हुविष्क कुषाण वंश का शासक था जो कनिष्क की मृत्यु के बाद सिंहासन पर बैठा (लगभग १४० ई)।
कुषाण शासकों में हुविष्क का राज्यकाल बड़ा महत्वपूर्ण है। इसकी पुष्टि तत्कालीन कुषाण लेखों तथा सिक्कों (मुद्राओं) से होती है। लेखों के आधार पर इसने कनिष्क संवत् २८-६० तक राज्य किया। यह लेख प्राय: मथुरा के कंकली टीले तथा अन्य निकट स्थानों से खुदाई में मिले। अफगानिस्तान में वरधक नामक स्थान से इसी शासक का सं. ५२ का एक लेख मिला। विद्वानों का मत है कि यह सम्राट् कनिष्क का कनिष्ठ पुत्र था और अपने भाई वासिष्क (२४-२८) के बाद सिंहासन पर बैठा। अरा के सं. ४१ के लेख में एक अन्य कुषाण सम्राट् महाराज राजातिराज देवपुत्र कैसर कनिष्क का उल्लेख है जिसके पिता का नाम वाजेष्क था। ल्यूडर्स तथा कुछ अन्य विद्वानों के विचार में कनिष्क प्रथम की मृत्यु के बाद कुषाण साम्राज्य का विभाजन हो गया था। उत्तरी पश्चिमी भाग पर वाजिष्क तथा अरा के कनिष्क द्वितीय ने राज्य किया और उसके बाद हुविष्क का दोनों भागों पर अधिकार हो गया। यह सुझाव हुविष्क के राज्यकाल (२८-६०) में एक अन्य कुषाण सम्राट् अरा के कनिष्क की गुत्थी सुलझाने के लिए दिया गया था। विभाजन का कहीं भी संकेत नहीं मिलता है। वासिष्क के लेख क्रमश: २४ तथा २८ वर्ष के मथुरा तथा साँची में मिले। अत: उसका उत्तरी पश्चिमी भाग पर राज्य करने का लेखों से संकेत नहीं मिलता। हुविष्क ३२ वर्ष अथवा इससे भी कुछ अधिक काल तक संपूर्ण कुषाण साम्राज्य का शासक रहा और उसके बाद संवत् ६७ से ९८ तक वासुदेव ने राज्य किया।
हुविष्क के राज्यकाल के सं. २८ में वकन (बदकशाँ) से एक मध्य एशियाई सरदार मथुरा आया और उसने केवल ब्राह्मणों ही के लिए ५५० पुराणों की धनराशि दो विभिन्न श्रेणियों के पास जमा कर दी। इसमें इस समय की सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था का पता चलता है। हुविष्क ने एक पुण्यशाला का भी निर्माण किया, जिसका इस लेख में विवरण है, तथा अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ भी स्थापित कीं। इस सम्राट् की विभिन्न प्रकार की स्वर्णमुद्राओं से प्रतीत होता है कि इसका राज्यकाल संपन्न युग था। पूरब में इसका राज्य पटना तथा गया तक विस्तृत था, जैसा पाटलिपुत्र की खोदाई में मिले मिट्टी के बोधगया मंदिर के एक प्रतीक से पता चलता है। कल्हण की राजतरंगिणी में हुष्क, जुष्क तथा कनिष्क का उल्लेख है। हुष्क द्वारा बसाए गए हुष्कपुर की समानता वर्तमान वरामुला से की जाती है।