वेदमूर्ति श्रीपाद दामोदर सातवलेकर (19 सितंबर 1867 - 31 जुलाई 1968) वेदों का गहन अध्ययन करनेवाले शीर्षस्थ विद्वान् थे। उन्हें 'साहित्य एवं शिक्षा' के क्षेत्र में सन् 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।
सह्याद्रि पर्वत-शृंखला के दक्षिणी छोर पर सावंतवाड़ी रियासत (महाराष्ट्र) के छोटे से गांव 'कोलगांव' (रत्नागिरि जिला) में 19 सितम्बर 1867 को श्रीपाद का जन्म हुआ था। इनके पिता श्री दामोदर भट्ट, पितामह श्री अनंत भट्ट और प्रपितामह श्री कृष्ण भट्ट सभी ऋग्वेदी वैदिक परंपरा के मूर्धन्य विद्वान रहे। बचपन से ही बालक श्रीपाद को वेदों का अध्ययन कराया गया था। वैसे भी अपने आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सातवलेकर परिवार की समाज में बहुत प्रतिष्ठा थी। आठ वर्ष की आयु में श्रीपाद की विद्यालयीन शिक्षा शुरू हुई। आचार्य श्री चिंतामणि शास्त्री केलकर ने उन्हें संस्कृत व्याकरण की शिक्षा दी।
1887 में एक अंग्रेज अधिकारी वेस्ट्राप ने सावंतवाड़ी में चित्रकला-शाला शुरू की। वहां गुरु मालवणकर की चित्रकारी ने श्रीपाद का मन मोह लिया। उन्होंने इस कला को सीखने का प्रण किया। उनके पिता श्री दामोदर भट्ट भी चित्रकला में प्रवीण थे। अत: घर की दीवारों पर श्रीपाद की चित्रकारी निखरने लगी। मूर्तिकला में भी उनका कोई सानी नहीं था।
"जे.जे स्कूल ऑव आर्टस" में शिक्षा प्राप्त कर हैदराबाद में चित्रशाला स्थापित की। अपने व्यवसाय के साथ-साथ उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में भी उत्साहपूर्वक भाग लेना आरंभ किया। वेदों के आधार पर लिखित आपका लेख "तेजस्विता" राजद्रोहात्मक समझा गया जिसके कारण आपको तीन वर्ष तक कैद की सजा भोगनी पड़ी।[1]
अवसर की तलाश में 23 वर्ष की आयु में श्रीपाद मुम्बई जा पहुंचे। हालांकि 22वें वर्ष में उनका विवाह साधले परिवार की पुत्री श्रीमती सरस्वती बाई से हो चुका था।[2] इस बीच चित्रकारी से जो समय मिला उसमें श्रीपाद संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। चित्रकारी और शिल्पकला में सर्वोत्तम पुरस्कार "मेयो पदक" उन्हें दो बार मिला। 1893 में मुम्बई के प्रसिद्ध जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में उनकी शिक्षक के रूप में नियुक्ति हो गयी थी।
सन् 1900 में श्रीपाद मुम्बई छोड़कर हैदराबाद आ गए। 13 वर्ष वे वहां रहे। प्रसिद्ध चित्रकार श्री देउस्कर की सहायता से उन्होंने वहां एक स्टूडियो बनाया। वे आर्य समाज के संपर्क में आए। वेदांत चर्चाओं में भाग लेने लगे। प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और समाज में वे पंडितजी के नाम से पहचाने जाने लगे। उन्होंने "सत्यार्थ प्रकाश", "ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका" व "योग तत्वादर्श" का मराठी अनुवाद किया। 1918 में आर्यसमाज से कुछ मतभेद उपजे।
