हरिजन सेवक संघ की स्थापना 30 सितम्बर 1932 को एक अखिल भारतीय संगठन के रूप में हुई थी। पहले इस संगठन का नाम अस्पृश्यता निवारण संघ रखा गया था, जिसे 13 सितम्बर 1933 को हरिजन सेवक संघ नाम दिया गया| इसके प्रथम अध्यक्ष प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला तथा सचिव अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर[1] हुए| संघ का मुख्यालय गाँधी आश्रम, किंग्सवे कैम्प, दिल्ली में है। इसकी शाखाएँ भारत में लगभग सभी राज्यों में हैं। वर्तमान में इसके अध्यक्ष शंकर कुमार सान्याल हैं।[2]
महात्मा गाँधी ने पुणे की यरवदा जेल में रहते हुए ब्रिटिश सरकार द्वारा दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की पद्धति स्वीकृत किये जाने के विरुद्ध 20 सितम्बर 1932 को उपवास शुरू किया|[3] महात्मा गाँधी तथा ब्रिटिश सरकार के बीच हुए पत्र-व्यवहार के प्रकाशित होते ही उनके 20 सितम्बर से उपवास शुरू होने की खबर अख़बारों में आ गयी, जिसकी देशभर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई| 15 सितम्बर को बम्बई सरकार को भेजे अपने वक्तव्य में महात्मा गाँधी ने कहा, " उपवास का निर्णय ईश्वर के नाम पर, उसके काम से और जैसा मैं नम्रतापूर्वक मानता हूँ उसके आदेशानुसार किया गया है| इस उपवास का मुख्य हेतु सच्चा धार्मिक कार्य करने के लिए हिन्दूओं की आत्मा को सतेज बनाना है| अस्पृश्य वर्गों का सवाल मुख्यतः धार्मिक होने के करण मै इसे खास अपना प्रश्न मानता हूँ|" एक ओर उस सरकारी निर्णय को बदलने की देशव्यापी माँग सामने आयी तो दूसरी ओर अस्पृश्यता को समाप्त करने की भावना जागृत हुई| इसका हल निकालने के लिए राष्ट्रीय नेताओं की कई बैठकें हुई, जिसका परिणाम यरवदा करार, जिसे पूना पैक्ट भी कहते हैं, के रूप में सामने आया| इस करार पर 24 सितम्बर 1932 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर और एम. सी. राजा ने दलितों की ओर से तथा पं. मदन मोहन मालवीय ने सवर्ण हिन्दुओं की ओर से हस्ताक्षर किए| इस समझौते के साथ ही हरिजन सेवक संघ अस्तित्व में आया तथा दलितों को हरिजन जैसा पवित्र नाम मिला|[4]
24 सितम्बर 1932 को यरवडा जेल में बन्द गांधी के सामने भारत के दलितों की ओर से डॉ भीमराव अम्बेडकर और एम सी राजा द्वारा तथा सवर्ण हिन्दुओं की ओर से मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर कर ऐक करार किया जिसके अंतरगत सांप्रदायिक अधिनिर्णय में संशोधन के साथ दलित वर्ग के लिये प्रथक निर्वाचन मंडल को त्याग कर प्रान्तीय विधान मंडलों में 71 के स्थान पर 147 स्थान और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18 प्रतिशत सीटें दी गयी। तदोपरान्त 26 सितम्बर 1932 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उपस्थिति में गांधी जी ने यह कहते हुये अपना उपवास तोडा उचित समय के अन्दर अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी सुधार यदि नेकनीयती के साथ न पूरा किया गया तो मुझे निश्चय ही फिर नये सिरे से उपवास करना पडेगा। परन्तु इस विषय पर गांधी जी को पुनः उपवास करने की आवश्यकता नहीं पडी क्योकि चौथे दिन 30 सितंबर 1932 को बम्बई में मदन मोहन मालवीय जी की अध्यक्षता में एक बैठक हुई जिसमें देश के सभी हिन्दू नेताओं ने निश्चय किया कि अस्पृश्यता निवारण के लिए एक अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी मंडल एंटी अनटचेनिलिटी लीग स्थापित किया जाय जिनका प्रधान कार्यालय दिल्ली में हो तथा जिसकी शाखायें विभिन्न प्रांतों में स्थापित हों साथ ही जो अस्पृश्यता उन्मूलन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए निम्न कार्यक्रम चलाये.
इन्ही विनिश्चयन के अनुसार अश्पृश्यता विरोधी मंडल नाम की अखिल भारतीय संस्था बनाई गयी जिसका मूल संविधान महात्मा गांधी ने अपनी हस्तलिपि में तैयार किया। यही संस्था आगे चलकर हरिजन सेवक संघ कहलाई जिसका मुख्यालय किंग्सवे कैम्प दिल्ली में स्थापित है। इस संघ का प्रथम प्रमुख श्री घनश्यामदास बिड़ला को नियुक्त किया गया तथा इसके पहले मंत्री बने श्री अमृतलाल बिट्टालदास ठक्कर जी ठक्कर बाबा के नाम से जाने जाते हैं। [5]
महात्मा गाँधी ने अपने वक्तव्य में हरिजन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया तथा लिखा, " हिन्दुस्तान में जो सबसे सबसे अधिक दुःख में पड़े हुए हैं, उन्हें हरिजन कहना यथार्थ है| हरिजन का अर्थ है, ईश्वर का भक्त, ईश्वर का प्यारा| अपने एक भजन में भक्तकवि नरसी मेहता ने अस्पृश्य भाइयों का उल्लेख हरिजन पद से किया है| इस दृष्टि से अस्पृश्य भाइयों के लिए हरिजन शब्द उपयुक्त है, ऐसा मैं मानता हूँ|" मोरोपंत-ग्रंथावली के सम्पादक-प्रकाशक आर. डी. पराड़कर ने भी मोरोपंत के एक प्रमाणिक पद्य में हरिजन पद को देखा तथा महात्मा गाँधी को बताया| उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा कि नरसी मेहता जैसे ही प्रमाण अन्य संतों की रचनाओं में पाए जाते हैं| हरिजन नाम अस्पृश्य, अंत्यज आदि नामों की घृणाभाव से मुक्त था, इसलिए इस नाम को तुरन्त सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई|
हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष
हरिजन सेवक संघ के सचिव
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के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद); |archivedate=
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के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद)