स्वरलिपि भारतीय शास्त्रीय संगीत को लिखित रूप में निरूपित करने के लिए प्रयुक्त प्रणाली है।
संस्थागत संगीत शिक्षण प्रणाली के उद्भव के साथ वास्तव में भारतीय संगीत की परंपरा में पहली बार व्यावहारिक संगीत को लेखबद्ध करने का प्रयास प्रारंभ हुआ। फलस्वरूप, संगीत के व्यावहारिक पक्ष को मज़बूती प्रदान करने के निमित्त विभिन्न रागों की बंदिशों और राग के सम्पूर्ण स्वर- विस्तार को लिपिबद्ध करने के उपाय ढूंढे जाने लगे। आधुनिक काल में संगीत के क्रियात्मक पक्ष को लिखने के लिये उसके प्रयोगात्मक चिन्हों के निर्माण पर विचार विमर्श शुरू हुआ। इस कार्य को मूर्तरूप प्रदान करने में आधुनिक काल की दो महान संगीत हस्तियों पं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर तथा पं विष्णु नारायण भातखण्डे का योगदान अद्वितीय रहा है। इन दोनों विद्वानों ने संगीत के क्रिया पक्ष को लेखबद्ध करने का गुरूतर कार्य प्रारंभ किया। फलस्वरूप, भारत में प्रथम बार इतने बृहद् स्तर पर राग की बंदिशों का लेखन प्रारंभ हुआ।
पं विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने अपनी छ: भागों में लिखी गई पुस्तक ‘ हिन्दुस्तानी संगीत- पद्धति क्रमिक पुस्तक मालिका’ में स्वनिर्मित स्वरलिपि द्वारा सैकड़ों बंदिशों को लिपिबद्ध कर उसका संग्रह किया। पं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने भी पुस्तक 'भारतीय स्वर लेखन पद्धति’ व 'संगीत तत्व दर्शक भाग 1-2‘ जिसमें उन्होंने विस्तारपूर्वक स्वनिर्मित स्वरलिपि लेखन की विशद चर्चा की है तथा अन्य अनेक दूसरी व्यावहारिक संगीत की पुस्तकों का लेखन कार्य (1926- 1931) व प्रकाशन किया जो दुर्भाग्यवश आज प्राप्त नहीं है। फिर भी, उनके द्वारा प्रचारित की गई स्वरलिपि आज हमें उपलब्ध है। इसके पश्चात् पं विनायकराव पटवर्धन तथा पं शंकरराव जी व्या्स ने पं विष्णु दिगंबर की मूल लिपि में थोड़े बहुत परिवर्तन कर ‘राग विज्ञान’ तथा ‘व्यास कृति’ नामक पुस्ताकें छपवाई। बाद में पं ओंकारनाथ ठाकुर ने भी स्वरलिपि में थोड़े-बहुत परिवर्तन कर अपनी पुस्तक 'संगीतांजलि’ का प्रकाशन छ: भागों में किया।
पं भातखण्डे जी द्वारा प्रचार पायी हुई स्वरलिपि पद्धति को ज्यादातर लोगों ने अपनाया। अधुना, अधिकांश पुस्तकों का निर्माण पं भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति द्वारा ही किया जा रहा है। पं भातखण्डे तथा पं विष्णु दिगंबर पलुस्कर स्वरलिपि पद्धतियों के निर्माण में पाश्चात्य संगीत के 'स्टाफ नोटेशन’ का ही सहारा लिया गया है। अस्तु स्वरलिपि के निर्माण में बहुत सी ऐसी कमियाँ रह गयीं हैं जो पूरी तरह से भारतीय संगीत की लेखनपद्धति से जुड़ी हुई हैं।
आजकल भारतीय स्वरलिपि के अनुरूप कम्यूटर लिपि विकसित किये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। साथ ही वर्तमान की देवनागरी लिपि आधारित लेखनपद्धति को भी चिह्न प्रधान बनाया जाना चाहिये। कुछ संगीतकार ऐसी ही एक स्वरलिपि का प्रयोग कर रहे हैं।
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