शिव कुमार 'बटालवी' | |
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जन्म | शिव कुमार 23 जुलाई 1936 बड़ापिंड, शकरगढ़ तहसील, पंजाब, अविभाजित भारत |
मृत्यु | मई 7, 1973 कीर मंग्याल, पठानकोट, भारत | (उम्र 36 वर्ष)
उपनाम | बिरहा दा सुलतान |
व्यवसाय | कवि, लेखक, नाटककार |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
लेखन काल | 1960-1973 |
शैली | कविता, ग़ज़ल, नज़्म, किस्सा, गद्य, नाटक |
विषय | दर्द, प्रेम, विरह |
उल्लेखनीय कार्य | लूना (1965) |
मैंनू तेरा शबाब लै बैठा
मैंनू तेरा शबाब लै बैठा,
रंग गोरा गुलाब लै बैठा।
किन्नी पीती ते किन्नी बाकी ए
मैंनू एहो हिसाब लै बैठा
चंगा हुंदा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब लै बैठा
दिल दा डर सी किते न लै बैठे
लै ही बैठा जनाब लै बैठा
शिव कुमार 'बटालवी' (पंजाबी: ਸ਼ਿਵ ਕੁਮਾਰ ਬਟਾਲਵੀ) (1936 -1973) पंजाबी भाषा के एक विख्यात कवि थे, जो उन रोमांटिक कविताओं के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं, जिनमें भावनाओं का उभार, करुणा, जुदाई और प्रेमी के दर्द का बखूबी चित्रण है।[1]
वे 1967 में वे साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गये। साहित्य अकादमी (भारत की साहित्य अकादमी) ने यह सम्मान पूरण भगत की प्राचीन कथा पर आधारित उनके महाकाव्य नाटिका लूणा (1965)[2] के लिए दिया, जिसे आधुनिक पंजाबी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है [3] और जिसने आधुनिक पंजाबी किस्सागोई की एक नई शैली की स्थापना की।[4] आज उनकी कविता आधुनिक पंजाबी कविता के अमृता प्रीतम और मोहन सिंह जैसे दिग्गजों के बीच बराबरी के स्तर पर खड़ी है,[5]जिनमें से सभी भारत- पाकिस्तान सीमा के दोनों पक्षों में लोकप्रिय हैं। [6].
शिव कुमार का जन्म 23 जुलाई 1936 को गांव बड़ा पिंड लोहटिया, शकरगढ़ तहसील (अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में)[7] राजस्व विभाग के ग्राम तहसीलदार पंडित कृष्ण गोपाल और गृहिणी शांति देवी के घर में हुआ। भारत के विभाजन के बाद उनका परिवार गुरदासपुर जिले के बटाला चला आया, जहां उनके पिता ने पटवारी के रूप में अपना काम जारी रखा और बाल शिव ने प्राथमिक शिक्षा पाई। [8]
1953 में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक किया और बटाला के बैरिंग यूनियन क्रिश्चियन कॉलेज में एफ एससी कार्यक्रम में नामांकित हुए। अपनी डिग्री पूरी करने से पहले उन्होंने कादियाँ के एस एन कॉलेज के कला विभाग में दाखिला लिया, जो उनके व्यक्तित्व से ज्यादा मेल खाता था, हालांकि दूसरे साल में उन्होंने उसे भी छोड़ दिया। उसके बाद वह हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ के एक स्कूल में सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा लेने के लिए दाखिल हुए, पर फिर उन्होंने इसे भी बीच में ही छोड़ दिया। [9] इसके बाद उन्होंने नाभा के सरकारी रिपुदमन कालेज में अध्ययन किया। उन्हें विख्यात पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया, जिन्होंने दोनों के बीच जाति भेद होने के कारण एक ब्रिटिश नागरिक से शादी कर ली। वह प्यार में दुर्भाग्यशाली रहे और प्यार की यह पीड़ा उनकी कविता में तीव्रता से परिलक्षित होती है।
बाद की जिंदगी में उनके पिता को कादियां में पटवारी की नौकरी मिली और इसी अवधि के दौरान उन्होंने अपना सबसे अच्छा साहित्यिक अवदान दिया। 1960 में उनकी कविताओं का पहला संकलन पीड़ां दा परागा (दु:खों का दुपट्टा) प्रकाशित हुआ, जो काफी सफल रहा। 1965 में अपनी महत्वपूर्ण कृति महाकाव्य नाटिका लूणा (1965) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गये।[10] काव्य पाठ और अपनी कविता को गाने की वजह से लोगों में वे और उनका काम काफी प्रसिद्ध हुआ।
5 फ़रवरी 1967 को उनका विवाह गुरदासपुर जिले के किरी मांग्याल की ब्राह्मण कन्या अरुणा से हुआ [11] और बाद में दंपती को दो बच्चे मेहरबां (1968) और पूजा (1969) हुए। 1968 में चंडीगढ़ चले गये, जहां वे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में जन संपर्क अधिकरी बने। बाद के वर्षों में वे खराब स्वास्थ्य से त्रस्त रहे, हालांकि उन्होंने बेहतर लेखन जारी रखा।
उनके लेखन में उनकी चर्चित मौत की इच्छा हमेशा से स्पष्ट रही है।[12] और 7 मई 1973 में 36 साल की उम्र में शराब की दुसाध्य लत के कारण हुए लीवर सिरोसिस के परिणामस्वरूप पठानकोट के किरी मांग्याल में अपने ससुर के घर पर उनका निधन हो गया।
मैंनू विदा करो (मुझे विदा करो)
असां ते जोबन रुत्ते मरना,
मर जाणां असां भरे भराए,
हिजर तेरे दी कर परिकरमा..