वेदों के अर्थ और आशय का जितना गंभीर अध्ययन और मनन सातवलेकर जी ने किया उतना कदाचित् ही किसी अन्य भारतीय ने किया हो। वैदिक साहित्य के संबंध में उन्होंने अनेक लेख लिखे और हैदराबाद में विवेकवर्धिनी नामक शिक्षासंस्था की स्थापना की। राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत आपकी ज्ञानोपासना निज़ाम को अच्छी न लगी, अत: आपको शीघ्र ही हैदराबाद छोड़ देना पड़ा। हरिद्वार, लाहौर आदि में कुछ समय बिताने के बाद सन् 1918 मे आप औंध में बस गए और वहीं पर स्वाध्याय मण्डल की स्थापना कर साहित्यसेवा में निरत रहने लगे। गांधी हत्याकांड के बाद उन्हें वहाँ से हट जाना पड़ा। अब उन्होंने गुजरात के वलसाड जिले में किल्ला पालड़ी नामक एक गाँव को अपना निवास्थान बनाया और 'स्वाध्याय मंडल' की पुन: स्थापना कर वेदादि प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के परिष्कार एवं प्रचार-प्रसार के पुनीत कार्य में और भी अधिक दृढ़ता से संलग्न हो गये।
हैदराबाद में ही पंडितजी स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े। लोकमान्य तिलक से निकटता उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर ले गयी। उन्होंने स्वदेशी पर व्याख्यान देने शुरू किये। स्वतंत्रता संग्राम में श्रीपाद पूरे मनोयोग से लग गये थे। 1919 में उन्होंने औंध में "स्वाध्याय मण्डल" की स्थापना की। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का अनुवाद करना शुरू किया। वह प्रकाशित भी हुआ। 1919 में ही उन्होंने हिन्दी में "वैदिक धर्म" मासिक और 1924 में मराठी "पुरुषार्थ" पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया। पंडित सातवलेकर ने छात्रों तथा सामान्य पाठकों के लिए वेदों की भाषा को सरलतापूर्वक समझ सकने योग्य बनने हेतु "संस्कृत स्वयं शिक्षक" पुस्तकमाला का लेखन किया।
1936 में पंडितजी सतारा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े। औंध रियासत के संघचालक के रूप में उन्होंने नयी शाखाएं आरम्भ कीं। 16 वर्ष तक उन्होंने संघ का काम देखा। 1942 के स्वाधीनता आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी। अथक परिश्रम के कारण उनकी शारीरिक शक्ति क्षीण होने लगी थी। वे अस्वस्थ भी रहने लगे थे। 9 जून 1968 को उन्हें पक्षाघात हुआ। 101 वर्ष की आयु में वे 31 जुलाई 1968 को इस संसार से विदा हुए।[3] सातवलेकर जी ने कोई 409 ग्रंथों की रचना की। इनमें सर्वाधिक प्रतिष्ठा उनके वेद-भाष्यों को मिली है। आचार्य सायण के वेद-भाष्य(संस्कृत) के बाद इन्हीं का वेद-भाष्य (हिन्दी) अपेक्षाकृत सर्वाधिक प्रमाणभूत माना जाता है। आपके द्वारा संकलित "वैदिक राष्ट्रगीत" तो अद्भुत ग्रंथ है। यह एक साथ ही मराठी तथा हिंदी भाषा में बंबई और इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। राष्ट्रशत्रु का विनाश करने में सक्षम वैदिक मंत्रों के इस संग्रह से विदेशी शासन हिल उठा और उसने इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर डालने का आदेश दे दिया।[4]
(शुद्ध पाठ का सुसम्पादित संस्करण)
(* इन सब प्रकारों की अनेकानेक पुस्तकें लिखित)
देश के स्वतंत्र होने पर सन् 1959 में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के विशिष्ट विद्वान् के रूप में पुरस्कृत किया और 26 जनवरी 1968 को "पद्मभूषण" की उपाधि द्वारा उनका सम्मान किया गया। इसके पूर्व वे विद्यामार्तंड, महामहोपाध्याय, विद्यावाचस्पति, वेदमहर्षि, वेदमूर्ति आदि उपाधियों से समादरित हो चुके थे।