिक होता है। अंतर्दहन इंजन के डायनेमो (dynamo) के लिए मूलचालक के रूप में व्यवहृत कर विद्युत उत्पन्न की जाती है और चक्रों को घुमाने के लिए खास डिजाइन किए हुए दंति को वैद्युत मोटर की सहायता से चलाया जाता है।
शक्ति का यांत्रिक संचरण पट्टे (belt) या रज्जु (rope) की सहायता से शैफ्ट (shaft) द्वारा, अथवा यंत्रिचक्र (wheel gearing) और जंजीर (chain) की सहायता से होता है। परिस्थिति के अनुसार शक्ति को संचारित करने के लिए ये तरीके अलग अलग, या एक दूसरे के साथ, व्यवहृत किए जाते हैं। मूल चालक के अनुसार शक्तिसंचरण के यांत्रिक उपकरणों का अभिकल्प एवं निर्माण किया जाता है।
मूल चालक के गतिपालक चक्र (flywheel) पर लगे हुए पट्टे द्वारा, शक्ति को रेखा शैफ्ट (line shaft) में संचारित किया जाता है। रेखा शैफ्ट पर अभिकल्प के अनुसार घिरनियाँ (pulleys) लगी रहती हैं। उन घिरनियों पर लगे हुए पट्टे द्वारा शक्ति को रेखाशैफ्ट से विभिन्न यंत्रों में संचारित किया जाता है। इस प्रकार की प्रणाली में सबसे बड़ा अवगुण यह है कि किसी भी कारणवश रेखाशैफ्ट का चलना बंद होते ही सभी यंत्र, जिन्हें रेखाशैफ्ट से शक्ति संचरित की जाती है, बेकार हो जाते हैं।
इस प्रकार के शक्तिसंचरण का मात्रात्मक विश्लेषण करने के लिए इंजन के क्रैंक शेफ्ट को संचरण का आरंभ बिंदु एवं यंत्र के प्रथम गतिमान शैफ्ट को संचरण का अंतिम बिंदु मान लिया जाता है। यह अनुमान विशिष्ट यत्र के लिए उपयुक्त है। मान लिया कि इंजन की गति N परिक्रमण (revolutions) प्रति मिनट है। इस गति पर चलते हुए इंजन क्रैंकशैफ्ट पर लगातार बल आधूर्ण (torque) डालता रहता है। मान लिया कि बल आधूर्ण की मात्रा T किलोग्राम प्रति मीटर है। इस अवस्था में इंजन की कोणीय (angular) गति w, का मूल्य होगा 2 x पाई x N / 60। यहाँ w की ईकाई रेडियन प्रति सेकंड है। अत: इंजन क्रैंक शैफ्ट द्वारा किए गए कार्य की दर wT किलोग्राम प्रति मीटर प्रति सेकंड है। सुविधा के लिए मान लिया, क्रैंक शैफ्ट से प्राप्त संपूर्ण शक्ति एक ही यंत्र को संचरित होती है। मान लिया, उस यंत्र पर डाला जानेवाला बल आघूर्ण T1 किलोग्राम प्रति मीटर है और w1 रेडियन प्रति सेकंड यंत्र की कोणीय गति है, तब उस यंत्र द्वारा प्राप्त ऊर्जा की दर होगी w1T1 किलोग्राम मीटर प्रति सेकंड। घर्षण एवं अन्य अवरोधों को अभिभूत (overcome) करने के लिए ऊर्जा का कुछ अंश संचरणयंत्र द्वारा अवशोषित (absorbed) होता है। यदि ऐसा नहीं हो, तो यंत्र द्वारा ऊर्जा अवशोषण की दर मूल चालक द्वारा उत्पन्न ऊर्जा की दर के समतुल्य होगी। किंतु व्यवहार में ऐसा नहीं होता है।