(हमें तो यौवन की ऋतु में मरना है,
मर जाएंगे हम भरे पूरे
तुम से जुदाई की परिक्रमा पूरी करके)[9]
जित्थे मोए बाद वी , कफ़न नहीं होया नसीब।
कौन पागल हुण करे , ऐतबार तेरे शहर दा।।
ऐथे मेरी लाश तक , नीलाम कर दित्ती गयी।
लत्थेया कर्जा ना, फेर वी यार तेरे शहर दा।।
प्रेम में नाकामी की वजह से शिव की रचनाओं में विरह व दर्द का भाव अति प्रबल है। अमृता प्रीतम ने इन्हें "बिरहा का सुल्तान" कहा। इसी नाम से ही प्रख्यात ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह-चित्रा सिंह ने भी एक एलबम निकाला। शिव की रचनाओं में निराशा व मृत्यु की इच्छा प्रबल रूप से दिखाई पड़ती है।
1993. आईएसबीएन 81-7201-417-1.
उनके एक संकलन अलविदा (विदाई) का प्रकाशन 1974 में मरणोपरांत अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय द्वारा किया गया। हर साल सर्वश्रेष्ठ लेखक को 'शिव कुमार बटालवी पुरस्कार' दिया जाता है[14][15] .
उनकी कई कविताओं को दीदार सिंह परदेसी ने गाया है। जगजीत सिंह-चित्रा सिंह और सुरिंदर कौर ने भी उनकी अनेक कविताओं का गायन किया है।[16] नुसरत फतेह अली खान ने उनकी कविता "माई नी माई" को गीत में ढाला है, जो अपनी रूहानी पुकार और चित्रात्मकता के लिए जाना जाता है। रब्बी शेरगिल के हाल ही के एक एल्बम रब्बी (2004) में उनकी कविता इश्तिहार भी शामिल है। पंजाबी लोक गायक हंस राज हंस भी शिव कुमार की कविता पर 'गम' नामक एक लोकप्रिय एलबम बनाया। 2005 में इक कुड़ी जिदा ना मोहब्बत ...'शिव कुमार बटालवी' शीर्षक से एक संकलन एल्बम जारी किया गया, जिसके गीत महेंद्र कपूर, जगजीत सिंह और आसा सिंह मस्ताना ने गाये। [17]
2004 में चंडीगढ़ के पंजाब कला भवन में शिव कुमार के जीवन पर आधारित दर्दा दां दरिया शीर्षक से पंजाबी नाटक का मंचन किया गया।[18]
शिव कुमार बटालवी की कई कविताओं का प्रयोग हिंदी फिल्मो में होता रहा है। वर्ष २००९ में आयी फिल्म लव आज कल के लिए संगीतकार प्रीतम ने बटालवी की कविता "आज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा" पर गीत बनाया था। २०१६ में, संगीतकार अमित त्रिवेदी ने फिल्म उड़ता पंजाब के लिए उनकी कविता "एक कुड़ी" पर आधारित एक गीत बनाया था। इस गीत के तीन संस्करण थे, जिन्हें दिलजीत दोसांझ,[19] शाहिद माल्या[20] और आलिया भट्ट[21] ने गाया था।